महिला दिवस: होली और पहाड़

  • जे .पी. मैठाणी

पीपलकोटी के बाजार के अंतिम छोर पर
बाड़ेपानी के धारे से तड़के सुबह
पानी की बोतलें भरती औरतें,
अपनी कमर पर स्येलू या सीमेंट के कट्टों से बनी
टाईट रस्सियाँ बांधे औरतें !

उधर अगथला गाँव से पीठ पर बन्दूक की तरह
सुयेटे लादी पहाड़ की औरतें ,
रोज अपने अपने हिस्से का पहाड़ नापने
और
कालपरी , जेठाणा, तमन गैर से और आगे
भंडीर पाणी से ग्वाड या छुर्री तक घास लेने जाती
मेरे गाँव की औरतें –
हमारे हिस्से के पहाड़ की ताकत हैं
होली के रंग की प्रतीक हैं
और महिला दिवस की प्रेरणा भी हैं!

रंगीन होली के रंगों की तरह ही
पहाड़ के इस हिस्से की महिलाओं के सपने भी
आशाओं और विश्वास से भरे और बेहद रंगीन है-
गुलाबी- थोड़े जैसे सकीना की तरह
नीले जैसे कैम्पानुला या सड़क किनारे के जैक्रेंडा की तरह
पीले फ्यूंली या सिल्वर ओक की तरह,
लाल जैसे – बुरांश या सेमल की तरह
नारंगी या हनुमानी जैसे धोलू की तरह
पफ या पोलन से भरे जैसे चीड के नर फूलों के मानिंद
सफ़ेद जैसे क्विराल/कचनार, पैय्यां, आडू,
पोलम या किवी के फूलों जैसे.

अलकनंदा के दोनों तटों से रोज सुबह
फूलों की तरह खिलने लगती हैं बेटियां और महिलाएं!
जब पहाड़ सोया रहता है अलस्सुबह
गाँव की  औरतें अपने हिस्से के पहाड़ को नापने
पहाड़ों की पगडंडियों पर बढ़ चलती हैं आगे –
धीरे धीरे – पहाड़ छोटे हो गए हैं
उन पर पहाड़ की महिलाओं के बुलंद इरादों वाले कदम
छा गए है आर- पार – आड़े- तिरछे सब तरफ
पहाड़ बौने हो गए – ठीक वैसे जैसे – पित्रसत्ता के पिरामिड
अब टूटने लगे है!

दरांती तेज धारों के साथ साथ काट रही है घास
पहाड़ के ढलान पर,
शाम होने से पहल
उतरती हैं औरतें वापस सपनों और इरादों के साथ
राजमार्ग पर पीठ पर पहाड़ लादे
पानी का धारा उनका इन्तजार कर रहा है!
उनके सपनों को फिर से पानी देने के लिए.

औरतें  हैं तो पहाड़ जिन्दा रहेगा.
वरना वो सिर्फ एक सड़क का घर है
जहा से पुरुष जाता है वापस नहीं आता!
वहाँ हर सुबह
महिलाएं अपने विजय गीत गाती है
सपने बुनती हैं रंगीन – होली  के रंगों की तरह
वैसे जैसे ठीक जैसे आज सुबह..
पीपलकोटी से भंडीर पाणी…
जाते हुए देखा पहाड़ पर औरतों को!

 

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