- डॉ. दीपशिखा जोशी
वैसे तो लगभग हमारे देश के हर हिस्से में महिलाओं को माहवारी के दिनों में अछूत माना जाता है, मगर पहाड़ी इलाक़ों में ख़ासकर बात करूँगी उत्तराखण्ड के बहुत जगहों पर इस प्रथा का बहुत सख़्ती से पालन होता है.
बहुत से लोग जो अब शहरों में रहते हैं या जिनका कभी पहाड़ों से वास्ता ना रहा हो शायद विश्वास ना करें कि अभी भी या कभी इतना कठिन जीवन जीती हैं या जीती थी महिलायें!
क्वारंटीन, आइसोलेशन शब्द हम में से बहुत से लोगों ने अब इस कोरोना काल में सुने होगें, मगर वो पहाड़ी महिला आज भी माहवारी के उन कठिन दिनों में रहती है पूरे 4 से 7 दिन बिलकुल अलग-थलग, उसे कोई छू नहीं सकता, अगर कोई छू लें तो गौ-मूत्र से उसकी शुद्धि की जाती है. उस महिला को इन दिनों केवल रसोई या पूजा-घर ही नहीं घर के बाक़ी हिस्सों में जाने की भी मनाही होती है. उसे मिलता है एक अलग स्थान, घर का कोई कोना, अधिकांशतया गाय को रखने की गौशाला. हाँ सच में आज भी इस 21वीं सदी में वो रहती है वहाँ, अकेली, या अपने नवजात शिशु के साथ. कभी-कभी ये हिस्सा होता है एकदम अंधेरा! छोटा सा लालटेन आता है उस के हिस्से. दो-चार पुराने बर्तन, ज़मीन में बिछा पुराना गद्दा, ओढ़ जर्जर हो चुका कम्बल बिताती है वो ठिठुरन भरी रातें अपने औरत-लड़की होने के भाग्य की. और उनको भी 4 या 5 वें दिन लोगों के जागने से पहले मुँह-अंधेरे धो देती है वो और फिर करती है घर के बाहर ही अन्य सदस्यों के उठने का इंतज़ार जो उसे दे दें गर्मा-गर्म चाय, थोड़ी सी गर्माहट के लिए, छिड़के उस पर गौ-मूत्र, शुद्धि के लिए.
ये प्रथाए उनके मन-मस्तिष्क में ऐसे घुल गयी जैसे खीर में शक्कर और इसके बहुत से ऐसे समाजिक, पारिवारिक व धार्मिक कारण हैं जिनसे लड़ाई लड़ पाना आसान नहीं. अगर आप ये सब मानने से इंकार करते हैं तो आप को देवी-देवताओं के रूष्ट हो जाने, घर की बरकत चले जाने, घर में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की तबियत ख़राब हो जाने का ज़िम्मेदार माना जाएगा.
नहीं-नहीं उनको कोई शिकायत नहीं ये सब करने से, आप दया नहीं दिखा सकते, वो इसे किसी प्रताड़ना की तरह नहीं लेती, अगर आप उनको इस सब से लड़ना सिखाए या उनको उनके हिस्से की सुविधाओं की बात करें तो आप को मुँह की खानी पड़ेगी.
ये प्रथाए उनके मन-मस्तिष्क में ऐसे घुल गयी जैसे खीर में शक्कर और इसके बहुत से ऐसे समाजिक, पारिवारिक व धार्मिक कारण हैं जिनसे लड़ाई लड़ पाना आसान नहीं. अगर आप ये सब मानने से इंकार करते हैं तो आप को देवी-देवताओं के रूष्ट हो जाने, घर की बरकत चले जाने, घर में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की तबियत ख़राब हो जाने का ज़िम्मेदार माना जाएगा.
बहुत सी पढ़ी-लिखी व समझदार महिलायें व पुरुष केवल घर की सुख-शांति, सामाजिक बहिष्कार के डर से ये प्रथाएँ आज भी ढोने पर मजबूर हैं.
ग्रामीण इलाक़ों की महिलायें हिसाब-किताब में भले ही कितनी कच्ची हों, मगर किस महिला को कब पीरियड्स आए थे व अब कब आने की संभावना हैं उसका बहिखाता इनके पास मुँह-ज़ुबानी होता है. तो ये परिपक्व महिलायें ना किसी को इन प्रथाओं को मानने से बचने देती हैं ना ही ख़ुद होती हैं इन तकलीफ़ों से निराश.
आज भी बहुत से ग्रामीण इलाक़ों में अध्यापिकाएँ, पीरियड्स के इन दिनों में बच्चों को बिना छुए, दूर से पढ़ाती हैं. और 5 दिन तक यह कार्यक्रम बिना किसी विरोध के चलता है. ना अभिभावकों को और ना ही छात्रों को इस से होती है कोई आपत्ति. हाँ आपत्ति अध्यापिका के ये सब ना मानने पर होती है, फिर या तो छात्र-छात्रायें स्कूल नहीं आयेंगे या उस अध्यापिका को छुट्टी लेने को मजबूर होना पड़ता है.
ग्रामीण इलाक़ों की महिलायें हिसाब-किताब में भले ही कितनी कच्ची हों, मगर किस महिला को कब पीरियड्स आए थे व अब कब आने की संभावना हैं उसका बहिखाता इनके पास मुँह-ज़ुबानी होता है. तो ये परिपक्व महिलायें ना किसी को इन प्रथाओं को मानने से बचने देती हैं ना ही ख़ुद होती हैं इन तकलीफ़ों से निराश. चाहे उन्हें इन सब नियमों से कितनी भी मानसिक व शारीरिक परेशानी हो वह कभी भी इन प्रथाओं को इनका ज़िम्मेदार नहीं मानती.
अब जब आप क्वारंटीन शब्द से भली-भाँति परिचित हो चुके हैं तो बस इतना कहना चाहूँगी कि हर महीने 4-5 दिन का आइसोलेशन बिना किसी बीमारी के, पीरियड्स के कठिन दिनों में न्यायसंगत नहीं किसी भी महिला के लिए!
हाँ इन प्रथाओं से दिक़्क़त उन बेटियों, बहुओं को ज़रूर होती है जिन्हें पता है ये कोई छूत की बीमारी नहीं. जो करती हैं समर्थन कि मिले उनको आराम बिना किसी रोकटोक व मानसिक दबाव के. जो नहीं चाहती मिलें उन्हें केवल ये ही दिन अपनी हौबी पूरी करने के. जो नहीं चाहती की बिना छूए दूर से सरका दी जाए उसको खाने से भरी थाली. हाँ उन्हें होती है दिक़्क़त जब उन के घर में आज भी हों इसी मानसिकता के बड़े-बुज़ुर्ग, जो पले-बढ़े हैं इसी मानसिकता के साथ और करने पर उसके विरोध, वो हो जाते हैं असहज.
आप उन दिनों ना अचार की मर्तबान छू सकती हैं, ना अपने आँगन में सज रहे तुलसी व गमलों में पानी दे सकती, ना मंदिर, ना रसोई. आप प्रतिबंधित हैं. आप को जो बना दे दिया जाय, जैसे दिया जाय, जिस समय दिया जाय खाना पड़ेगा. औरत के साथ इन दिनों उसका पति भी धार्मिक कार्यों के लिए वर्जित माना जाता है.
बहुत से लोग तर्क देते हैं कि ये प्रथाएँ पूर्वजों द्वारा महिलाओं के हितो को ध्यान में रख बनायी गयी होगी.
पता नहीं क्यूँ बनायी गयी? प्रथाओं-नियमों को समय के साथ कितना तोड़ा-मरोड़ा गया? ये कौन जानता हैं?
जो भी हो आज के समय में यह सब बिलकुल भी उचित नहीं ठहराया जा सकता. इस पर हर रूप से रोक लगनी चाहिए.
हाँ ये बहुत अच्छी प्रथा होती अगर इसका उद्देश्य औरत को आराम, साफ़-स्वच्छ वातावरण-माहौल देने का होता. मगर मेरी नज़रों में ये इस उद्देश्य के लिए बिलकुल नहीं हैं. क्यूँकि वो घर के बाहर खेत-खलिहानों के, जंगल से घास-लकड़ी लाने के व अन्य बाहरी कार्य और अधिकता से करती हैं इन दिनों.
ये एक तरह की शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना हैं और कुछ नहीं.
समाधान की बात करें तो कुछ मत बोलिए, बस कट रही ज़िंदगी, सब आँखें मूँदे बैठे हैं. हाँ ग़ुस्सा आता है, बहुत लोगों को आता है, मगर किसी ने इसे सकारात्मकता के साथ स्वीकार्य कर लिया है कि घर की महिलाओं को आराम मिल जाता है तो कोई इस पर बस चर्चा किए बिना निकल जाना चाहते हैं.
हालत यूँ हैं कि आज भी खुल के इस विषय पर चर्चा करने से बचते हैं लोग.
अब जब आप क्वारंटीन शब्द से भली-भाँति परिचित हो चुके हैं तो बस इतना कहना चाहूँगी कि हर महीने 4-5 दिन का आइसोलेशन बिना किसी बीमारी के, पीरियड्स के कठिन दिनों में न्यायसंगत नहीं किसी भी महिला के लिए!
(डॉक्टर दीपशिखा जोशी मूल रूप से उत्तराखंड के चंपावत ज़िले से हैं. DSB कैंपस, कुमाऊं यूनिवर्सिटी नैनीताल से केमिस्ट्री में पीएचडी हैं. NET क्वालिफाइड हैं. पढ़ने-पढ़ाने का काम करती हैं.फिलहाल एक नन्हीं सी बिटिया की परवरिश कर रही हैं.)