रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़ती महिलाएं

  • अशिता डोभाल

पुराने समय में एक कहावत थी कि यदि कोई व्यक्ति थका हुआ सा दिखता था तो कहा जाता था कि तुम कौन सा “हल चला कर आए हो या हल लगाकर आए हो”.

वर्तमान समय में कोरोना वायरस के प्रकोप से सभी लोग अपने—अपने घरों में कैद होकर रह गए हैं. सभी अपना समय अपने तरीके से व्यतीत कर रहे हैं. कोई पेंटिंग, बागवानी, नगदी फसल उगाकर कर रहे तो कोई खाने पीने की चीजों पर अपना हाथ आजमा रहे हैं. मैंने भी शुरुआत में रवांई घाटी के परम्परागत व्यंजनों पर अपना हाथ आजमाया, फिर कभी—कभार ऑफिस के छोटे—मोटे काम करके समय का पता नहीं चलता था पर लॉकडॉउन में एक अनुभव लेने का मौका मेरे हाथों में आ गया, वो था हल चलाना. पिछले कुछ समय से मेरे दिमाग में एक बात रह रहकर आ रही थी कि जिंदगी में लगभग सारे कामों में हाथ आजमाया है, एक बार हल पकड़ने का मौका मिल जाए तो मानो सारा जहां मिल जाए. रोज शाम को हम टहलने के लिए निकलते हैं, कभी कंशोला रोड पर तो कभी योगेश की फैक्ट्री की तरफ, आज जैसे ही हम निकले तो मेरे गांव के शिवालय के नीचे एक व्यक्ति (सुरेश बिजल्वाण) को हल चलाते देखा, तो लगा कि आज तो मौका मिल ही गया और मैं मौका चूकना नहीं चाहती थी.

मन थोड़ी देर के लिए शंकाओं के जालों से घिर—सा गया कि पहाड़ों में लोग स्त्री के हल चलाने को लेकर भ्रमित रहते हैं. लोग आज भी रूढ़िवादी सोच के है लोगों का मानना है कि स्त्री का हल चलाना शुभ नहीं माना जाता, उनको हल चलाने का अधिकार नहीं है. इस तरह की बातें मेरे दिमाग में चल रही थी पर मै थोड़ा जिद्दी किस्म की हूं, तो सोचा कि पहले ये काम कर लेती हूं लोग क्या कहेंगे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.

मुझे जिस तरफ से सहज महसूस हुआ, मैंने उसी तरफ से पकड़ा.  थोड़ा चलने के बाद लगा की बैल अनियंत्रित हो रहे है और लगा ही हल के साथ मुझे भी घसीट कर ले जा रहे हैं, उसका कारण ये था कि मैंने नकेल वाली रस्सी को नहीं पकड़ा था. 

यदि मुझसे किसी ने कोई भी सवाल किया तो मै उनको जबाव भी अपने तरीके से देने में सक्षम हूं. मुझे तो सिर्फ ये जानना है कि हल चलाने में होता कैसा है? बस फिर क्या था, मैं खेत में गई और सुरेश को बोला कि मुझे हल चलाना है, थोड़ी देर के लिए तो वो भी मेरा मुंह देखने लगा कि क्या बोल रही है, फिर मैंने दुबारा बोला कि मुझे हल चलाना है तो उसने तुरंत मुझे कहा, पकड़ो मैंने जैसे ही हल पकड़ा तो पहली बात तो ये है कि मुझे समझ नहीं आया कि दांए से पकड़ूना या बांए से. फिर मुझे जिस तरफ से सहज महसूस हुआ, मैंने उसी तरफ से पकड़ा.  थोड़ा चलने के बाद लगा की बैल अनियंत्रित हो रहे है और लगा ही हल के साथ मुझे भी घसीट कर ले जा रहे हैं, उसका कारण ये था कि मैंने नकेल वाली रस्सी को नहीं पकड़ा था. दूर खड़े बहुत सारे लोग मुझे देख रहे थे, फिर उन्होंने मुझे गाइड किया कि रस्सी पकड़ो और फिर बैल एक जगह खड़े हो गए. कैसे बैलों को घुमाना है ये सब बताते रहे. एक नहीं कई बार इधर—उधर घूमते रहे। यह एक अलग—सा अनुभव था.

बचपन के दिन याद आने लगे कि जब हम हल चलाते समय खेत में जाते थे तो पिताजी बैलों के ऊपर चिलाते थे और खुद भी चिढ़चिड़े होते थे वो शायद इसलिए कि हल चलाते समय थकान बहुत होती है और यदि शारीरिक रूप से कोई कमजोर हो तो भी हल चलाना कोई आसान काम नहीं है और यही वजह रही होगी कि महिलाएं हल नहीं चलाती होंगी, लेकिन अब बहुत सारी महिलाएं हल चलाने लगी हैं  शायद किसी मजबूरी के चलते ही महिलाएं हल चलाती होंगी.

आधुनिक कृषि यंत्रों ने बैलों की जगह ले ली है. खेती को आसान बनाने के लिए लोग इन यंत्रों से काम कर रहे हैं, चाहे कितना भी पैसा देना पड़े पर वे इन यंत्रों को खरीद रहे हैं. अब भी मेरे दिमाग में एक सवाल है कि क्या हमारा समाज उन कृषि यंत्रों को स्त्रियों को चलाने का अधिकार देगा या उन पर भी अपनी रूढ़िवादी सोच और अंध विश्वास को कायम रखेगा.

आज बहुत सारे गांव ऐसे है जहां लोगों ने बैल पालने बन्द कर दिए. बहुत कम परिवार हैं जिनके पास बैल हैं. आधुनिक कृषि यंत्रों ने बैलों की जगह ले ली है. खेती को आसान बनाने के लिए लोग इन यंत्रों से काम कर रहे हैं, चाहे कितना भी पैसा देना पड़े पर वे इन यंत्रों को खरीद रहे हैं. अब भी मेरे दिमाग में एक सवाल है कि क्या हमारा समाज उन कृषि यंत्रों को स्त्रियों को चलाने का अधिकार देगा या उन पर भी अपनी रूढ़िवादी सोच और अंध विश्वास को कायम रखेगा.

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *