डाबर की मदद से पीपलकोटी में पहली बार गुलबनफ्शा की नर्सरी का प्रयोग सफल

Gulbanafsa

jp Maithani

जे. पी. मैठाणी

जनपद चमोली के पीपलकोटी स्थित- बायोटूरिज्म पार्क की नर्सरी में गुलबनफ्शा की पौध पहली बार पाली हाउस के भीतर ट्रे में जीएमओ फ्री बीजों से की गयी. आगाज संस्था के कार्यक्रम संयोजक- जयदीप किशोर ने बताया कि उनकी संस्था द्वारा जनपद चमोली में जड़ी बूटी की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए डाबर इंडिया के जीवन्ति वेलफेयर एंड चैरिटेबल ट्रस्ट के सहयोग से चलाई जा रही योजना के अंतर्गत एक प्रजाति गुलबनफ्शा भी है. वो आगे बताते हैं कि इस वर्ष संस्था का लक्ष्य 5000 पौध विकसित करने का है लेकिन इसके बीज सम्पूर्ण उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, हिमाचल और सिक्किम में भी नहीं मिले तब संस्था के अध्यक्ष जेपी मैठाणी इसके बीज पोलैंड से लेकर आये है इन बीजो को संस्था के नर्सरी विशेषज्ञ भूपेंद्र कुमार और श्रीमती रेवती देवी ने रेत, मिटटी, कोको पीट, वर्मिकुलाइट और गाय के सड़े गोबर के मिक्सचर को ट्रे में भरकर उसमे बीजों को उगाने में सफलता हासिल की है. आमतौर पर यह कार्य वैज्ञानिक और रिसर्चर ही कर पाते हैं. वो बताते हैं उनकी टीम द्वारा 6-7 प्रकार के प्रयोग किये गए ये बीज देरी से जमते हैं इसके लिए धैर्य और नियमित देख रेख की बेहद जरूरत होती है.

कैसे करें खेती – गुल बनफ़्शा की खेती के लिए 1400 मीटर से 2000 मीटर तक की उंचाई वाले क्षेत्र उपयोगी है. सबसे पहले क्यारियों या ट्रे में उगाई गयी पौधों को पालीहाउस के ही भीतर  थैलियों में अप्रैल से जून के मध्य प्रत्यारोपित कर देना चाहिए- फिर 2 सप्ताह बाद थैलियों को- बाहर 75 या 50% प्रतिशत वाले शेडिंग नेट की नीचे कम से कम बरसात शुरू होने तक रख देना चाहिए इस दौरान हर 3-4 दिन बाद सिंचाई भेअद जरूरी है तब इसकी जड़ों में कई राइजोम बन जाते हैं और रनर्स पैदा होने लगते है.

खेत की तैयारी-  ढाल नुमा खेती इसके लिए उपयुक्त है- खेत को 2-3 बार हल जोत कर एक नाली खेत में कम से कम 5 कुंतल गोबर की सड़ी हुई खाद डालकर तैयार कर लेना चाहिए. फिर खेत में सीध में नालियाँ बना लेनी चाहिए एक नाली से दूसरी नाली की दूरी कम से कम 1 फीट होनी चाहिए. उसके बाद नर्सरी की थैलियों से पौध निकालकर 2-2 फीट की दूरी पर रोपती करनी चाहिए. गुल बनफ़्शा के पौधे से जड़ से रनर्स निकलते हैं और खूब गुच्छों में पौध उगती हैं, 1 नाली भूमि के लिए कम से कम 2000 पौधों की आवश्यकता होती है. सिर्फ एक माह के भीतर ही 2000 रोपित पौधों से 4-5 हजार पौध बन जाती है और मध्य जुलाई में फूल खिलने लगते हैं, इस बीच समय- समय पर इसकी पत्तियों और फूलोंको तोड़कर छाया में सुखोकर बेचने के लिए रख देते हैं, लेकिन बीज उत्पादन को बढाने के लिए फूलों को नहीं तोडा जाता है. हालाँकि इसके बीजों की भी बहुत मांग है. क्यूंकि ये एक सजावटी पौधा भी है.

बाजार मूल्य- वर्तमान में गुल बनफ़्शा के फूल और पत्तियों का बाजार मूल्य 5000 रुपये किलो के आस पास है. वैसे तो ये पूरा का पूरा पौधा भी बिकता है जिसका मूल्य 4000 रुपये प्रति किलो है, और एक नाली भूमि से कम से कम 5-6 किलो फूल और पत्तियाँ और 20-25 किलो पंचाग का उत्पादन हो सकता है. एक नाली भूमि से 300-400 ग्राम बीज तैयार किया जा सकता है इसके बीजो का बाजार मूल्य 1 लाख रुपये प्रति किलो के आस पास है. 3 ग्राम मूल्य के बीज के पैकेट का वर्तमान बाजार मूल्य 350 रुपये है. इसके राइजोम  और जड़ों को अगर उखाड़ा नहीं गया तो अगले वर्ष उन्ही से नयी पौध तैयार हो जाती है.

गुलबनफ्शा का आयुर्वेद में उपयोग और मांग –

गुलबनफ्शा हिमालय की एक बेहद महत्वपूर्ण औषधी है गुल बनफ़्शा, वियोला ओडोराटा या स्वीट वायलेट एक सुगंधित जड़ी-बूटी है. इसका वानस्पतिक नाम – वायोला ओडोरेटा  एल. है इसका  परिवार:-  वायोलेसी है, आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पध्दती में इसके सभी पाँचों अंगों का प्रयोग किया जाता है इसके अन्य नाम- वायोला  विडेमैनी  बोइस,  वायोला  ओडोरा  नेक हैं गढ़वाली में इसको कभी कभी गलती से समोया भी बोल देते हैं, इसके एनी क्षेत्रीय नाम –

क्षेत्रीय नाम:-  अंग्रेजी:  वुड वॉयलेट, स्वीट वॉयलेट, कॉमन वॉयलेट, गार्डन वॉयलेट,

संस्कृत:  बनफ्शा, बनफ्सा, वनफ्सा, वनस्पिका,

हिंदी:  बनफ्सा, बनफ्शा, वनफ्शा, बनफ्सा,

उर्दू: बी अनफ्शा, बनफ्शाह, गुल बनफ्शा, गुल बनफ्शाह , गुल-ए-बनफ्शा,   

मराठी:   बागबानोसा,  

तमिल:  वायिलेथे, वेलेटा, रत्ना पुरुस, रत्नपुरुकु हैं .

बेहद महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी इसके आयुर्वेदिक महत्व के बारे में आम जनमानस या ग्रामीणों को सही सही जानकारी नहीं है. इस पौधे के फूलों की खुशबू वियोला ओडोराटा पौधे के फूलों से मिलती है. इसको कश्मीर बनफशा या बाग़ बनफशा भी कहते हैं गुलबनफ्शा उर्दू का शब्द है. इसको स्वीट वायलेट भी कहते हैं फ़िनलैंड में इसको फियोलेक वोंनी भी कहते हैं पारंपरिक चिकित्सा में इसे सदियों से औषधीय गुणों के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. गुल बनफ़्शा के कई फ़ायदे हैं.

कई प्रकार के आयुर्वेदि कफ सीरप में गुल बनफ्सा के फूल पत्तियों और पंचांग यानी- फूल, पत्ती, तना, जड़ और बीजों का प्रयोग किया जाता है. इसकी पत्तियों और फूलों को सरसों या टिल के तेल में मिलकर मालिश की जाती है, जिससे अनिंद्रा और बच्चों की काली खांसी, अपचा, गले में खराश, आम आदमी के एक्जीमा, गठिया, सरदर्द में बेहद उपयोगी है, इसके फूलों से ईरान में तेल भी बनाया जाता है, और कॉस्मेटिक में भी उपयोग किया जाता है. काली खांसी, जुकाम और लीवर की सूजन में इसका सीरप और काढ़ा उपयोगी होता है.

आयुर्वेदाचार्य (बीएएमएस) डॉ. प्रवीण सेमवाल बताते हैं कि गुलबनफ्शा के बेहद महत्वपूर्ण गुण यह हैं कि गुलबनफ्शा पित्त को ठीक करता है पित्ताशय में जमा टोक्सिंस को बाहर निकालता है, यह एंटीकेंसर, एंटीडायबिटिक, एंटीबेक्टीरियल, एंटीओक्सिडेंट है यह बहेड आसानी से शरीर से गर्मी को बाहर भी निकाल देता है! इसका उपयोग श्वसन संबंधी बीमारियों, अनिद्रा, खांसी, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, काली खांसी, बुखार, कब्ज, जलन, आंखों में जलन, त्वचा संबंधी विकार, सिस्टिटिस, गले के संक्रमण और गठिया के इलाज के लिए किया जाता है. इसका उपयोग कार्डियो-टॉनिक और मस्तिष्क, यकृत और पेट के लिए टॉनिक के रूप में किया जाता है. वर्तमान में इसकी टेबलेट भी कई कम्पनियां बनाने लेगी हैं जिसके कारण इसकी बेहद मांग है अभी तक बड़े पैमाने पर – गुलबनफ्शा का आयात ईरान से किया जाता है,

गुलबनफ्शा के बारे में एक कह्वात है –

हकीम और वैध्य एक से अगर ताफ्शीस अच्छी हो

हमें सेहत से है मतलब- बनफशा या तुलसी हो!

सेवन प्रतिबंधित

गर्भावस्था और स्तनपान की अवधी के दौरान इसका सेवन प्रतिबंधित माना जाता है, सर्दी जुकाम के लिए इसके फूल और पत्तियों के रस को नाक में भी डाला जाता है लेकिन ये 30 दिन से अधिक नहीं डालना चाहिए.

कुछ वैज्ञानिक जानकारी

विवरण:-  इस पौधे को भारत में बनफसा, बनफ्शा या बैंक्स के नाम से जाना जाता है। यह एक कठोर शाकाहारी, बारहमासी फूल वाला पौधा है. इसकी हृदयाकार पत्तियाँ अक्सर स्कैलप्ड या थोड़े दाँतेदार किनारों वाली होती हैं, जो गहरे हरे रंग की, चिकनी या कभी-कभी नीचे से कोमल होती हैं, और पौधे के आधार पर रोसेट में उगती हैं. जड़ें रेंगने वाली होती हैं और रनर भेजती हैं। फूल गहरे बैंगनी या नीले से लेकर गुलाबी या पीले सफेद रंग के हो सकते हैं.

फाइटोकंस्टिट्यूएंट्स:-  मुख्य रासायनिक घटक फ्लेवोनोइड, ग्लाइकोसाइड्स, एल्कलॉइड्स, स्टेरॉयड, टेरपेन्स, सैपोनिन और टैनिन हैं. इसकी जड़ों और प्रकंदों में ओडोरानाइट और साइक्लोवियोलासिन O2 (CyO2) भी होते हैं. इसमें यूजेनॉल, फेरुलिक-एसिड, कैम्पफेरोल, क्वेरसेटिन, स्कोपोलेटिन भी होते हैं. (मुख्य रासायनिक घटक की यह जानकारी इन्टरनेट से)

आयुर्वेदिक गुण 

रस : कटु (तीखा), तिक्त (कड़वा),  

गुण : लघु (हल्कापन), स्निग्धा (तेलीयता, अशुद्धता),

विपाक:  कटु- पाचन के बाद तीखा स्वाद रूपांतरण,

वीर्य:  उष्ण, त्रिदोष पर प्रभाव- वात पित्तहर- वात और पित्त दोष को संतुलित करता है.

संस्कृत:  बनफ्शा, बनफ्सा, वनफ्सा, वनस्पिका,

गुलबनफ्शा और स्वरोजगार- गुलबनफ्शा की खेती से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में 1400 मीटर से 2000 मीटर तक की उंचाई वाले क्षेत्र उपयोगी है. जहां सिंचाई की भी सुविधा भी न हो वहां भी 1 नाली भूमि से- फूल-पत्तियां या पंचांग और बीज की बिक्री से ही किसान को एक वर्ष में कम से कम – 50-80 हजार तक की आमदनी हो सकती है. इसकी एक पौध का बाजार मूल्य 20 से 25 रुपये है एक नाली भूमि के लिए 10 से 12 ग्राम बीज से ही लगभग 3000 पौध बनाई जा सकती है और एक नाली के लिए 2000 पौध ही चाहिए. वर्तमान में डाबर इंडिया जनपद चमोली के विकासखंड घाट, जोशीमठ और दशोली में गुलबनफ्शा की खेती को प्रोत्साहित कर रहा है. जनपद में जो किसान गुलबनफ्शा की खेती के लिए निशुल्क पौध प्राप्त करना चाहते हैं- वो पीपलकोटी- चमोली में आगाज फैडरेशन संस्था के बायोटूरिज्म पार्क में संपर्क कर सकते हैं (website – www.aagaasbtp.org).

सभी चित्र – आगाज के सौजन्य से

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