- आशिता डोभाल
पहाड़ों में बहुत—सी चीजें हमारे बुजुर्गों ने हमें विरासत के रूप में सौंपी हैं पर आज आधुनिकता की चमक—दमक और भागदौड़ भरी जीवनशैली में हम इन चीजों से कोसों दूर जा चुके हैं. हम अपनी पुराने खान—पान की चीजों को सहेजना और समेटना लगभग भूल ही गए हैं. अपने खान—पान में हमने पुराने अनाजों, पकवानों को कहीं न कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया है. आज लोग उस खान—पान को ज्यादा पसंद कर रहे हैं जिसमें पौष्टिकता बहुत कम मात्रा में होती है और शरीर को नुकसान अलग से होता है, जिससे हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ रही है. हमारा शरीर रोगों से लड़ने के लिए कमजोर होता जा रहा है. जिस खाने में नाममात्र की भी पौष्टिकता नहीं होती है बल्कि शरीर को मजबूत बनाना तो दूर, कमजोर ज्यादा बना रहा है, ऐसे खान—पान को हमने अपने आज खाने में शामिल किया हुआ है.
रवांई घाटी एक ऐसी घाटी है जहां पर लोगों ने आज भी अपनी परम्पराओं को जीवित रखा हुआ है. बात चाहे बोली—भाषा की हो या सांस्कृतिक परिवेश की, खान—पान की हो या पारंपरिक रीति—रिवाजों की. घाटी के लोग आज भी अपनी पांरपरिक और परंपरागत चीज़ों को समेटने और सहेजने में लगे रहते हैं. हमारी लगातार कोशिश रहती है कि खाने—पीने की चीजों को पुराने ढंग से रखा जाय.
पहाड़ी चटपटे खाने के शौकीन तो होते ही हैं और अपने स्वाद को लगातार बरकरार रखने के लिए उनकी विधियां भी अनोखी हैं, जिससे उनमें कभी फफूंद, कीड़े पड़ने का भी खतरा नहीं रहता है और ये चीजें सालभर तक इनके स्वाद को बरकरार रखती हैं. मै बात कर रही हूं चुल्लू (wild apricot) के बाहरी भाग से बनने वाली पोली/पोई की जो कि बनाने में बहुत ही आसान है.
चुल्लू के दाने के छिलके (बाहरी भाग) को धूप में हल्का—सा सुखाने के बाद ओखली कुटा जाता हैं, उसके बाद एक बार फिर से हल्का सुखाने के लिए रखा जाता है, जिससे उसका पानी सूख जाए. पानी सुखाना इसलिए जरूरी हो जाता है ताकि वो खराब न हो. इस प्रक्रिया से पोली को लंबे समय तक रखा जा सकता है, उसके बाद नमक—मिर्च, पुदीना और लहसुन के साथ एक बार फिर से ओखली के कुटा जाता है. फिर जब ये सब अच्छे से मिक्स हो जाए तो उसके बाद इसके मिश्रण को आटे की तरह गूंथ कर हाथों पर तेल लगाकर गोलाकार आकार में पोई बनाकर सुखाने के लिए डाल देते हैं. पोई बनाते समय इस बात का ध्यान रखना होता है कि तेल से पोई पर अच्छी तरह से लग जाए, वो इसलिए कि उससे कीड़े पड़ने की संभावना कम रहती है.
इसका उपयोग सिर्फ चटनी बनाने में ही नहीं बल्कि सर्दियों में जब बर्फ पड़ती है तो बर्फ के चाट को चटपटा बनाने में भी किया जाता है.
मुझे आज भी याद है कि बचपन में हम चुल्लू लेने घर से स्पेशल जाते थे, हमें पता होता था कि किस जगह और किस पेड़ पर पके हुए चुल्लू होंगे. फिर सब बच्चे झुंड में उस पेड़ के चारों ओर डेरा डाले रहते थे. कई बार तो लोगों की गलियां भी खाई होंगी. हर घर में चुल्लू के ढेर होते थे हर घर में पोली/पोई बनती थी. वर्तमान समय में गांव में बहुत बदलाव आ चुका है. अब कोई भी बच्चा चुल्लू लेने स्पेशल घर से बाहर नहीं निकलता और न उसको पोली का पता है न उससे बनने वाली चटपटी चटनी का स्वाद. आज की युवा पीढ़ी को तो बस मोमोज और चाऊमीन का स्वाद ही भाता है. लॉक डाऊन में मुझे भी भरपूर समय मिल और मैं इस समय का पूरा उपयोग करना चाह रही हूं, मेरी कोशिश है कि मैं ज्यादा से ज्यादा पोली/पोई बनकर रख सकूं और एक साल तक इससे बनने वाली चटनी और बर्फ की चाट का मजा ले सकूं.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)