- भुवन चन्द्र पन्त
छीन लिया है अमन चैन सब, जब से तुमने पांव पसारे।
हर घर में मेहमान बने हो, सिरहाने पर सांझ-सकारे।।
भुला दिये हैं तुमने अब तो, रिश्तों के संवाद सुरीले।
सारे रिश्ते धता बताकर, बन बैठे हो मित्र छबीले।।
सब के घर में रहने पर भी, ऐसी खामोशी है छाई।
बतियाते हैं सब तुमसे ही, मम्मी-पापा, बहना भाई।।
घर के रिश्ते मूक बने हैं, तुमसे रिश्ता जोड़ रहे हैं।
खुद-रोते हंसते तेरे संग, हमसे नाता छोड़ रहे हैं।।
नन्हें से बच्चे तक को भी, तुमने ऐसे मोह में जकड़ा।
रोता बच्चा चुप हो जाये, ज्यों ही उसने तुमको पकड़ा।।
गुस्से में मैं बोला इक दिन, क्यों रिश्तों को छीन रहे हो?
हमसे इतना प्यार जताने, को तुम क्यों शौकीन रहे हो?
चुपके से आकर वो बोला, खता न मेरी खुद को रोको।
यकीं नही मेरी बातों पर, मुझको इस पत्थर पर ठोको।।
कसम तुम्हारी ऊफ न करूंगा, चाहे कितना भी धोओगे।
पर ये सच है तोड़ के मुझको, सबसे ज्यादा तुम रोओगे।।
मैं बोला फिर कौन हो तुम? बोला, मैं सबकी स्माइल
बड़े यत्न से रखते मुझको, मुझे बोलते हैं मोबाइल।।
(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों, लोकसंस्कृति, लोकपरम्परा, लोकभाषा तथा अन्य सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के अलावा
कविता लेखन में भी रूचि. 24 वर्ष की उम्र में 1978 से आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ, रामपुर तथा
अल्मोड़ा केन्द्रों से वार्ताओं तथा कविताओं का प्रसारण.)