हम याद करते हैं पहाड़ को… या हमारे भीतर बसा पहाड़ हमें पुकारता है बार-बार? नराई दोनों को लगती है न! तो मुझे भी जब तब ‘समझता’ है पहाड़ … बाटुइ लगाता है…. और फिर अनेक असम्बद्ध से दृश्य-बिम्ब उभरने लगते हैं आँखों में… उन्हीं बिम्बों में बचपन को खोजती मैं फिर-फिर पहुँच जाती हूँ अपने पहाड़… रेखा उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं. हम यहां पर अपने पाठकों के लिए रेखा उप्रेती द्वारा लिखित ‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ नाम की पूरी सीरिज प्रकाशित कर रहे हैं…
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़ भाग—1
- रेखा उप्रेती
“धरु!! आब काँ होलि भेंट” आमा ने मेरे बाबूजी को अंग्वाल में लेते हुए कहा और फफक कर रो पड़ी.
“तस नी कौ काखी, आब्बे…” बाबूजी के बोल रुँधे कंठ में विलीन हो गए.
गर्मी की छुट्टियाँ ‘घर’ में बिताकर, दिल्ली वापस लौटने की घड़ी आती तो निश्वास लगता… जाने वाले को… और विदा करने वाले को भी. दो-तीन दिन पहले से ही उदासी मंडराने लगती. संदूक में सामान रखते हुए, कपड़े बटोरते हुए, गाँव की काखियों, बोजियों की दी हुई ‘सुदामा के तंडुल’ सी मूल्यवान भेंटे होल्डोल में बांधते हुए…
नीचे उतरती पगडंडियों पर चुपचाप कदम धरते हम… बीच में सीढ़ीदार घास के छोटे छोटे समतल मैदान… कुछ देर वहाँ बैठकर पूर्वज पहाड़ों को निहारना भी अनकही रीत की तरह था. चनौदा से लेकर सोमेश्वर घाटी तक का पूरा नीरव विस्तार सामने बिछा रहता
विदा से पहले की शाम सबसे उदास होती. लौटने से पहले देविथान जाना… जिस चढ़ाई को फ़र्लांघते हुए चढ़ जाते थे हमेशा, उस शाम वह अगम प्रतीत होती… एक-एक कदम उठाना भारी लगता. मल्लिका माँ के छोटे से बसेरे के भीतर निराकार सी उस प्रस्तर-प्रतिमा के सम्मुख हम दीप जलाकर प्रार्थना करते… परदेश में हमारी रक्षा करना माँ … लाज रख लेना…
दिए का टिमटिमाता प्रकाश हमें आशीष देता, आश्वस्त करता और प्रदक्षिणा के बाद एक एक कर पयाँ के पेड़ से लटकती घंटियाँ बजाते हुए हम लौट आते… घंटियों की प्रतिध्वनि देर तक गूँजती रहती…
नीचे उतरती पगडंडियों पर चुपचाप कदम धरते हम… बीच में सीढ़ीदार घास के छोटे छोटे समतल मैदान… कुछ देर वहाँ बैठकर पूर्वज पहाड़ों को निहारना भी अनकही रीत की तरह था. चनौदा से लेकर सोमेश्वर घाटी तक का पूरा नीरव विस्तार सामने बिछा रहता… कई आकारों में बंटे कुछ हरे कुछ पीले खेत, कोसी नदी के घुमाव, चंद्रेश्वर मंदिर का शिखर, ऊपर सर्पाकार सड़क और पीछे साँवली पहाड़ियों का बैकड्राप… दूर कहीं बजती मुरली की उदास धुन.. पश्चिम में ढलते सूरज की लालिमा से रंगी बादलों की हलकी-सी परतें और शीश उठाकर झाँकता हिम शिखर…
कलेवा गले से नीचे नहीं उतरता पर मुँह जूठा किए बगैर घर से जाना अच्छा नहीं माना जाता था… ‘मुख-बिटाव’ कहते थे उसे…. आमा, चाचियाँ, बुआ बारी-बारी सबके ललाट पर अक्षत-पिठ्या लगातीं… फिर देहरी से नीचे उतरते हुए आख़िरी सीढ़ी पर अटक जाते हम… घर को पीठ दिखाकर नहीं निकलता था कोई..
कहते हैं शिव का निवास है हिमालय और नंदा का मायका है उत्तराखंड… नंदा भी जब मायके से लौटती है तो उसे विदा करने पूरा पहाड़ उमड़ पड़ता है .. ‘नन्दा देवी राजजात’… हर बारह वर्ष बाद यह यात्रा गढ़वाल और कुमाऊँ के देवी मंदिरों से गुजरती हिमालय की दुर्गम घाटियों तक जाती है अपनी बेटी नंदा को विदा करने… विदाई हमेशा करुण ही क्यों होती है!…
लौटने की वह सुबह… कलेवा गले से नीचे नहीं उतरता पर मुँह जूठा किए बगैर घर से जाना अच्छा नहीं माना जाता था… ‘मुख-बिटाव’ कहते थे उसे…. आमा, चाचियाँ, बुआ बारी-बारी सबके ललाट पर अक्षत-पिठ्या लगातीं… फिर देहरी से नीचे उतरते हुए आख़िरी सीढ़ी पर अटक जाते हम… घर को पीठ दिखाकर नहीं निकलता था कोई..आख़िरी सीढ़ी पर पलटकर घर की ओर मुँह कर उतरी जाती थी वह… विवाहित दीदियाँ चावल से देहरी पूजतीं और आँसुओं से उसका अभिषेक करतीं …
आँगन में जमघट लगता… पैर छुए जाते, गालों पर हथेलियों की थपकी दी जाती, अंकवार में भर फूट-फूट कर रोया जाता… चचेरे भाई सामान उठा हमें धौलार दूकान तक छोड़ने जाते… चचेरी बहनें दूर तक हमारे साथ नीचे उतरती जातीं… रास्ते में पड़ते घरों से निकल निकल आते लोग … भीगीं आँखों से पूछते… ‘फिर कब आला…’
धौलार दूकान पहुँच कर हमारा चित्त कुछ शांत हो जाता. सामान सड़क किनारे रख हम बस आने की प्रतीक्षा करते… दिल्ली की सीधी बस नहीं होती थी उन दिनों, हल्द्वानी से बदलनी पड़ती… दूर से आती बस दिखती तो सामान उठा हम तत्पर हो जाते. बड़ा सामान छत पर चढ़ जाता और हम बस के भीतर प्रवेश कर जाते…
उतराई ख़त्म होने पर समतल खेत आ जाते और धार पर टिके हमारे दो घर दिखने लगते… कदम आगे बढ़ाते हुए हम मुड़-मुड़ कर पीछे देखते… हम जानते थे घर से नौला की तरफ जाती पगडंडी पर आमा और चाचियाँ, बुआ और छोटे बच्चे हमें जाते हुए देख रहे हैं. दूरी बहुत होते हुए भी संवाद जारी रहता… “ वो उमा पलट कर देख रही है…, अब गुटुली ने मुड़ कर देखा…” यह हम बिना सुने भी सुन लेते थे… कोसी की विरल धार में रखे बड़े-बड़े गोल चिकने पत्थरों पर कदम धरते हुए हम उस पार हो जाते…
धौलार दूकान पहुँच कर हमारा चित्त कुछ शांत हो जाता. सामान सड़क किनारे रख हम बस आने की प्रतीक्षा करते… दिल्ली की सीधी बस नहीं होती थी उन दिनों, हल्द्वानी से बदलनी पड़ती… दूर से आती बस दिखती तो सामान उठा हम तत्पर हो जाते. बड़ा सामान छत पर चढ़ जाता और हम बस के भीतर प्रवेश कर जाते…
एक बार फिर जोर से भीतर हुड़क उठती… हम आँसू रोकने की भरसक कोशिश करते… सीट पर बैठ खिड़की से बाहर देखने के बहाने अपनी आँखों की लालिमा को छुपाने की असफल कोशिश … बस के चलते ही पैट्रोल की असहज सी दुर्गन्ध सबसे पहले हमारी साँसों को छूने लगती.. यह पहला झटका होता पहाड़ के सुरम्य परिवेश से अलग होने का… हाँ बाहर दीखते दृश्य आश्वस्त करते… पर उदास भी… हर पेड़, हर पत्थर छूटता प्रतीत होता. साथ-साथ बहती नदी का पत्थरों से टकराता सफ़ेद पानी कहता, उदास क्यों हो, मैं भी तो तुम्हारे साथ उतरता हूँ पहाड़ों से… मैदानों के लिए …सदियों से अनवरत… मुझे उदास होते देखा है कभी…
पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी… दोनों की नियति है यह..
या शायद बूढ़े पहाड़ की…
बस में बैठे अधिकतर सवार इसी मनोभाव में तिरते रहते… कोई फौजी जवान परिवार पीछे छोड़ निकला है, कोई दिल्ली, लखनऊ जैसे शहरों में नौकरी बजाने… कोई नयी दुल्हन मायके से विदा होकर ससुराल लौट रही है, कोई ननिहाल में छुट्टियाँ बिताकर … सब गुमसुम… हाँ कुछ पर्यटक नवयुवक भी हैं जो चहचहा रहे हैं… शहरों से पहाड़ों में कुछ दिन बिताकर लौटते ये नवयुवक अपने अनुभव और रोमांच को दोहरा रहे हैं… वापस लौटकर इस ‘एडवेंचर’ को याद करेंगें कुछ दिन और फिर भूल जाएंगे ये पर्यटक… पर हम प्रवासियों के दिल में टीस उठाता बना रहेगा पहाड़…
काठगोदाम से आगे जाते हुए पीछे छूटती पहाड़ियों को अंतिम बार आँखों में भर लेना चाहते हम सब… स्वर्ग से उतरते हुए आदम और हव्वा को कैसा लगा होगा नहीं जानती मैं, पर हल्द्वानी पहुँचकर हम खुद को ठगा हुआ-सा महसूस करते…
बस बदलनी पड़ती थी यहाँ. केमू की छोटी बस से उतर, बस अड्डे की उमस भरी गर्मी में बड़ी-सी दिल्ली वाली बस की प्रतीक्षा करते… सबसे पहले माथे पर लगा अक्षत झाड़ते.. पिठ्या मिटाते .. मानो अपने पहाड़ी होने की पहचान को मिटा देना चाहते थे हम… पर वह मिटती है क्या कभी…
सुबह कोई साढ़े-तीन चार बजे हमारी बस दिल्ली के जमुना बाज़ार पहुँचती. बाबूजी कंडक्टर से कहकर बस रुकवाते… सामान उतरता और हम भी… वहाँ से ताँगा करके हम लोहे के पुराने पुल से गुज़रते हुए कैलाशनगर की अपनी छोटी सी कुठरिया के लिए चल पड़ते… उनींदे, उदास और बेज़ार से… जानते थे कोई वहाँ हमारी प्रतीक्षा में नहीं होगा…
शहरी होने का गुमान करने पर भी, आज अपनी अस्मिता उसी में ढूँढते हैं न हम…
रात का वह सफ़र दो दुनियाओं के बीच का अंतराल होता, जिसमें हम स्वयं को सहज बनाने की कोशिश करते… याद आने लगता स्कूल, होमवर्क, दफ्तर और शहरी दिनचर्या… सुबह कोई साढ़े-तीन चार बजे हमारी बस दिल्ली के जमुना बाज़ार पहुँचती. बाबूजी कंडक्टर से कहकर बस रुकवाते… सामान उतरता और हम भी… वहाँ से ताँगा करके हम लोहे के पुराने पुल से गुज़रते हुए कैलाशनगर की अपनी छोटी सी कुठरिया के लिए चल पड़ते… उनींदे, उदास और बेज़ार से… जानते थे कोई वहाँ हमारी प्रतीक्षा में नहीं होगा…कोई अगवानी के लिए उमग कर आगे नहीं बढ़ेगा… सिवाय उस पालतू बिल्ली के जो न जाने कैसे जान लेती थी कि हम पहुँच गए हैं और तांगे से उतरते ही हमारी गोद में चढ़ बैठती. अपने नन्हें सर को हमारी कुहनियों, ठुड्डियों से रगड़ती … हम उसके प्यार से त्राण पाते, शहर की ज़िन्दगी में उतर जाते…
इस बार कुछ महीनों बाद घर से चिट्ठी आई.. ‘आमा के न रहने की’… और फिर रह रह कर उनकी आख़िरी पंक्तियाँ याद आती रहीं… अब भी आती हैं…
आब काँ होलि भेंट !! …
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं)