जब एक रानी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए धर लिया था शिला रूप!

देश ही नहीं विदेशों में भी धमाल मचा रही है रंगीली पिछौड़ी…

  • आशिता डोभाल

उत्तराखंड में दोनों मंडल गढ़वाल so और कुमाऊं अपनी—अपनी संस्कृति के लिए जाने जाते हैं. हम जब बात करते हैं अपने पारंपरिक परिधानों की तो हर जिले और हर विकासखंड का या यूं कहें कि हर एक क्षेत्र में थोड़ा भिन्नता मिलेगी पर कहीं न कहीं कुछ चीजें ऐसी भी हैं, जो एक समान होती हैं. जैसे— कुमाऊं की ‘रंगीली पिछौड़ी’ है, जो पूरे कुमाऊं मंडल का एक विशेष तरह का परिधान है, अंगवस्त्र है, इज्जत है और इसे पवित्र परिधान की संज्ञा Because भी दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. इस परिधान का इतिहास बेहद रूचिपूर्ण है. राजे—रजवाड़े और सम्पन्न घरानों से पैदा हुआ ये परिधान स्वयं घरों में तैयार किया जाता था, बल्कि मंजू जी से प्राप्त जानकारी के अनुसार कुमाऊं की रानी ‘जियारानी’ से इसका इतिहास जुड़ा हुआ बताती हैं.

परिधान

एक दिन जैसे ही रानी जिया नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही उन्हें तुर्कों ने घेर लिया. रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी. उन्होंने अपने ईष्ट देवता का स्मरण किया but और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई. लूटेरे तुर्कों ने उन्हें बहुत ढूंढा, लेकिन उन्हें जिया रानी कहीं नहीं मिली. कहते हैं कि उन्होंने अपने आपको अपने लहँगे और पिछौड़ी में छिपा लिया था और उसी आकार में ही शिला बन गई थीं.

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जियारानी तेज प्रतापी, यशस्वी और प्रखर बुद्धि और अदम्य साहस की धनी महिला थी. एक दिन जैसे ही रानी जिया नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही उन्हें तुर्कों ने घेर लिया. रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी. उन्होंने Because अपने ईष्ट देवता का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई. लूटेरे तुर्कों ने उन्हें बहुत ढूंढा, लेकिन उन्हें जिया रानी कहीं नहीं मिली. कहते हैं कि उन्होंने अपने आपको अपने लहँगे और पिछौड़ी में छिपा लिया था so और उसी आकार में ही शिला बन गई थीं. गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है जिसका आकार कुमाऊँनी पहनावे से मिलता जुलता है. शिला पर रंगीन पत्थर ऐसे लगते हैं मानो किसी ने रंगीन लहँगा और पिछौड़ा बिछा दिया हो. वह रंगीन शिला जिया रानी का स्मृति चिन्ह माना जाता है.

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इस रंगीन शिला को जिया Becauseरानी का स्वरुप माना जाता है और कहा जाता है कि जिया रानी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए इस शिला का ही रूप ले लिया था. बल्कि आज भी जागर गायन में रानी के सतीत्व का उल्लेख मिलता है. तब से पिछौड़ी आत्मरक्षा और आत्मसम्मान कवच के रूप में भी प्रचलित हो गया. कुमाऊं मंडल में जैसी ही लड़की अपनी किशोरावस्था में प्रवेश करती थी, तो उसे पिछौड़ी पहनाने की एक पूरी रश्म निभाई जाती थी.

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कुमाऊं की सेठानी ‘जसूली शौकियानी’ ने आम समाज की महिलाओं को ‘पौंछि’ (हाथ में पहना जाने वाला आभूषण) और पिछौड़ी देने की परंपरा शुरू की थी, जिससे इसका प्रचलन Because आम समाज में हुआ और आज हर तबके का समाज इसे पहनता है. इसे पहनना बहुत ही अच्छा माना जाता है. कोई भी धार्मिक आयोजन हो, पवित्र उत्सव हो या शादी ब्याह हो, नामकरण संस्कार से लेकर चूड़ा कर्म संस्कार तक सभी धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इसे पहनना शुभ माना जाता है.

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मुख्यतः जब लड़की की शादी होती Because है ससुराल पक्ष से पिछौड़ी दी जाती है और मां पिछौड़ी पहनाती है यानी कि बेटी की विदाई पिछौड़ी पहना कर की जाती है. इसकी बनावट और सजावट बहुत ही सुंदर और शानदार होती है. इसके रंगों का भी बहुत बड़ा महत्व होता है. Because पीले रंग का भौतिक जगत से जुड़ाव और लाल रंग का अर्थ है सुख और समृद्धि और सम्पन्नता और आपसी मेलजोल का प्रती है. इस पर बना स्वास्तिक चिन्ह का बहुत बड़ा महत्व है. स्वास्तिक के अंदर बना सूर्य,चन्द्र,शंख और घंटी का अर्थ अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिसका अर्थ क्रमश: इस प्रकार से है—  सूर्य-ऊर्जा, चन्द्र-समृद्धि, शंख-नकारात्मक चीजों से बचाव व घंटी-स्वस्थ और सुखी जीवन से है.

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कुमाऊं मंडल में शाह और वर्मा Because परिवारों की महिलाएं सिर्फ अपने हाथ की बनी पिछौड़ी पहनते हैं और आज भी वो क्रम जारी है. हालांकि बाज़ार की रौनक ने उन लोगों का मोह भी भंग किया है, वो भी अब तरह तरह की डिजाइनों की पिछौड़ी पहनने से पीछे नहीं रहती हैं. आज ये पहनावा सिर्फ कुमाऊं मंडल का नहीं है अपितु पूरे गढ़वाल में भी काफी प्रचलित हो रहा है. मैंने प्रवास में देखा है कि उत्तराखंड का ये परिधान उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व करते हुए नजर आता है.

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)

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