भारत की जल संस्कृति-11
- डॉ. मोहन चन्द तिवारी
(7 फरवरी, 2013 को रामजस कालेज, ‘संस्कृत परिषद्’ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘संस्कृत: वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य’ में मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य “कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जलप्रबन्धन और वाटर हारवेस्टिंग” से सम्बद्ध लेख)
वैदिक काल और बौद्ध काल तक कृषि व्यवस्था के विकास के साथ साथ राज्य के स्तर पर भी जलप्रबन्धन और ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणालियों का भी सुव्यवस्थित विकास हुआ. सिन्धु सभ्यता के प्राचीन नगर ‘लोथल’ की कृषि व्यवस्था के संदर्भ में हम देख चुके हैं कि इस काल के जल-प्रबन्धकों ने विषम तथा विपरीत परिस्थितियों में भी जल संसाधनों के सदुपयोग की अनेक विधियों का आविष्कार कर लिया था. इसी युग में जलवैज्ञानिक भूसंस्कृति यानी ग्रह-नक्षत्रों से अनुशासित कृषि संस्कृति का भी उदय हुआ जिसे आधुनिक पुरातत्त्वविदों ने ‘टैराक्वा कल्चर’ की संज्ञा दी है. इस संस्कृति के लोग अन्तरिक्ष के खगोलीय ग्रह और नक्षत्रों के आधार पर अपना कृषि कार्य करते थे तथा उसी को ध्यान में रखकर मानसूनों की वर्षा का भी पूर्वानुमान कर लेने में सिद्धहस्त थे.बाद में यही ग्रह-नक्षत्रों पर आधारित भूसंस्कृति भारत की मुख्य कृषि संस्कृति बन गई तथा कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’, वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’, ‘कृषिपराशर’ की रचनाओं में इसका वैज्ञानिक विकास हुआ.
सर्वविदित है कि भारतीय कृषि व्यवस्था प्राचीन काल से ही अधिकांश रूप से मानसूनों की वर्षा पर ही निर्भर रहती आई है. किन्तु मौर्यकाल में कौटिल्य जैसे महामंत्री, अर्थशास्त्री और कुशल ‘वाटर मैनेजमेंट गुरु’ के सुप्रयासों से कृषि के क्षेत्र में जो हरित क्रान्ति आई उसका मुख्य श्रेय मौर्यकालीन जलप्रबन्धन व्यवस्था और उस काल के मौसम वैज्ञानिक ‘दैवज्ञों’ को ही जाता है. मौर्यकालीन जलप्रबन्धन और जलसंचयन सम्बन्धी गतिविधियों की विस्तृत जानकारी कौटिल्य विरचित ‘अर्थशास्त्र’ से प्राप्त होती है. कौटिल्य ने वर्षा पर निर्भर रहने वाली कृषि व्यवस्था में सुधार लाने के लिए जल संरक्षण की योजनाओं को युद्धस्तर पर प्राथमिकता प्रदान की तथा राज्य की ओर से स्थान स्थान पर नदी, तालाब, सरोवर आदि का निर्माण करवाया.नदियों के तटों पर बांध बनवाना और पूरे राज्य में नहरें खुदवाना मौर्यकालीन शासन व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही थी,जिसकी पुष्टि तत्कालीन अभिलेखीय और पुरातात्त्विक साक्ष्यों से भी होती है. मध्यप्रदेश स्थित विदिशा में बेस नदी के निकट भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग की एक वार्षिक रिपोर्ट (ए.एस.आई., 1914-15) के अनुसार पुरातत्त्व विभाग को एक मौर्यकालीन नहर का अवशेष मिला है. यह नहर सात फुट चौड़ी और साढे पांच फुट गहरी थी. बेस नदी पर जो बांध बनाया गया था उसी से निकलने वाली इस नहर के द्वारा विदिशा के खेतों और बाग-बगीचों की सिंचाई की जाती थी.कौटिल्य कालीन मौर्य साम्राज्य के जल संसाधनों को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- भूस्तरीय जल और भूगर्भीय जल. ‘अर्थशास्त्र’ में कौटिल्य का स्पष्ट निर्देश है कि भूमि की सिंचाई के लिए राज्य को नदियों पर बांध बनवाने चाहिए –
“सहोदकमाहार्योदकं वा सेतुं बन्धयेत्.” -अर्थशास्त्र,2.1.20
पर साथ ही कौटिल्य का यह भी निर्देश है कि प्रजावर्ग का भी यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह जलाशय के लिए भूमि, नहर के लिए मार्ग और बांध निर्माण हेतु वृक्ष आदि उपकरण सामग्री देकर इस जल संरक्षण की योजना में अपना भरपूर सहयोग दे-
“अन्येषां वा वध्नतां भूमिमार्गवृक्षोपकरणानुग्रहं कुर्यात्.” -अर्थशास्त्र, 2.1.21
यहां उल्लेखनीय है कि बिहार आदि प्रान्तों में ‘आहार-पयैन’ के नाम से वाटर हारवेस्टिंग की जो परम्परागत पद्धति आज भी प्रचलित है वह कौटिल्य द्वारा बताई गई ‘आहार्योदक’ तकनीक ही है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ‘सेतु’ का अर्थ टैंक या बांध से है.
‘सहोदक’ और ‘आहार्योदक’ सेतुबन्ध
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दो प्रकार के टैकों या बांधों का उल्लेख आया है – ‘सहोदक’ सेतुबन्ध और ‘आहार्योदक’ सेतुबन्ध (अर्थ. 2.1.20) ‘सहोदक’ बांध उसे कहते हैं जिसमें झरनों आदि प्राकृतिक स्रोतों से जल की आपूर्ति होती है, जैसे कूप, तालाब, सरोवर आदि. ‘आहार्योदक’ उसे कहते हैं जो बांध नदी के जलप्रवाह को रोककर बनाया जाता था. कौटिल्य ने नदी पर बांध आदि किसी बड़े जलाशय को बनाना राज्य का मुख्य दायित्व माना है. गुजरात,काठियावाड में गिरनार पर स्थित ‘सुदर्शन’ नामक बांध इसका ऐतिहासिक प्रमाण है जो मौर्य काल में बना था और बाद में गुप्त काल तक इसका जीर्णोद्धार होता रहा.‘सुदर्शन’ बांध मूलतः चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में बनाया गया. अशोक के समय दूसरी बार इसकी टूटी हुई कुल्याओं (नहरों) की मरम्मत की गई.दूसरी शताब्दी ई. में रुद्रदामन् ने तीसरी बार इसका पुनः निर्माण किया और बाद में गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त ने छठी शताब्दी ई.में चौथी बार इसकी मरम्मत की.अर्थशास्त्र से यह भी ज्ञात होता है कि राजकीय बांधों के अतिरिक्त निजी बांधों का भी निर्माण किया जाता था किन्तु राज्य की ओर से यह कठोर नियम भी बनाए गए थे कि ऐसे बांध यदि उसके स्वामी द्वारा पांच वर्ष की अवधि तक प्रयोग में नहीं लाए जाते थे तो उनके निजी स्वामित्व का अधिकार समाप्त हो जाता था (अर्थ., 3.9.32-34). जलसंकट की समस्या को सुलझाने के लिए कौटिल्य अर्थशास्त्र का यह शासनादेश बहुत ही उत्तरदायित्वपूर्ण प्रावधान था,जो यह बताता है कि राज्य अपने जलप्रबंधन के प्रति कितना गम्भीर रहा था.
मौर्यकालीन जलसंसाधन
मौर्यकालीन सिंचाई के जल संसाधनों को पांच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
- ‘हस्तप्रावर्तिमम्’ – पानी को पहले किसी गड्ढे में इकट्ठा करके फिर उसे हाथ या किसी डोल आदि से पानी निकाल कर सिंचाई करना.
- ‘स्कन्धप्रावर्तिमम्’ – कंधों की सहायता से पानी निकाल कर सिंचाई करना.
- ‘स्रोतयंत्रप्रावर्तिमम्’ – वायु द्वारा पवन चक्की के यंत्र से सिंचाई करना.
- ‘नदीसरस्तटाककूपोद्घाटम्’ – नदी, सरोवर, तालाब, कूप में संचित जल से सिंचाई करना.
- ‘सेतुबन्ध’- नदी में बांध बनाकर उससे निकाली नई नहरों और नालियों के द्वारा सिंचाई करना.
विदेशी इतिहासकार मैगस्थनीज ने मौर्यकालीन जलप्रबन्धन व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए कहा है कि सिंचाई विभाग के राजकीय कर्मचारीगण नदियों का निरीक्षण करते थे.सिंचाई वाली भूमि की पैमाइस करते थे तथा कुछ कर्मचारी प्रमुख नहर से अन्य छोटी नहरें निकालकर सभी लोगों को आवश्यकतानुसार जल की आपूर्ति भी करते थे. (मैकरिंडल, ऐंश्येंट इन्डिया, पृ. 86)
मानसूनी वर्षा पर आधारित कृषि को आत्मनिर्भर बनाने तथा अकाल आदि जलसंकट से बचाने के लिए कौटिल्य ने वर्षा के पूर्वानुमान और मौसम विज्ञान की ओर भी विशेष ध्यान दिया. मौर्यकाल में ऐसे मौसम विशेषज्ञ थे जो प्राकृतिक लक्षणों, ग्रह-नक्षत्रों तथा बादलों की गतिविधियों को देखकर यह भविष्यवाणी कर देते थे कि वर्षा अल्प, मध्यम या उत्तम होगी (अर्थ., 2.24.7-10). विभिन्न मासों में होने वाली वर्षा को मापकर कृषिवैज्ञानिक किसानों को यह परामर्श भी देते थे कि कौन सी फसल को किस समय बोना उचित है.कौटिल्य के समय में वर्षामापक यंत्रों का भी प्रचलन हो गया था (अर्थ., 2.5.7).
‘वाटर मैनेजमेंट’ प्रेरित कृषिकर नीति
कौटिल्य ने एक महान अर्थशास्त्री के रूप में मौर्यकालीन साम्राज्य के जल संसाधनों को कृषि की उत्पादकता से जोड़कर कर-संग्रहण और जल-संग्रहण दोनों क्षेत्रों में क्रान्तिकारी कदम उठाए. कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में सिंचाई के साधनों में किए जाने वाले श्रम को देखते हुए कर नीति का निर्धारण किया गया. यानी जो किसान शारीरिक परिश्रम करते हुए सिंचाई हेतु जल संसाधनों का प्रयोग करते थे उनसे कर कम लिया जाता था और जल यंत्रों एवं नदी, जलाशय आदि प्राकृतिक जलस्रोतों से सिंचाई करने वाले किसानों से कर उगाही की दर ज्यादा थी. जैसे हाथ से सिंचाई करने पर कृषिकर उपज का पांचवा भाग था. बैलों के कन्धों द्वारा रहट से सिंचाई करने या कूप, वापी, तालाब से सिंचाई करने पर कृषिकर उपज का चौथा भाग था. किन्तु प्राकृतिक जलस्रोतों अथवा जलयंत्रों की सुविधा होने पर कृषिकर की दर बढ़कर उपज का तीसरा भाग हो जाती थी –
“स्वसेतुभ्यो हस्तप्रावर्तिममुदकभागं पञ्चमं दद्युः,स्कन्धप्रावर्तिमंचतुर्थम्,स्रोतोयन्त्रप्रावर्तिमं च तृतीयम् चतुर्थं नदीसरसस्तटाक- कूपोद्घाटम्.”- अर्थ., 2.24.18
कौटिल्य ने राज्य के अतिरिक्त व्यक्तिगत स्तर पर सिंचाई हेतु जल संग्रहण की योजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए नियम और अधिनियम बनाए. उदाहरणार्थ सिंचाई हेतु नया तालाब या बांध बनवाने पर अथवा पुराने जलाशयों की मरम्मत कराने पर राजकीय लगान चुकाते समय कर में क्रमशः पांच वर्ष और चार वर्ष तक पूरी छूट दी जाती थी –
“तटाकसेतुबन्धानां नवप्रवर्तने पाञ्चवर्षिकः
परिहारः भग्नोत्सृष्टानां चातुर्वर्षिकः.” – अर्थ.‚3.9.33
बने हुए किसी जलाशय को पांच वर्ष तक प्रयोग में नहीं लाना कौटिल्य के अनुसार एक अपराध माना जाता था जिसके दण्डस्वरूप उस जलाशय का व्यक्तिगत स्वामित्व समाप्त कर दिया जाता था (अर्थ.‚3.9.32) जो लोग जल निकासी के मार्गों को रोकते थे या किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न करते थे अर्थशास्त्र में ऐसे लोगों को भी दण्डित करने के नियम बनाए गए थे –
“कर्मोदकमार्गमुचितं रुन्धतः कुर्वतोऽनुचितं
वा पूर्व साहसदण्डः,सेतुकूप-पुण्यस्थान चैत्यदेवायतनानि च परभूमौ निवेशयतः..” – अर्थ.,3.10.1
कौटिल्य ने अपने राजनयिकों को यह भी निर्देश दिया है कि दूसरे राज्यों से सन्धि करते समय जलबहुल भूमि प्रदेशों को प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए.उसमें भी वर्षाजल से आपूरित होने वाले सेतुबन्धों की अपेक्षा नदी-नहरादि के जल से आपूरित सेतुबन्धों को श्रेष्ठ माना गया है (अर्थ.,7.12.4-5).
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक कालीन मंत्रद्रष्टा ऋषियों द्वारा की गई जलविज्ञान सम्बन्धी ज्ञान साधना का उपयोग करते हुए कौटिल्य ने एक महान अर्थशास्त्री और जलप्रबंधक के रूप में राज्य के जल संसाधनों को कृषि की उत्पादकता से जोड़कर घोर अकाल और सूखे जैसे संकटकाल से निपटने के लिए भी अनेक शासकीय उपाय किए. यही कारण था कि विदेशी इतिहासकार मैगस्थनीज ने भी मौर्यकालीन साम्राज्य के जलवैज्ञानिकों की विशेष प्रशंसा की है.बिहार आदि प्रान्तों में आज भी ‘आहार-पयैन’ के नाम से प्रसिद्ध ‘वाटर हारवेस्टिंग’ की जो परम्परागत पद्धति प्रचलित है वह कौटिल्य द्वारा बताई गई ‘आहार्योदक’ तकनीक ही है.
उत्तराखंड में मिली ‘आहार्योदक’ कूल
यहां कौटिल्य कालीन ‘आहार्योदक’ वाटर हार्वेस्टिंग की चर्चा करते हुए पिछले साल अगस्त के महीने में उत्तराखंड के भिकियासैंण तहसील के स्यालदे ब्लाक के ‘एड़ीकोट’ गांव में राज्य के पुरातत्त्व विभाग को जंगलों के बीच मिली एक कत्यूरी कालीन जलसुरंग की नई जानकारी देना भी जरूरी समझता हूं. करीब आधा किलोमीटर लम्बी यह सुरंग ‘एड़ीकोट’ से शुरू होकर आगे खतरौन नदी तक बनाई हुई है. क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी चन्द्र सिंह चौहान के अनुसार इस सुरंग के रास्ते राजा के सैनिक नदी से पानी ढोने का काम करते होंगे.किन्तु मेरा मानना है कि ‘एड़ीकोट’ की यह सुरंग कौटिल्यकालीन ‘आहार्योदक’ शैली की ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ जलप्रणाली ही है. यह महज जल सुरंग नहीं बल्कि ‘एड़ीकोट’ के लोगों को जल की आपूर्ति करने वाली छोटी नहरनुमा जल प्रणाली प्रतीत होती है जिसे स्थानीय भाषा में ‘कूल’ या ‘गुल’ कहते हैं.कत्यूरी शासनकाल में इसी नदी से वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक द्वारा एडीकोट के निवासियों के लिए जल की आपूर्ति करने के प्रयोजन से यह कूल बनाई गई होगी. किन्तु कालांतर में नदी में आई बाढ़ के मलबे से इस कूल का अस्तित्व ही समाप्त हो गया. ऐसी ही एक कूल गढ़वाल में एक प्रसिद्ध ‘माधव सिंह की कुल’ भी है.
आगामी लेख में पढिए- “महान् जल वैज्ञानिक वराहमिहिर और उनका मानसून वैज्ञानिक ‘वृष्टिगर्भ’ सिद्धांत”
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)