आभासी दुनिया के बेगाने परिन्दे

  • भुवन चन्द्र पन्त

जमीनी हकीकत से दूर आज हम एक ऐसे काल खण्ड में प्रवेश कर चुके हैं, जहां हमारे चारों तरफ सब कुछ है भी, और नहीं भी. बस यों समझ लीजिए कि आप दर्पण के आगे खड़े हैं, दर्पण में आपकी स्पष्ट छवि दिख रही है, आपको अपना आभास भी हो रहा है, लेकिन हकीकत ये है कि आप उसमें हैं नही. कुछ इसी तरह की हो चुकी है, हमारी सोशल मीडिया की आभासी दुनिया. फेसबुक जैसे प्लेटफार्म पर आपके सैंकड़ो मित्रों की लम्बी फेहरिस्त होगी, लेकिन बमुश्किल गिने-चुने ही ऐसे मित्र होंगें, जो हकीकत की दुनिया में आपकी मित्र मण्डली से ताल्लुक रखते होंगे. ऐसे बेगाने मित्रों से गुलजार दुनिया में उनका रिश्ता केवल लाइक और कमेंट्स से ज्यादा कुछ नहीं है.

सोशल मीडिया की दुनिया में प्रवेश के कई रास्ते हैं- फेसबुक, व्हाट्सऐप, इन्स्टाग्राम, ट्वीटर आदि-आदि. अब तो कोरोना काल में वेबिनार, वर्क फ्रॉम होम, ऑन लाइन कक्षाएं और मन्दिरों में ऑनलाइन पूजा भी वर्चुवल दुनिया में दमदार दखल दे चुकी हैं. ऐसे में राजनेता कहां चुप बैठने वाले थे, उन्होंने भी वर्चुवल रैलियों का रास्ता खोज निकाला.

कभी गांव की चैपालों तथा शहरों के क्लबों, कॉफी हाउसों में जो गप-शप का दौर चला करता था, आज सोशल मीडिया की वर्चुवल दुनिया सुख-दुख, वाद-संवाद और खुशी तथा गम के पलों का साझा करने का एक शक्तिशाली प्लेटफॉर्म का स्थान ले चुकी है. जन्म दिन से लेकर साल गिरह, शादी, शुभ-अशुभ हर गतिविधि को साझा कर हम अपने फेसबुक मित्रों से तो रू-ब-रू होते ही हैं, कभी-कभी अनजाने लोग भी टपक पड़ते हैं. वे आपकी पोस्ट को लाइक कर सकते हैं और टिप्पणी भी दे सकते हैं. वह टिप्पणी आपको सुकून भी दे सकती है अथवा बेचैन भी कर सकती है. फेसबुक पर अगर पोस्ट आपने ही डाली है, वरदाश्त भी तो आपको करना पड़ेगा ही. ज्यादा से ज्यादा प्रतिशोध में अपने काउन्टर कॉमेंन्ट से खुद को तसल्ली भर दे सकते हैं, लेकिन उस बेतुकी टिप्पणी से आपका जो चीरहरण हुआ, उसका डैमेज कन्ट्रोल एक और मुसीबत.

सभी सांकेतिक फोटो हैं. गूगल से साभार

दरअसल आज आबाल-वृद्ध सोशल मीडिया में अपनी इतनी गहरी पैठ बना चुके हैं कि स्थिति उस गरम दूध की जैसी हो गयी है, जिसे न तो उगला जा सकता और निगला जा सकता है. बेशक सोशल मीडिया समाज को जोड़ने का एक ऐसा जरिया बन चुका है, जिससे रूखसत तो नहीं ली जा सकती, समझदारी इसमें है कि हम इसका रचनात्मक दिशा में कैसे उपयोग कर सकते है? इसमें इतना भी तल्लीन न होवें कि हरदम इससे चिपके रहें, सोशल मीडिया से बाहर भी रंगीन दुनिया बसती है.

सोशल मीडिया की दुनिया में प्रवेश के कई रास्ते हैं- फेसबुक, व्हाट्सऐप, इन्स्टाग्राम, ट्वीटर आदि-आदि. अब तो कोरोना काल में वेबिनार, वर्क फ्रॉम होम, ऑन लाइन कक्षाएं और मन्दिरों में ऑनलाइन पूजा भी वर्चुवल दुनिया में दमदार दखल दे चुकी हैं. ऐसे में राजनेता कहां चुप बैठने वाले थे, उन्होंने भी वर्चुवल रैलियों का रास्ता खोज निकाला. कुल मिलाकर जिस तेजी से वर्चुवल दुनिया की ओर हमारे कदम बढ़ रहे हैं, मानवीय संवेदनाऐं रोबोटिक कल्चर की दिशा में कदमताल करती नजर आ रही हैं.

मैं कनखियों से उस पर नजर गड़ाये हुआ था, इसलिए नहीं कि मैं उसकी निजी जिन्दगी में ताकझांक करूं, बल्कि यह जानने की गरज से कि मोबाइल पर आखिर इस शख्स की रूचि क्या है? उसने तुरन्त फेसबुक ऐप खोला और फटाफट स्क्रॉल करता हुआ, इतनी तेजी से अंगुली घुमाता चला गया, कि लगभग दो मिनट में सौ से ज्यादा पोस्ट पर लाइक ठोक कर मोबाइल अपनी जेब में ठूंस दिया.

स्मार्टफोन को इस्तेमाल करने वाले सभी यूजर्स लगभग पहले दो सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक तथा व्हाट्सऐप का धड़ल्ले से उपयोग करते ही हैं. ये बात अलग है कि कुछ लोगों के फेसबुक एकाउन्ट केवल एक दो फोटो डालकर घड़ल्ले से जाने-अनजाने लोगों को फ्रेन्ड रिक्वेस्ट भेजकर दूसरों की गतिविधियों में ताकझांक करने तक व आभासी दुनिया में अधिक से अधिक फेसबुक मित्र बनाने तक सीमित रहता है. दूसरे वे लोग हैं, जिनके लिए फेसबुक का उपयोग महज वॉल पर विभिन्न मुद्राओं में अपनी फोटो पोस्ट करना ही रहता है. ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो दूसरों की पोस्ट को अपनी वॉल पर शेयर कर ही काम चला लेते हैं. अपने मौलिक चिन्तन एवं विचारों को फेसबुक के माध्यम से पाठकों तक सम्प्रेषित करना, जो इस सोशल मीडिया का प्लेटफार्म का सबसे महत्वपूर्ण व रचनात्मक पहलू है, उनकी संख्या बहुत उत्साहजनक नहीं है. आपने कोई विचारपूर्ण पोस्ट डाली और अपने कुछ मित्रों को उससे टैग कर दिया, अब ये तो नहीं है कि वह आपके विचारों से इत्तफाक रखता हो, लेकिन उसकी मजबूरी है इसे वरदाश्त करना.

कल्पना कीजिए कि यदि इस प्लेटफार्म पर लाइक व कमेन्ट्स का ऑप्शन नहीं होता, तब भी क्या लोगों की फेसबुक के प्रति इतनी ही आसक्ति होती? जाहिर है, तब यह एकतरफा संवाद होता और बिना फीडबैक के कब तक कोई पोस्ट करते रहता? भला हो, जुकरबर्क का जिन्होंने ये ऑप्शन देकर लोगों को इसका दीवाना बनाकर छोड़ दिया. कुछ फेसबुकियों का तो ये हाल है, एक पोस्ट डाली, दूसरे ही क्षण नोटिफेकशन की छोटी सी ‘बीप’ बरबस उसे मोबाइल की ओर लपकने को मजबूर कर देती है, लाइक और कमेंट्स देखने को. फेसबुक की दुनिया में ये बात अक्सर सटीक बैठती है कि जैसे बोओगे वैसा काटोगे. मसलन आपको लाइक व कमेंट्स उन्हीं से मिलने हैं, जिन्हें आपने भी लाइक और कमेंट्स का दिल खोलकर उपहार दिया है. मुफ्त में लाइक, कमेंट्स का लेन-देन बहुत कम ही होता है. यदि मुफ्त में आपको लाइक मिल रहे हैं तो आप बेशक खुश हों, लेकिन सच्चाई कुछ और होती है.  मैं एक हकीकत आपसे साझा करना चाहॅूगा. एक बार मैं बस से यात्रा कर रहा था. अगले स्टेशन पर बस रूकती है और एक नौजवान बस पर चढत़ा है. मेरी बराबर की खाली पड़ी सीट पर बैठकर राहत की सांस लेते हुए रूमाल निकालकर माथे का पसीना पोछता है और तुरन्त जेब से अपना मोबाइल निकालकर देखने लगता है. मैं कनखियों से उस पर नजर गड़ाये हुआ था, इसलिए नहीं कि मैं उसकी निजी जिन्दगी में ताकझांक करूं, बल्कि यह जानने की गरज से कि मोबाइल पर आखिर इस शख्स की रूचि क्या है? उसने तुरन्त फेसबुक ऐप खोला और फटाफट स्क्रॉल करता हुआ, इतनी तेजी से अंगुली घुमाता चला गया, कि लगभग दो मिनट में सौ से ज्यादा पोस्ट पर लाइक ठोक कर मोबाइल अपनी जेब में ठूंस दिया. इतनी शीघ्रता में पोस्ट का कन्टेन्ट देखना तो दूर, पोस्ट किसकी है, शायद यह देख पाना भी नामुमकिन था. लाइक किये गये लोगों में कौन उसका फेसबुक मित्र है कौन नहीं इसे देखने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं मन ही मन सोच रहा था कि आज का इन्सान भले हकीकत में एक दूसरे से रूबरू न भी हो रहा हो, लेकिन लाइक, कमेंट के लिए अलग से समय निकालना आभासी दुनिया में उसकी मजबूरी बन चुकी है. परन्तु इस घटना के बाद लाइक व कमेंट्स को तवज्जों देने वाले फेसबुकियों से मैं कहना चाहूंगा कि इस मुगालते में न रहें कि जो आपको लाइक मिले हैं, वे भी आपकी पोस्ट पर नहीं बल्कि नितान्त वर्चुअल हैं. असलियत में आपकी पोस्ट को देखा या पढ़ा हो, जरूरी नहीं. लेकिन “दिल को खुश रखने के लिए गालिब खयाल अच्छा है.’’

सोशल मीडिया के पर्दापण से कम से कम अंग्रेजी लिपि व भाषा दोंनों का भला अवश्य हुआ है. अब इसे भाषा के हक में मानें या इसके विपरीत ये फैसला आप खुद ही कर लें. जो अंग्रेजी को हव्वा मानकर एक शब्द लिखने को डरते थे, आज कुछ रटे-रटाये शब्द उन्होंने अपनी डिक्शनरी में संजो कर रख दिये हैं और कमेंट्स में ऑसम, सो क्यूट, स्टे ब्लैसिंग, आरआईपी जैसे शब्दों को डालकर तथाकथित इलीट समाज की पांत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकते. अंग्रेजी भाषा पर विचार व्यक्त करने का शऊर न भी हो तो क्या हुआ, रोमन लिपि में ही सही अंग्रेजी लिख तो लेते हैं. समय बचाने के लिए शब्दों के संक्षिप्तीकरण का जो  चलन बढ़ा है, उससे मूल शब्द तिरस्कृत हों, इसका उन्हें क्या लेना देना. अब उन्हें ये कौन बताये कि शब्दों के संक्षिप्त रूप के चलन से एक दिन आने वाली पीढ़ी मूल शब्द की शुद्ध वर्तनी तक नहीं लिख पायेगी. रोमन लिपि में लिखने से अंग्रेजी का कोई भला हो न हो लेकिन इस आदत से देवनागरी लिपि की बर्तनी की मस्तिष्क छवि धीरे-धीरे लोगों की स्मृति से दूर होते जा रही है. दूसरी ओर सोशल मीडिया का एक सकारात्मक पक्ष यह उभरकर सामने आया है, कि लोगों की लेखन शैली की रूचि विकसित जरूर हुई है.

व्हाटसैप की अपनी निराली दुनिया है, जो अब व्हट्सैप यूनिसर्विटी का खिताब हासिल कर चुकी है. जहां अपना मौलिक लगभग नहीं के बराबर है, लेकिन ज्ञान की गंगा इस कदर बहती है कि ‘दोनों हाथ उलीचिये’ की तर्ज पर खूब ज्ञान प्रसार हो रहा है. भले उसको खुद आत्मसात् न कर पायें, लेकिन ज्ञान दूसरों को बांटने में हर्ज भी क्या हैं. गुड मार्निग व गुड नाइट के संदेश भेजना लोगों का शौक नहीं मजबूरी बन चुका है. अगर अगले का संदेश आता है तो आपकी मजबूरी है कि आप उसका जवाब दें, अन्यथा आप पर कंजूस या और कोई इल्जाम भी लग सकता है. एक बात ये अच्छी है कि व्हाट्सैप में बेगाने नहीं बल्कि कम से कम वे ही लोग आपकी सूची में रहते हैं, जो आपसे परिचित हैं. अब ये अलग बात है कि गुमशुदा व्यक्ति भले दूसरे दिन ही बरामद हो जाय लेकिन गुमशुदकी की मैंसेज सालों साल वायरल होते रहते हैं. व्हट्सैप मे ज्ञान गंगा जिस तरह प्रवाहित होती है, उसकी सत्यता प्रमाणित हुए बिना कभी कभी जी का जंजाल बनते भी देरी नहीं लगती.

लब्बोलुआब ये है कि इस वर्चुअल दौर में यूजर बेगाने परिंदे की तरह मुक्त गगन में विचरण तो कर रहा है, लेकिन नीचे उतरने को जमीन गायब है. इसलिए वर्चुवल दुनिया में बेगाने दोस्तों के संग उतनी ही उड़ान भरें, जहां से जमीन का भी दीदार होता रहे.

इन्स्टाग्राम और ट्विटर का स्तर कुछ ऊंचा है. यहां आमजन की दखल कम है. इन्स्टाग्राम खुद की छवि को निखारने का अच्छा प्लेटफार्म साबित हो रहा है. ट्वीटर तो कुछ अतिविशिष्ट लोगों की मन की भड़ास मिटाने का माध्यम भी हैं, जहां खूब संवाद- प्रतिसंवादों की बौछार है और सोशल मीडिया के अन्य साधनों तक भी इसकी अनुगूंज यदा कदा सुनाई पड़ जाती है. ट्वीटर की इस खासियत से नकारा नहीं जा सकता कि कम से कम इसके माध्यम से देश के शीर्षस्थ राजनेता अथवा अधिकारी तक आपकी बात पहुंच तो सकती है.

लब्बोलुआब ये है कि इस वर्चुअल दौर में यूजर बेगाने परिंदे की तरह मुक्त गगन में विचरण तो कर रहा है, लेकिन नीचे उतरने को जमीन गायब है. इसलिए वर्चुवल दुनिया में बेगाने दोस्तों के संग उतनी ही उड़ान भरें, जहां से जमीन का भी दीदार होता रहे.

(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं तथा  प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों, लोकसंस्कृति, लोकपरम्परा, लोकभाषा तथा अन्य सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के अलावा कविता लेखन में भी रूचि. 24 वर्ष की उम्र में 1978 से आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ, रामपुर तथा अल्मोड़ा केन्द्रों से वार्ताओं तथा कविताओं का प्रसारण.)

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