‘वन्दे मातरम्’: जन-गण-मन के आंदोलन का राष्ट्रगीत  

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

देश 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की 74वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है. हर देश का स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन से जुड़ा एक संघर्षपूर्ण इतिहास होता है. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का भी एक क्रांतिकारी और देशभक्ति पूर्ण इतिहास है, जिसकी जानकारी प्रत्येक भारतवासी को होनी चाहिए. हमें अपने संविधान सम्मत राष्ट्रगान, ‘जन गण मन’ राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ और तिरंगे झंडे के इतिहास के बारे में भी यह तथ्यात्मक जानकारी होनी चाहिए कि स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में इन राष्ट्रीय प्रतीकों की कितनी अहम भूमिका रही थी? यह इसलिए भी आवश्यक होना चाहिए जैसे हम हर वर्ष 15 अगस्त को लालकिले पर राष्ट्र ध्वज तिरंगा फहराना राष्ट्रीय महोत्सव के रूप में मनाते हैं, उसी तरह स्वन्त्रता आंदोलन को प्रेरित करने वाले राष्ट्रगान ‘जन गण मन’, राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ तथा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के बारे में जानकारी को भी हर वर्ष ताजा करने की जरूरत है, ताकि नई पीढ़ी के लोग खासकर स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र इन राष्ट्रीय प्रतीकों से भली भांति अवगत हो सकें.

इस राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ गीत के रचयिता बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय थे, जिनका जन्म 26 जून,1838 को ग्राम कांतलपाड़ा, जिला हुगली, पश्चिम बंगाल में हुआ था. कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंसी कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी और उसमें उत्तीर्ण होकर वे डिप्टी कलेक्टर बन गये.

चिन्ता का विषय है कि भारत के स्कूल और कालेजों में आज भी दुनिया भर के उन उल ज़लूल ज्ञान विज्ञान की शाखाओं को पढ़ाने का पाठ्यक्रम रखा जाता है,जो मैकाले की शिक्षा नीति का अतीत में अभिन्न हिस्सा रहे थे और वर्तमान में अपनी प्रासंगिकता भी खो चुके हैं. मगर उनमें स्वन्त्रता आंदोलन के प्रतीक स्वरूप राष्ट्रगान ‘जन गण मन’, राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ तथा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे से जुड़े देशभक्तिपूर्ण विचारों और भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास को पढ़ाने का कोई प्रावधान आज तक किसी भी राष्ट्रवादी सरकार ने नहीं किया, जिसकी वजह से आज की युवापीढ़ी और सामान्य नागरिकों को इन राष्ट्रीय प्रतीकों के बारे में पूरी तथ्यात्मक और संविधानसम्मत जानकारी नहीं होती. इसी अनभिज्ञता के कारण कुछ धार्मिक और साम्प्रदायिक संगठन समय समय पर इन राष्ट्रीय गीतों के बारे में भ्रामक विचार फैलाते आए हैं, जिससे हमारी राष्ट्रीय एकता और धार्मिक सहिष्णुता की भावना कमजोर होती है.

आज स्वतंत्रता दिवस की 74वीं वर्षगांठ के अवसर पर मैं इस लेख के द्वारा इसी क्रांतिकारी राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ के इतिहास और उससे जुड़े स्वतंत्रता संग्राम के घटनाक्रम की कुछ खास तथ्यात्मक जानकारियां देना चाहूंगा कि – इस ‘वन्दे मातरम्’ गीत के रचयिता कौन थे? किन परिस्थितियों में इस गीत की रचना हुई? इसके उद्भव की राजनैतिक पृष्ठभूमि क्या थी? और कैसे यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन का राष्ट्रीय गीत बन गया?

‘वन्दे मातरम्’ गीत बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित और 1882 में प्रकाशित ‘आनन्द मठ’ नामक उपन्यास का ही एक गीत है. ‘आनन्द मठ’ उपन्यास देश को मातृभूमि मानकर उसकी वन्दना करने और उसके लिए तन-मन और धन समर्पित करने वाले युवकों की कहानी है. जब यह उपन्यास बाजार में पहली बार आया, तो ‘वन्दे मातरम्’ गीत जन-जन का लोकप्रिय गीत बन गया.

इस राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ गीत के रचयिता बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय थे, जिनका जन्म 26 जून,1838 को ग्राम कांतलपाड़ा, जिला हुगली, पश्चिम बंगाल में हुआ था. कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंसी कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी और उसमें उत्तीर्ण होकर वे डिप्टी कलेक्टर बन गये. सन 1864 में बंकिमचन्द्र का पहला बंगला उपन्यास ‘दुर्गेश नन्दिनी’ प्रकाशित हुआ जो इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके पात्रों के नाम पर बंगाल में लोग अपने बच्चों के नाम रखने लगे. इसके बाद बंकिमचन्द्र के दो अन्य उपन्यास ‘कपाल कुण्डला’ (1866) और ‘मृणालिनी’ (1869) प्रकाशित हुए.1872 में उन्होंने ‘बंग दर्शन’ नामक पत्र का सम्पादन भी किया,पर उन्हें यशस्वी लेखक बनाया ‘वन्दे मातरम्’ गीत ने.

‘वन्दे मातरम्’ गीत बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित और 1882 में प्रकाशित ‘आनन्द मठ’ नामक उपन्यास का ही एक गीत है. ‘आनन्द मठ’ उपन्यास देश को मातृभूमि मानकर उसकी वन्दना करने और उसके लिए तन-मन और धन समर्पित करने वाले युवकों की कहानी है. जब यह उपन्यास बाजार में पहली बार आया, तो ‘वन्दे मातरम्’ गीत जन-जन का लोकप्रिय गीत बन गया. इसने लोगों के मन में देश के लिए मर मिटने की भावना भर दी. राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार यह गीत 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया.

1906 में अंग्रेजों ने बंगाल को जब हिन्दू तथा मुस्लिम आधार पर दो भागों में बांटने का षड्यन्त्र रचा तो पूरे बंगाल में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध लोगों में क्रोध की लहर दौड़ गयी.7 अगस्त,1906 को कोलकाता के टाउन हाल में एक विशाल सभा हुई,जिसमें ‘वन्दे मातरम्’ गीत गाया गया. इसके एक माह बाद 7 सितम्बर को वाराणसी के कांग्रेस अधिवेशन में भी इसे गाया गया. धीरे धीरे ‘वन्दे मातरम्’ गीत की गूंज पूरे देश में फैल गयी. फिर क्या था, स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए होने वाली हर सभा, गोष्ठी और आजादी के आन्दोलन में ‘वन्दे मातरम्’ का गीत गाया जाने लगा. भारतवासियों में देशभक्ति के इस बढ़ते उन्माद को देखकर अंग्रेजी हुकुमत ने ‘आनन्द मठ’ उपन्यास और ‘वन्दे मातरम्’ गान पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इसे गाने वालों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे जाने लगे, लेकिन प्रतिबन्धों से भला देश भक्ति का ज्वार कहां रुकने वाला था? क्रान्तिकारी वीरों के लिए यह ‘वन्दे मातरम्’ गीत आजादी का महामन्त्र बन गया. वे फांसी पर चढ़ते समय भी यही ‘वन्दे मातरम्’ गीत गाते थे.

कांग्रेस के अधिवेशनों के अलावा भी आज़ादी के आंदोलन को प्रेरित करने के लिए इस गीत का सार्वजनिक प्रयोग होने लगा. लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस ‘जर्नल’ का प्रकाशन शुरू किया था, उसका नाम उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ रखा. अंग्रेज़ों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़ने वाली आज़ादी की दीवानी मातंगिनी हज़ारा की जुबान पर आख़िरी शब्द ‘वंदे मातरम्’ ही थे. सन 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में ‘वंदे मातरम्’ लिखा हुआ था. इस प्रकार ‘वन्दे मातरम्’ गीत भारत के स्वाधीनता संग्राम में आजादी का गीत बन गया. स्वतन्त्रता मिलने पर 1950 में ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ के समतुल्य मानते हुए संविधान सभा द्वारा राष्ट्रगीत का सम्मान दिया गया.

दरअसल, बंकिम बाबू के ‘वन्दे मातरम्’ गीत का विचार वैदिक संहिताओं से ही लिया गया ‘भारतराष्ट्र’ का विचार था. देश को मातृभूमि मानने से देश के प्रति रागात्मक सम्बन्ध मजबूत होते हैं और एक ही धरती माता के उदर से उत्पन्न होने वाले विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग आपसी भेदभावों को भुलाते हुए एक ही राष्ट्रमाता की सन्तान बनकर देश के विकास में जुट जाते हैं. वैदिक संहिता ‘अथर्ववेद’ के अनुसार देश में जो भी लोग रहते हैं उनके लिए वह देश मातृभूमि के तुल्य वन्दनीय है. जिस तरह माता के रक्तमांस आदि से बच्चे का शरीर बनता है उसी तरह मातृभूमि में उत्पन्न होने वाले अनाज,पानी,हवा और वनस्पतियों से उन देशवासियों का पालन पोषण होता है. इसी कारण से ‘अथर्ववेद’ में भूमि को माता तथा वहां के निवासी को उसका पुत्र बताया गया है-
“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’’          -अथर्ववेद,12.1.12

बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘वन्दे मातरम्’ गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा था क्योंकि बाँग्ला लिपि में ‘व’ अक्षर नहीं है और उसके स्थान पर ‘ब’ अक्षर बोला जाता है.अत: बंकिम चन्द्र ने इसे ‘बन्दे मातरम्’ शीर्षक से ही लिखा था. परन्तु संस्कृत में इसे ‘वन्दे मातरम्’ ही लिखा जाता है. देवनागरी लिपि में संस्कृत मूल गीत ‘वन्दे मातरम्’ इस प्रकार है-
“वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
सस्यशामलाम्
मातरम्.

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥1॥

सप्त-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
द्विसप्त-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले.
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम्॥2॥

तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी
मन्दिरे-मन्दिरे॥3॥

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम्॥4॥

वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम्॥5॥”

आजादी की प्रेरणा देने वाला ‘वन्दे मातरम्’ गीत उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन-गण-मन को आन्दोलित करने वाला राष्ट्रगीत है.बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखे गए इस गीत ने अंग्रेजी हुकुमत के समय में ही स्वतंत्रता की ऐसी लहर पैदा कर दी,जिसके कारण कालान्तर में आजादी का यह गीत एक सुमधुर राष्ट्रगीत बन गया.

बंकिम चन्द्र के ‘आनन्दमठ’ उपन्यास के अंग्रेजी के अतिरिक्त हिन्दी, मराठी,तमिल, तेलुगु, कन्नड आदि अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं. डॉ.नरेश चन्द्र सेन गुप्त ने सन् 1906 में ‘एबे ऑफ ब्लिस’ शीर्षक से इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया. अरविन्द घोष ने भी ‘आनन्दमठ’ में वर्णित गीत ‘वन्दे मातरम्’ का अंग्रेजी गद्य और पद्य में अनुवाद किया है.

बंकिम चन्द्र के ‘आनन्दमठ’ उपन्यास के अंग्रेजी के अतिरिक्त हिन्दी, मराठी,तमिल, तेलुगु, कन्नड आदि अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं. डॉ.नरेश चन्द्र सेन गुप्त ने सन् 1906 में ‘एबे ऑफ ब्लिस’ शीर्षक से इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया. अरविन्द घोष ने भी ‘आनन्दमठ’ में वर्णित गीत ‘वन्दे मातरम्’ का अंग्रेजी गद्य और पद्य में अनुवाद किया है.

2003 में बी.बी.सी.द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ‘वंदे मातरम्’ विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है.‘वन्दे मातरम्’ गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में हैं. अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया है.

अन्ना हजारे जैसे विचारक इस ‘वन्दे मातरम्’ के विचार को भारत को आजादी दिलाने वाला एक राष्ट्रीय विचार मानते हैं और यह भी मानते हैं कि इसी विचार को जीवित रखने से देश की आजादी का विचार भी जीवित रहेगा व देश भक्ति की जड़ें भी मजबूत होंगी. स्वतंत्रता दिवस की 74वीं वर्षगांठ के अवसर पर इस राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ के लेखक, राष्ट्रभक्त और  महामनीषी बंकिमचन्द्र को कोटि कोटि नमन! और सादर ‘वन्दे मातरम्’ !

असल में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ‘वंदे मातरम्’ के दो शब्दों ने देशवासियों में देशभक्ति के प्राण फूंक दिए थे और आज भी इसी भावना से ‘वंदे मातरम्’ गाया जाता है. देश के लिए सर्वोच्च त्याग करने की प्रेरणा देशभक्तों को इस गीत से ही मिली.पीढ़ियां बीत गई पर ‘वंदे मातरम्’ का प्रभाव अब भी अक्षुण्ण है. स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्षों से पवित्र हुए इस ‘वन्दे मातरम्’ गीत में आज भी इतनी ऊर्जा भरी हुई है कि चाहे किसी भी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा संगठन हो,या कोई भी जन आन्दोलन की शुरुआत हो उसका मंगलाचरण इसी ‘वन्दे मातरम्’ के आह्वान से किया जाता है. यह गीत आज राजनैतिक बदलाव और तानाशाही शक्तियों के विरुद्ध हमारे लोकतंत्र की रक्षा का एक सिद्धमंत्र बन गया है. अन्ना हजारे जैसे विचारक इस ‘वन्दे मातरम्’ के विचार को भारत को आजादी दिलाने वाला एक राष्ट्रीय विचार मानते हैं और यह भी मानते हैं कि इसी विचार को जीवित रखने से देश की आजादी का विचार भी जीवित रहेगा व देश भक्ति की जड़ें भी मजबूत होंगी. स्वतंत्रता दिवस की 74वीं वर्षगांठ के अवसर पर इस राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ के लेखक, राष्ट्रभक्त और  महामनीषी बंकिमचन्द्र को कोटि कोटि नमन! और सादर ‘वन्दे मातरम्’ !

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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