‘उत्तराखंड रंगमंच एवं फिल्म दिशा और दशा’ विषय पर प्रभावशाली परिचर्चा संपन्न
- सी एम पपनैं, वरिष्ठ पत्रकार
नई दिल्ली. पर्वतीय लोक कला मंच तथा जोधा फिल्मस द्वारा 21 सितंबर को ‘उत्तराखंड रंगमंच एवं फिल्म दिशा और दशा’ विषय पर एक खुली परिचर्चा चाणक्यपुरी स्थित इंटरनेशनल यूथ हास्टल कांफ्रेंस हाल में आयोजित की गई. आयोजित प्रभावशाली परिचर्चा की अध्यक्षता संगीत नाटक अकादमी सम्मान प्राप्त दीवान सिंह बजेली द्वारा मुख्य अतिथि भारतीय उद्योग जगत से जुड़े नरेंद्र सिंह लडवाल की प्रभावी उपस्थिति तथा रेलवे मंत्रालय के उपक्रम डेडीकेटेड बीवी फ्रेट कारीडोर कारपोरेशन आफ इंडिया प्रबंध निदेशक आईआरएएस हीरा बल्लभ जोशी, साहित्यकार डॉ.हरि सुमन बिष्ट, पूर्व राज्यमंत्री उत्तराखंड सरकार पी सी नैलवाल, समाजसेवी रमेश कांडपाल तथा आंचलिक फिल्म निर्माता व उद्योग जगत से जुड़े संजय जोशी मंचासीनों के सानिध्य में की गई.
परिचर्चा श्रीगणेश मीताक्षी कर्नाटक द्वारा प्रस्तुत वंदना तथा वर्ष 1987 दिल्ली में गठित सांस्कृतिक संस्था ‘पर्वतीय लोक कला मंच’ की रंगमंच यात्रा को वृतचित्र के माध्यम से प्रर्दशित कर किया गया. आयोजक संस्था पदाधिकारियों द्वारा सभी मंचासीनों का स्वागत अभिनन्दन पुष्प गुलाब तथा स्मृति चिन्ह प्रदान कर किया गया.
परिचर्चा शुभारंभ पूर्व मंच संचालक व आयोजक संस्था महासचिव हेमपंत द्वारा अवगत कराया गया, विगत 37 वर्षो में पर्वतीय लोक कला मंच द्वारा कगार की आग, बारामासा, राजुला मालूशाही, आचरी माचरी, स्वराज, बाला गोरिया इत्यादि नाटक तथा उत्तराखंड के लोकगीत व नृत्य दिल्ली एनसीआर तथा उत्तराखंड में मंचित किए गए हैं. परिचर्चा शुभारंभ कमल कर्नाटक, ममता कर्नाटक इत्यादि द्वारा जनकवि स्व.गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की रचना- ….ओ हो रे, आहा रे …. से किया गया.
‘उत्तराखंड रंगमंच एवं फिल्म दिशा और दशा’ विषय पर खुली परिचर्चा में मुख्य अतिथि नरेन्द्र लडवाल द्वारा कहा गया, अंचल की फिल्मों व नाटकों की दशा खराब है. दिशा बुद्धिजीवियों से ही मिलेगी. सब लोग एक जुट हो, इकठ्ठा हों, चिंतन करे. नरेन्द्र लडवाल द्वारा कहा गया, अंचल का दुर्भाग्य रहा है, हमारे बुजुर्गों ने अपनी विधा को अपनी आने वाली पीढ़ी को नहीं सिखाया, जो भूल आज हास का कारण बन उभर कर सामने आ रही है. कहा गया, अच्छी फिल्में बन सकती हैं वर्ष में दो या तीन फिल्में उच्च स्तर की बने, निर्मित फिल्मों में अंचल का कल्चर हो, उससे सीख भी मिले, प्रेरणा भी. निर्मित फिल्मों का खूब प्रचार प्रसार किया जाए. अपनी बोली भाषा को बच्चों को सिखा कर उसका संवर्धन किया जाए. हमारी देवभूमि है, सच्चाई और अच्छे संस्कारों की भूमि है उस पर चिंतन करते रहें, चर्चा करते रहें, मिल बैठ कर.
आईआरएएस हीरा बल्लभ जोशी द्वारा कहा गया, हमारी संस्कृति हर जगह दिखती है. हमारी बोली भाषा के अनेक शब्द मूल रूप में बोले जाते हैं. व्यंजन अच्छे हैं, विविधता है. पूरी दुनिया में इतनी विविधता नहीं है. हुडकिया बौल, बैर गायन दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा. हमारी लोक विधा सबको बांधती है, सबका ध्यान आकर्षित करती है. अभी बहुत कुछ आना बांकी है. कुमाऊ की होली गुजरात के गरबा की तरह है. होली की ओर विशेषता है वह अवधी है. अच्छे बोल हैं. अंचल का रंगमंच पहले भी बेहतर हो गया है. एक बैंड बने कार्यक्रम पूरे देश-दुनिया में करे.
फिल्म निर्माता राकेश गौड़, अभिव्यक्ति कार्यशाला अध्यक्ष मनोज चंदोला, प्रज्ञा आर्ट्स थिएटर ग्रुप अध्यक्षा लक्ष्मी रावत, नाटककार व उपन्यासकार डॉ. हरि सुमन बिष्ट, अकादमी सम्मान प्राप्त भूपेश जोशी, फिल्म निर्देशक सुशीला रावत, पर्वतीय कला केंद्र अध्यक्ष चंद्र मोहन पपनै, रंगकर्मी डॉ. कमल कर्नाटक, पर्वतीय लोक कला मंच महासचिव हेम पन्त व संयोजक दिनेश फुलारा, पूर्व राज्यमंत्री पूरन नैलवाल, आंचलिक फिल्म निर्माता व जोधा फिल्मस से जुड़े संजय जोशी, साहित्यकार रमेश घिल्डियाल, वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी द्वारा आंचलिक रंगमंच और निर्मित फिल्मों के परिप्रेक्ष्य पर गूढ़ व ज्ञानवर्धक विचार व्यक्त किए गए.
परिचर्चा विषय पर विचार व्यक्त करते हुए वक्ताओं द्वारा कहा गया, उम्मीद थी उत्तराखंड की आंचलिक फिल्में रोजगार का साधन बनेंगी. लंबा समय तय कर सपनों ने अब प्राण फूके हैं. लेकिन अभी मुकाम तक नहीं पहुंचे हैं. निरंतर प्रयास करना जरूरी है. कहा गया, पहले भी उक्त विषय पर सेमिनार करते रहे हैं. उत्तराखंड रंगमंच जगत के सौ वर्ष पूर्ण होने पर सौ नाटक भी किए गए थे.
प्रबुद्ध वक्ताओं द्वारा कहा गया, 1992 से 2012 तक अंचल की कोई भी फिल्म रिलीज नहीं हुई थी. अंचल की गठित संस्थाएं एक दूसरे को सहयोग कर तथा शो के टिकट बेचने में मदद कर बड़ी राहत प्रदान कर सकते हैं. फिल्म भी मिलजुल कर निर्मित करे. फ़िल्मों को मिल रही सब्सिडी को ध्यान में रखकर फिल्म न बनाए.
अनुभवी वक्ताओं द्वारा कहा गया, कई गोष्ठियां आयोजित कर लेने के बाद भी हम लोग जवाब ही ढूंढ रहे हैं. उत्तराखंड अंचल की फिल्में बड़ी देर से निर्मित होनी शुरू हुई. नाटकों की बात करे तो नाटक कम अनुष्ठान ज्यादा हुए हैं. मोहन उप्रेती, बृजेंद्र लाल साह और बृज मोहन शाह का दौर अति प्रभावशाली था. कहा गया, हम सबको कोशिश कर मंडी हाऊस में अंचल के नाटकों का एक प्रभावशाली फेस्टिवल आयोजित करना चाहिए.
कहा गया, आंचलिक बोली भाषा के नाटक तथा फिल्मों पर कार्य कर बोली भाषा का संवर्धन करना होगा. बाहरी प्रदेश के कलाकारों ने दूसरे प्रदेशों के नाटकों व फिल्मों को समृद्ध किया है. हमे भी दूसरे राज्यों के अच्छे व उभरते रंगकर्मियों को अपने नाटकों व फिल्मों में स्थान देकर संवर्धन करना चाहिए.
वक्ताओं द्वारा कहा गया, नाटक में लोग भाषण सुनने नहीं, कुछ नया देखने के लिए आते हैं. नाटक मंचन से पूर्व नाटक की हर विधा को समझना होगा. कहा गया, दशा और दिशा की समस्या हमेशा रही है. चिंतन सदा जरुरी है. रंगमंच क्यों किया जाए? क्योंकि सीखते हम रंगमंच से ही हैं. विदेशी रंगमंच से भी सीखते हैं. समाज के चरित्रों से मिली प्रेरणा से प्रेरणा लेकर ही नाटक करने की प्रेरणा मिलती है. नाटक में परंपराओं को नहीं नकार सकते हैं. हर बार एक ही चीज दिखा कर रंगमंच को समृद्ध नहीं कर सकते हैं. रंगमंच और फिल्मों का अपना सौंदर्य शास्त्र होता है. मनोरंजन और संदेश का भी महत्व है. सिर्फ मनोरंजन से भी काम नहीं चलता है. पहले जो होता था, आज नहीं, क्यों? क्योंकि कलाकार व गठित संस्थाएं हतोत्साहित हैं, उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है.
नाटक मंडलियों से जुड़े अनुभवी रंगकर्मियों द्वारा कहा गया, आज नाटक करना आसान कार्य नहीं है. संस्थाओं को सभागार बुक करने में ही भारी भरकम टैक्स अदा करना होता है. इनकम एक रूपए की नही है. स्थापित सरकारों का ध्यान भटका हुआ है. अपनी लोकसंस्कृति व लोक साहित्य व लोक गाथाओं को बचाने के लिए अपनी बोली भाषा के संरक्षण व संवर्धन के लिए ही नाटकों का मंचन किया जा रहा है, फिल्में बनाईं जा रही हैं. नाटकों की दशा और दिशा पर कोई नहीं सोच रहा है. जो संस्थाएं दिल्ली में नाटक कर रही हैं सब अभावग्रस्त हैं, एक सी परिस्थिति से गुजर रही हैं. एक होकर ही दशा दिशा सुधर सकती है. जब तक फिल्में व्यावसायिक नहीं होंगी परिस्थितियां विपरीत रहेंगी. नई पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए प्रभावशाली फिल्में बनाई जाए. नए प्रयोग किए जाए. उत्तराखंड के प्राकृतिक सौंदर्य का फिल्मों में फिल्मांकन हो.
वक्ताओं द्वारा कहा गया, बदलते समय के अनुसार हमे बदलाव लाना होगा. फिल्म व रंगमंच में नई तकनीक का प्रयोग करना होगा. गीत-संगीत डिजीटल होने से प्रोडक्शन खर्च कम किया जा सकेगा. अभिनय के अलावा कलाकारों में अन्य विधाओं के ज्ञान की कमी है, कलाकारों को अन्य विधाओं का ज्ञान भी रखना चाहिए. फिल्म व नाटकों को देखने के लिए अन्य राज्यों के लोग भी देखने आए ऐसा कार्य किया जाए. उत्तराखंड के नाटकों का अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ है, सोचना होगा. हम अपने फलक को विस्तार दें.
कहा गया, रंगमंच की दशा और दिशा सुधरेगी तो फिल्मों का स्तर अपने आप सुधर जायेगा. आंचलिक थिएटर से आजीविका चलती न देख अंचल के समर्पित कलाकारों ने मुंबई को रुख किया है. गठित संस्थाओं को नाटक मंचित करने के लिए धन जुटाने में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. कलाकारों को मेहताना नहीं मिलता है. युवाओं की रुचि आंचलिक रंगमंच से हट रही है. धन व अन्य संसाधनों के अभाव में तालीम ठीक से आयोजित नहीं हो पाती है. नाटक का प्रचार प्रसार नहीं हो पाता है. तकनीकी सुविधाओं का अभाव होता है. उत्तराखंडी के बजाय कुमाउनी गढ़वाली का राग अलापा जाता है. अंचल के लोग उत्तराखंड के नाम पर एक जुट होकर फिल्म और रंगमंच का सरंक्षण और संवर्धन करने हेतु लामबंद हो तो सब संभव हो सकता है.
वक्ताओं द्वारा कहा गया, विविधता के लिहाज़ से हम समृद्ध हैं. दिल्ली में अन्य राज्यों की भांति उत्तराखंड का भी एक सभागार बने, जिस हेतु सामुहिक रूप से प्रयास हों. मंथन होता है तो निष्कर्ष भी निकलता है. आगे का चिंतन कैसा हो, वह हमे प्रेरणा दे सकता है. जब संस्थाएं आर्थिक रूप से संपन्न होंगी, सब संभव हो जाएगा. समृद्धि जरूरी है, जिस हेतु संघर्ष करना पड़ेगा. सबको अपनी भूमिका देनी होगी.
कहा गया, दशा खराब है, दिशा बदलनी है. लोग नया देखना चाहते हैं. नए युवा नई तकनीक व नई सोच पैदा करे. सबको प्रोत्साहन देना होगा. हमारे लोकनाट्य की बहुत विशेषताएं हैं, भविष्य नाटकों व फिल्मों का अच्छा बन सकता है. उत्तराखंड की आंचलिक पृष्ठभूमि पर नाटक और कहानियां बहुत लिखी जा रही हैं परंतु प्रमोट नहीं हो पा रही हैं.
रंगमंच निर्देशक हरि सेमवाल तथा फिल्मकार अनुज जोशी द्वारा संबंधित परिचर्चा विषय पर संदेश भेजकर अपनी राय प्रकट की गई. गुजरात से आई उपासना द्वारा कहा गया, केंद्र सरकार उत्तराखंड के आंचलिक फिल्म और रंगमंच के संवर्धन हेतु जरुर मदद करेगी, एक बार संबंधित मंत्री और मंत्रालय से संपर्क जरूर करे.
आयोजित परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे दीवान सिंह बजेली द्वारा कहा गया, उत्तराखंड की सरकार को दिल्ली में सभागार की उपलब्धता हेतु सामुहिक रूप से लिखा जाए, संपर्क किया जाए. सभागार व तालीम कक्ष ही नहीं होगा तो आंचलिक रंगमंच व फिल्मों का विकास कैसे होगा.
आयोजित परिचर्चा में आमंत्रित सभी वक्ताओं का आयोजक संस्था पदाधिकारियों द्वारा पुष्प गुलाब व स्मृति चिन्ह प्रदान कर सम्मान किया गया. परिचर्चा समापन पर्वतीय कला संगम अध्यक्ष हीरा बल्लभ कांडपाल द्वारा सभी मंचासीनों, प्रबुद्घ वक्ताओं और सभागार में उपस्थित श्रोताओं का आभार प्रकट कर किया गया. आयोजित परिचर्चा का मंच संचालन हेमपंत द्वारा सभी प्रबुद्ध वक्ताओं का परिचय करा कर बखूबी अंदाज में शेरों सायरिया सुना कर किया गया.