जे पी मैठाणी
ऐ- ध्यान धोरया – यी राखुडी- कांणसी बग्वाल मतलब छ्वोटी दीवाली का दिन ख्वोली कणी ग्वोरू का पुछडा पर बाँधण च ( हे ध्यान रखना सब लोग – ये जो तुम्हारे हाथों पर राखियाँ बांधी जा रही है , ये छोटी दिवाली के दिन काटकर गाय के पूछ पर बाँध देनी हैं. – ध्यान रखना- ये कोई और नहीं मेरी माँ ( श्रीमती विशेश्वरी देवी ) रक्षाबंधन के दिन हमको – बार बार बोल देती थी , और आज भी मैंने अपनी मां को फ़ोन करने की कोशिश की लेकिन अभी रात बेहद हो गयी तो बात नहीं हो पायी ! उस दौर में समस्या यह थी की उस जमाने में स्पंज से बनी राखियाँ जल्दी ही पानी सोखकर टूट जाती थी, और सिर्फ सामान्य धागे वाली राखी पसनद नहीं आती थी ! आस पास के गांवों से जो पंडित जी भी आते थे उनकी हल्दी और लाल पिठाईं में रंगी गयी राखियों से सारी हथेलियाँ रंग जाती थी और स्कूल में लिखते वक्त नोट बुक पर राखियों का वो कच्चा रंग लग जाता था ! घर की बहनों की रेशम के धागे वाली कुछ न कुछ राखियाँ हमको अपने हाथों पर बचाए रखने के प्रयास करने पड़ते थे.
इगास दिवाली की सुबह – जब पूरे पहाड़ में सभी पहाडवासी – नए- नए धान के चावल के भात , मंडुवे के आटे के हलवे के गोले और झंगोरा के चावल के भात के पींडे के गोलों के ऊपर हमारे पूरे परिवार के लोग अपनी – अपनी – गायों- जैसे- चंदा, नौरती,पूंडी,चैता, शीबा , मदनी, कायी, लाली और अनेक अन्य गायें और उनके बछड़े – बछडियों और अपने बैलों को हम घर में उबाल कर नए अनाजों के उस चारे या पींडों हम – गाय बछिया के सींग और सर पर घी मॉल कर उनके गलेमें गेंदे और गुलदाऊदी की माला पहनाकर फिर उनको पींडा खिलाते, और फिर उनकी पूंछ पर हाथों में बंधी हुई राखियाँ जो अब तक काफी पुरानी हो चुकी हैं को तोड़कर और काटकर अपने अपने पसंद की गाय और उसके बछड़े – बछडियों की पूंछ पर बाँध देते थे !
गाय बैल सभी पशुओं को टीका लगाया जाता पूजा की जाती – धूप- अगरबत्ती से आह्वाहन किया जाता – फिर पूरी, उड़द दाल की पकौड़ी और हलुवा सभी के लिए पहाड़ के लोक जीवन में सब एक जैसे- मानव जीवन- पशु पक्षी सबको बांटा जाता और इस प्रकार छोटी दिवाली का उत्साह – शाम को पूजा, जगमग करती बिजली की लडियां, दीये – खील – बताशे के साथ मनाई जाती . अगले दिन हमारी गायें फिर चरने जाती जंगल की ओर पूंछ पर बंधी हमारी राखिया वन देवता के आँचल में- बुग्याल में या गोउ चरान में गायब हो जाती अगले रक्षाबंधन और छोटी दिवाली तक !
मुझे आज तक सही ढंग से ये पता नहीं चल पाया है कि, छोटी दिवाली या ईगास के दिन गाय की पूंछ पर रक्षाबंधन की राखियाँ हाथ से काटकर क्यूँ बांधी जाती है इस विषय पर मैंने जब अपने चाचा जी वेदपाठी, शीर्ष पुरोहित श्री विजय प्रसाद मैठाणी जी से बातचीत की तो उन्होंने बताया – कि, हिन्दू धर्म के अनुसार हम श्रावन पूर्णिमा के दिन बहने भाई के हाथों में राखी को रक्षा सूत्र के रूप में- रक्षाबंधन के दिन बांधती हैं साथ ही श्रेष्ठ गुरुजन भी रक्षा सूत्र बांधते हैं , कहा गया है,
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः.
तेन त्वाम् अभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥
( भावार्थ – जिस रक्षा सूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र मैं तुम्हें बांधती हूं, जो तुम्हारी रक्षा करेगा, हे रक्षा तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना.)
वे आगे बताते हैं – श्रावण पूर्णिमा से 4 दिन पहले देव शायनी एकदशी के दिन से नारायण यानी भगवान विष्णु शयन या योग निंद्रा में में चले जाते हैं, और बाद में चातुर्मास के आज समापन होने के दिन ( यानी छोटी दिवाली के दिन) योग निंद्रा से जागृत हो जाते हैं , भगवान् विष्णु योगनिंद्रा के चातुर्मास के दौरान कोई भी शुभकार्य – जैसे विवाह आदि नहीं होते लेकिन हिन्दू त्यौहार मनाये जा सकते हैं , और आज से ही शुभ कार्य शुरू हो सकते हैं इसलिए अब राखी के रूप में जो रक्षा सूत्र हमारे हाथों पर बाँधा गया था उसका कार्य सम्पादित हो गया है इसलिए राखी या रक्षा सूत्र को गाय की पूछ पर बाँध देते हैं साथ ही यह भी मानते हैं कि गौ माता के शरीर में 33 कोटि देवी देवताओं का वास होता है , अतः रक्षा सूत्र को इधर उधर ना फेंका जाय उसको गाय की पूंछ के स्पर्श के बाद प्रकृति को वापस अर्पित कर दिया जाता है.
हिन्दू सनातन धर्म में गौ और गंगा को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है इसीलिए भी गौमाता के पूछ पर राखी को बाँधा जाता है क्यूंकि गौमाता सभी स्थानों पर पाली जाती है यह भी एक वजह है, और गंगा का तट हर जगह सुलभ नही है गाय हिन्दू धर्म में सर्वोपरि भी है. आज ही के दिन तुलसी के पूजन का भी दिन हरी बोधनी एकादशी या देव उठनी एकादशी के रूप में मनाया जाता है – इसलिए नारायण हरी के जागृत हो जाने पर तुलसी जी का विवाह – नारायण विष्णु जी के साथ किया जाता है ! दूसरी और वीर भड माधो सिंह भण्डारी के तिब्बत विजय से वापसी के इस दिन को ईगास बग्वाल के रूप में मनाया जाता है.
आज के दिन ही मुझे – रंजीत कौर, महिलाविंग जिलाध्यक्ष NMOPS द्वारा संकलित एक आलेख मिला जिसके अनुसार – ईगास बग्वाल के लिए निम्नांकित दो लाईनें, विस्तृत व्याख्या का स्वरुप देती हैं –
बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई,
सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई.
मतलब साफ है. बारह बग्वाल चली गई, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए. सोलह श्राद्ध चले गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है. पूरी सेना का कहीं कुछ पता नहीं चल पाया. दीपावली पर भी वापस नहीं आने पर लोगों ने दीपावली नहीं मनाई. इगास बग्वाल की पूरी कहानी वीर भड़ माधो सिंह भंडारी के आसपास ही है. आईये जानते हैं क्या है पूरी कहानी–एक पक्ष यह भी है –
असल कहानी यही मानी जाती है कि करीब 400 साल पहले महाराजा महिपत शाह को तिब्बतियों से वीर भड़ बर्थवाल बंधुओं की हत्या की जानकारी मिली, तो बहुत गुस्से में थे. उन्होंने तुरंत इसकी सूचना माधो सिंह भंडारी को दी और तिब्बत पर आक्रमण का आदेश दे दिया. वीर भड़ माधो सिंह ने टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार और श्रीनगर समेत अन्य क्षेत्रों से योद्धाओं को बुलाकर सेना तैयार की और तिब्बत पर हमला बोल दिया. इस सेना ने द्वापा नरेश को हराकर, उस पर कर लगा दिया. इतना ही नहीं, तिब्बत सीमा पर मुनारें गाड़ दिए, जिनमें से कुछ मुनारें आज तक मौजूद हैं. इतना ही नहीं मैक मोहन रेखा निर्धारित करते हुए भी इन मुनारों को सीमा माना गया. इस दौरान बर्फ से पूरे रास्ते बंद हो गए. रास्ता खोजते-खोजते वीर योद्धा माधो सिंह कुमाऊं-गढ़वाल के दुसांत क्षेत्र में पहुंच गये थे.
तिब्बत से युद्ध के बाद मनाई गयी इगास बग्वाल
तिब्बत से युद्ध करने गई सेना को जब कुछ पता नहीं चला, तो पूरे क्षेत्र में लोग घबरा गए. शोक में डूब गए. इतना ही नहीं माधो सिंह भंडारी के विरोधियों ने उनके मारे जानें की खबरें भी फैला दी थी. इससे दुखी लोगों के विरह को कई कविताओं में भी कवियों ने जगह दी है. लेकिन, भंडारी उच्छनंदन गढ़ पहुंच गये और गढ़पति की बेटी उदिना और देखते ही प्रेम हो गया. कहा जाता है कि दो दिन बाद ही उदिना का विवाह होना था. विवाह में माधो सिंह जौनसारी वीरों को ले नर्तकों बनकर बारातियों को मनोरंजन करने लगे. उस दिन भी नृत्य देखने आई और माधो सिंह को पहचान गई. माधो सिंह का इशारा मिलते ही नृत्य में खिलौना बनी तलवारें चमक उठी और माधो सिंह उदिना को भगा लाये. जब माधो सिंह युद्ध जीत कर वापस श्रीनगर पहुंचे तब उन समस्त क्षेत्र के लोगों ने जिनके वीर इस युद्ध में गये थे ईगास बग्वाल मनाई.
एकादशी के दिन मिट्ठे करेले या ककौडे–
एकादशी के दिन मिट्ठे करेले ककौडे और लाल बासमती के चावल का भात बनाया जाता है. भैलो बनाने के लिए गांवा से सुरमाडी के लगले (बेल) लेने के लिए लोग टोलियों में निकलते थे. चीड के पेड़ के अधिक ज्वलनशील हिस्से, जिसमें लीसा होता था. उसको कोटकर लाया जाता है. चीड के अलावा इसके छिलके से भी भैलो बनाए जाते थे. इतना ही नहीं ब्लू पाइन के छिलकों (बगोट) तिब्बत यहां से आयात करता था और इसकी मोटी कीमत चुकाते थे.
चीड़ के पेड़ की लीसे वाली लकड़ी के भैल्लो …
भैल्लो …उजाला करने वाला. इसका एक नाम अंधया भी है. अंध्या मतलब अंधेरे को मात देने वाला. ईगास बग्वाल में मुख्य आकर्षण भी भैलू ही होता है. लोग भैलू खेलते हैं. इसमें चीड के पेड़ की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है. इसके अन्दर का लीसा काफी देर तक लकड़ी को जलाये रखता है. पहले गांव के लोग मिलकी एक बड़ा भैलू बनाते थे. जिसमें समस्त गांव के लोग अपने-अपने घरों से चीड़ की लकड़ी देते थे. कहा जाता है कि इसे जो उठाता था, उसमें भीत अवतरित होते थे.
ऐसा भी माना जाता है कि प्रभु राम जब 14 साल बाद लंका फतह करके वापिस दिवाली के दिन अयोध्या आये थे तो उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद पता चली, जिस कारण उन्होंने 11 दिन बाद दिवाली मनाई.
एक और कहानी महाभारत काल से भी जुड़ी बताई जाती है. दंत कथाओं के अनुसार महाभारत काल में भीम को किसी राक्षस ने युद्ध की चेतावनी थी. कई दिनों तक युद्ध करने के बाद जब भीम वापस लौटे तो पांडवों ने दीपोत्सव मनाया था. कहा जाता है कि इस को भी ईगास बग्वाल के रूप में ही मनाया जाता है.
ईगास बग्वाल पर यादों के जरोखों से और मानवीय संवेदनाओं को संकलित कर रखने का एक प्रयास – बाकी – याद बात बाकी – याद बाकी !