जोयूं उत्तराखंड में मातृपूजा की वैदिक परम्परा

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

समूचे देश में शारदीय नवरात्र का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. दुर्गा सप्तशती में इसे वार्षिक देवी पूजा की संज्ञा दी गई है.उत्तराखंड के द्वाराहाट क्षेत्र में जालली के निकट स्थित so जोयूं ग्राम आदिकालीन मातृ उपासकों का एक ऐसा ग्राम है,जहां आज भी शारदीय नवरात्र में प्रतिवर्ष मां जगदम्बा की सामूहिक रूप से अखंड जोत जलती है और अष्टमी एवं दशमी की वार्षिक पूजा का पर्व विशेष रूप से मनाने की परंपरा भी रही है.

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हालांकि यह ग्राम भी पलायन के अभिशाप के कारण उत्तराखंड के अन्य ग्रामों की भांति बदहाली के दौर से गुजर रहा है.  पिछले तीन चार सालों में सड़क चौड़ीकरण के दौरान पीडब्‍ल्‍यूडी so विभाग ने जोयूं मार्ग में पड़ने वाले वन वृक्षों को नष्ट कर दिया है और गांव में जाने के लिए पुश्तैनी मार्ग भी बेरहमी से तोड़ दिए हैं. ग्रामसभा की उपेक्षा के कारण नागरिक सुविधाओं का यहां सर्वथा अभाव है,पेय जल की समस्या भी विकट बनी हुई है.एक प्राथमिक स्कूल था वह भी बंद हो चुका है. उसके बाद भी अपनी मातृभूमि से प्रेम और लगाव रखने वाले दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, देहरादून, हल्द्वानी आदि दूर दराज में रहने वाले इस गांव के प्रवासी बंधु अपने इस पैतृक गांव में वार्षिक देवी पूजा के पर्व को मनाने के लिए हर साल सपरिवार उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं.

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कोरोना संक्रमण के कारण इस बार वार्षिक नवरात्र का कार्यक्रम बहुत लघुस्तर पर मनाया जा रहा है.अष्टमी और दशमी को देवी भगवती और न्यायदेवता ग्वेलज्यू की वार्षिक पूजा का आयोजन किया जाएगा. प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा के अनुसार अष्टमी के दिन लोग अपने अपने घरों से देवी को भोग लगाने की सामग्री,फल फूल, धूप बत्ती, दक्षिणा द्रव्य आदि पूजा सामग्री पूजा वाले घर में भेंट चढ़ाते हैं.वहीं ग्रामवासी मिल so कर देवी का भोग बनाते हैं. इस अवसर पर नगाड़े, निशान, रणसिंह की भेरी नाद सहित देवी की शोभा यात्रा भी निकाली जाती है.महिलाओं द्वारा देवी की स्तुति में भक्ति संगीत का आयोजन किया जाता है. इष्टदेवी जगदम्बा की पूजा आराधना के साथ न्यायदेवता ग्वेल, लाकुड़ देवता और महंता वीर के दर्शनों का आशीर्वाद भी प्राप्त किया जाता है.

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इस अवसर पर मां जगदम्बा और इष्टदेवों के दर्शन करने लोग दूर दूर से आते हैं. विवाहित पुत्रियां भी इस अवसर पर मां जगदम्बा और ग्वेलदेवता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए शामिल so रहती हैं. ऐसी ही पूजा दशहरे के दिन भी की जाती है. गांव के चारों ओर नगारे, निशान, रणसिंह के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है.

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उत्तराखंड की पुरातन संस्कृति so और शक्तिपूजा के इतिहास की दृष्टि से यदि जोयूं ग्राम की इस आश्विन मातृपूजा के प्राचीन इतिहास को जानने का प्रयास किया जाए तो इस स्थान पर विद्यमान पुरातात्त्विक अवशेषों के प्रमाण जोयूं ग्राम की इस मातृपूजा के इतिहास को प्रागैतिहासिक और वैदिक काल तक पहुंचा देते हैं.

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अप्रैल‚ 2015 में मुझे कुमाऊं उत्तराखण्ड में स्थित जोयूं ग्राम से 4 किमी दूर जालली घाटी एवं तथा इसके ऊपर लगभग 5-6 किमी दूर ‘दाणुथान’ आदि प्रागैतिहासिक स्थलों का सर्वेक्षण करते so हुए ऐसे चौंकाने वाले ‘मैगलिथिक’ अवशेष तथा एक दर्जन से भी अधिक की संख्या में महापाषाण कालीन समाधियों अथवा शवागारों के प्रमाण मिले जिनका सम्बंध पशुपालक तथा धान की खेती से जुड़े वैदिक कालीन आर्य किसानों की बस्ती से रहा था. ऐसा प्रतीत होता है कि जोयूं ग्राम के निकट स्थित जहां आज प्रागैतिहासिक काल के 11 और 22 ओखलियों के ‘मैगलिथिक’ अवशेष विद्यमान हैं उस स्थान पर पुराकाल में आर्य किसान मातृदेवियों की सामूहिक रूप से पूजा अर्चना करते थे तथा कूटे हुए धान आदि की फसल सामूहिक रूप से so मातृ देवियों को चढ़ाते थे. इसका प्रमाण यह है कि जहां दो धारों में आमने सामने ये ‘मैगलिथिक’ ओखलियां विद्यमान हैं उस स्थान को प्राचीन काल से ही ‘माईधार’ यानी मातृदेवी का शिखर स्थान कहा जाता रहा है.

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पिछले वर्ष मुझे जोयूं ग्राम से एक कि.मी.दूर मुनिया चौड़ा नामक एक मेगलिथिक ओखली का अवशेष भी मिला है,जो इस जालली घाटी के समूचे क्षेत्र में वैदिक कालीन मातृपूजा की परम्परा की so ही पुष्टि करता है. जालली घाटी के ‘जोयूं’, ‘सुरे’, ‘सुरेखेत’, ‘दाणुथान’ सिमल चौड़:,’जालली’,’ ‘मनैगैर’, बन्धरा’ आदि निकटस्थ अनेक गांवों में रहने वाले ये धान उत्पादक आर्य किसान यहां धान के सेरों (खेतों) में सामूहिक रूप से फसल उगाकर समीप में जोयूं स्थित 11 ओखलियों और 22 ओखलियों में अनाज कूटने के बाद उसका पहला भोग मातृदेवियों को चढ़ाया करते थे.

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जोयूं की ग्रामसभा ‘सुरे’ के माईथान’ तथा तकुल्टी ग्राम के नौले (जलाशय) में विद्यमान अति प्राचीन मातृदेवियों के अवशेष भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि ये मातृदेवियों के उपासक वैदिक so कालीन खेतिहर किसान फसल की पहली पैदावार सर्व प्रथम मातृदेवियों को अर्पित करने के बाद ही अपने प्रयोग में लाते थे. यही कारण है कि जोयूं ग्राम के खेतों के निकट जहां ये ओखलियां आज विद्यमान हैं उस स्थान को ‘माईधार’ कहा जाता है. इसी प्रकार सूरे ग्राम में भी जहां देवपूजा होती है, उसे ‘माई थान’ कहते हैं.

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हालांकि जालली घाटी के गधेरों के जलविहीन होने से आज यहां धान उत्पादक सेरे भी समाप्त हो गए हैं और उसके साथ ही आश्विन नवरात्र में सामूहिक नवरात्र पूजा की परम्परा so भी वर्षों पहले लुप्त हो चुकीं हैं. परन्तु जोयूं ग्राम के निवासी आज भी  वैदिक काल से चली आ रही इस मातृपूजा की परम्परा को जीवित रखे हुए हैं. इस ग्राम के निवासी फसल के पहले अनाज को आश्विन नवरात्र में पहले देवी को भोग लगाते हैं तथा गांव की सुख समृद्धि हेतु आश्विन नवरात्र में इष्ट देवी जगदम्बा क्षेत्रीय भूमि देवता और न्याय देवता ग्वेलज्यू की सामूहिक रूप से पूजा अर्चना भी करते हैं.

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शारदीय नवरात्र पर जोयुवासियों की ओर से सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

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