“ऊम” महक गॉंव की

  • सुमन जोशी

उत्तराखंड में खेती व अनाज से जुड़े न जाने कितने ही त्यौहार, कितने की रीति—रिवाज़ और न जाने कितनी ही मान्यताएं हैं. पर हर एक मान्यता में यहां की संस्कृति व अपनेपन की झलक देखने को मिलती है. कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण यहाँ हर एक फसल के बोने से लेकर के काटने व रखने तक अलग-अलग अनुष्ठान किये जाते हैं. किसी नई फसल की पैदावार में उसे ईष्ट देव को नैनांग के रूप में चढ़ाया जाता है और फिर समस्त गाँववासियों द्वारा प्रयोग किया जाता है.

पहाड़ों में खेतों में कुछ खेत जहाँ पर बहुत छाया रहती है या फिर सिमार (पानी भरे हुए खेत) में फसल ठीक प्रकार से पक नहीं पाती यानी हरी ही रह जाती है, ऐसे खेतों के किनारों से ही ऊम के लिए गेहूं के मुठे बाँध लिए जाते और ईजा, काकी या ज्येठजा में से कोई भी मुठे बनाकर बच्चों को थमा देते व इन्हें जलाने अथवा सेकनें का काम उन्हें दे देते. निःसंदेह बच्चों में उत्साह की कोई कमी नहीं रहती तो बच्चे बड़े ही शौक से इस काम में जुट जाते थे.

ऊम भी गेहूं की नई फसल की पैदावार पर बनाये जाते हैं. गाँव में आज भी गेहूं की नई फसल पकने पर उसके हरे दानों को कोयले की आंच में रखकर पकाया जाता है. ईजा अपने हाथों से इन्हें सूपे में मसल कर दानों और भूसे को अलग करती हैं.

ऊम की सभी फोटो अशिता डोभाल की फेसबुक वॉल से

पहाड़ों में खेतों में कुछ खेत जहाँ पर बहुत छाया रहती है या फिर सिमार (पानी भरे हुए खेत) में फसल ठीक प्रकार से पक नहीं पाती यानी हरी ही रह जाती है, ऐसे खेतों के किनारों से ही ऊम के लिए गेहूं के मुठे बाँध लिए जाते और ईजा, काकी या ज्येठजा में से कोई भी मुठे बनाकर बच्चों को थमा देते व इन्हें जलाने अथवा सेकनें का काम उन्हें दे देते. निःसंदेह बच्चों में उत्साह की कोई कमी नहीं रहती तो बच्चे बड़े ही शौक से इस काम में जुट जाते थे. गेहूं के मुठो को बिना खोले बाहर ही आंगन के किनारे पर दौ (जानवरो का पकाया हुआ भोजन) पकाने वाले चूल्हों पर बनाते हैं. बांज या चीड़ की लकड़ी के कोयलों पर लपटती आग पर हरे-हरे गेहूं के दानों की बालियों को सुनहरा-भूरा होते हुए देखकर बाखली के सारे बच्चों का उत्साह और अधिक बढ़ जाता, मानो किसी ने उनकी हथेली में रात के अँधेरे में चुपके से कोई जुगनू रख दिया हो, जिसका प्रकाश भोर होने तक उनकी आँखों में साफ-साफ दिखाई पड़ता है.

खैर! बच्चों का काम यहीं पर ख़त्म होता है. अब वह अपने-अपने कटोरे-छापरी लेकर के ईजा के ऊम सुदारने की राह देखते हैं. ईजा, आमा, काकी, ज्येठजा इनके हाथों के च्यूड़ा, ऊम, खाजा बनाने की तकनीक और उनका स्वाद अभी तक कोई टेक्नोलॉजी नहीं समझ सकी. आमा बताती है कि “पांच बहने और दो भाई होने के बाद भी हम कितना मिलजुलकर और साथ बैठकर सब कुछ खाया करते थे. तब तो एक ही घर में एक सोसायटी मिल जाया करती थी. हम तो ऊम भी इतने चांव से खाया करते थे जैसे छप्पन भोग हो. सादगी और सरलता से भरा समाज था तभी तो इतने लोगों में भी सबके बीच सामंजस्य बैठ जाता था. अब न वो समाज रहा, न वो लोग और न वो च्यूड़ा ऊम. आजकल की पिज़्ज़ा बर्गर खाने वाली पीढ़ी क्या जाने ऊम के बारे में.”

सच है, कहने को तो आज के समय में हमें हर तरह की, और हर मौसम में तरह-तरह की फल, सब्जियां, अनाज मिल जाया करता है पर उस स्वाद में जो बात थी वो आज कहीं गुम हो गया है.

(लेखिका कुमाऊँ विश्वविद्यालय, पिथौरागढ़ में शोध छात्रा हैं)

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