स्मृतियों के उस पार…
- सुनीता भट्ट पैन्यूली
पहाड़, नदी
और खेत पहाड़ी लोग और उनके जीवन के बीच बना हुआ अनंत सेतु है जिस पर आवाजाही किये बिना पहाड़ी लोग जीवन की जटिलता को भोगकर स्वयं के लिए सुगम रास्ता नहीं बना सकते. कहना ग़लत न होगा पहाड़, नदी, और खेत तप-स्थल हैं पहाड़ियों के अभ्यास करने के जिनके इर्द-गिर्द उनके स्वप्न, उनकी उम्मीदें उनके जीवन के उद्देश्य धीरे-धीरे अंगड़ाई लेते हैं फिर पूरे वेग के साथ कुलांचे मारते हैं.नदी
पहाड़ ने बहुत कुछ दिया है मैदान को,
पहाड़ ने स्वच्छ हवा दी है, स्वच्छ पानी दिया है, ताजा अनाज, फल और सब्जियां दी हैं साथ ही समृद्धि भी दी है. यही नहीं पहाड़ के प्रति हमें कृतार्थ होना चाहिए क्योंकि पहाड़ ने देश व समाज को नई-नई प्रतिभायें भी दी हैं.नदी
आप यदि बस में बैठकर शहर से गांवों की
ओर जा रहे हैं तो आपको शहर और गांवों के बीच हर पड़ाव पर कुछ ऐसे नंगे बदन वाले बच्चे जिन्होंने धूप और पानी के उतार-चढ़ाव के कारण अपने शरीर को कालिख बना दिया है, जिन पर थोड़े शहर का और थोड़े गांव का प्रभाव है. आपको पुल के नीचे बहती नहर में कूदते नंगे बच्चे मिल जायेंगे, नहर आप कम गहरी मत समझिये अच्छी खासी गहरी होती है यह नहर और ये छोटे और बड़े बच्चे इन्हें भी कम न आंकिये कुशल तैराक और सक्षम हैं ये स्वयं में पानी की गहरी तरंगों और लहरों के साथ हाथ-पांव मारकर सरलता से बाहर आने के लिए. ये बच्चे ऊपर पुल की ऊंचाई से बार-बार छलांग मारकर नहर में मछली की तरह कूदते हैं और फिर देह को सुखाने पुल के किनारे बैठ जाते हैं.नदी
इन अर्ध शहरी
और अर्द्ध गांव यानी कस्बों के पड़ाव से आप जब खांटी गांव की ओर पहुंचते हैं तो सहसा सड़क के नीचे आपको नज़र आते हैं हरे मखमली खेतों के कालीन बीछे हुए और उनके किनारे पतली सुघड़,सुडौल नारी की काया सम सलीके से बहती मृदु कल-कल करती दिनकर की रश्मी में नहायी स्वर्णिम नदी और नदी में नहाते, धूप में पीठ सुखाते वही काला बदन किये हुए बच्चे.
नदी
इन अर्ध शहरी और अर्द्ध गांव
यानी कस्बों के पड़ाव से आप जब खांटी गांव की ओर पहुंचते हैं तो सहसा सड़क के नीचे आपको नज़र आते हैं हरे मखमली खेतों के कालीन बीछे हुए और उनके किनारे पतली सुघड़,सुडौल नारी की काया सम सलीके से बहती मृदु कल-कल करती दिनकर की रश्मी में नहायी स्वर्णिम नदी और नदी में नहाते, धूप में पीठ सुखाते वही काला बदन किये हुए बच्चे.नदी
कुशल तैराक हैं यह पहाड़ी बच्चे
क्योंकि ये जानते हैं कैसे नदी के तेज बहाव पर काबू पाना है.इसी तरह फसल कटने के उपरांत खाली खेतों में कई जगह बच्चे फुटबाल, वालीबाल और क्रिकेट खेलते हुए मिल जायेंगे, कभी आप बात कीजिएगा इनसे देश-विदेश, दुनिया, खेल जगत की चर्चा में आप इनसे हार न गये तो कहना.
बेशुमार क़ाबिलियत व
हुनर से भरा पड़ा है पहाड़ यहां, बस ज़रूरत है कि इन प्रतिभाओं को तराशा जाये और इन्हें अवसर दिया जाये देशज व वैश्विक पायदान पर अपना हुनर दर्शाने का.नदी
जब भी कभी बच्चों को नदियों में
नहाते, घंटों धूप में बैठे हुए कपड़ों को सुखाते देखती हूं तो मेरा बचपन सरपट से दौड़कर मेरी आंखों में बैठ जाता है.नदी
चूंकि पिता फारेस्ट डिपार्टमेंट में थे तो
लाज़िमी है मेरा जंगल, पहाड़, चिड़ियाओं, नदी, फूल, पेड़ों से प्रेम करना. बचपन से किशोरावस्था तक प्रकृति से नाता सतत बना रहा अभी है किंतु उस समय अपने बचपन में पेड़ों को आलिंगन किया है मैंने, नदी को आचमन किया है, तितलियों के पंखों के रंगों को गिना है मैंने. अब प्रकृति से उतना सामीप्य कहां?नदी
कहा जाता है कालसी
का शासक राजा विराट था और उसकी राजधानी वैराटगढ थी. पांडव अज्ञातवास के दौरान भेष बदलकर राजा विराट के यहां रहे.ज़्यादा नहीं पता लेकिन जनश्रुतियों और गढ़वाल के इतिहास में कालसी और “अमलावा” नदी के पौराणिक महत्त्व का वर्णन है. महाभारत काल के अवशेष अभी भी कालसी और उसके आसपास के मंदिरों में विद्यमान हैं.
नदी
बचपन में पिताजी
की पोस्टिंग कालसी में होने के बाद हम सभी भाई-बहन मां-पिताजी के साथ रहा करते थे. मनमौजीपन था ज़िंदगी में सारा दिन. कालोनी में अन्य बच्चों के साथ हुड़दंग कभी बगीचे से अमरूद चुराना कभी माली की नज़रों से लींची आड़ू चुराकर खाना. गर्मियों के दिनों में सोती हुई मां को नींद में धोखा देकर चुपचाप दरवाज़े की चिटकनी खोलकर फारेस्ट कालोनी के नीचे बहती “अमलावा” नदी में नहाने चले जाना और ख़ूब देर तक नदी की लहरों से अठखेलियां करना और शाम होने से पहले ही चुपचाप घर आ जाना.नदी
देहरादून का पश्चिमी इलाका है
जिसमें वर्तमान कालसी सम्मिलित है कहा जाता है कालसी का शासक राजा विराट था और उसकी राजधानी वैराटगढ थी. पांडव अज्ञातवास के दौरान भेष बदलकर राजा विराट के यहां रहे.ज़्यादा नहीं पता लेकिन जनश्रुतियों और गढ़वाल के इतिहास में कालसी और “अमलावा” नदी के पौराणिक महत्त्व का वर्णन है. महाभारत काल के अवशेष अभी भी कालसी और उसके आसपास के मंदिरों में विद्यमान हैं.आज ठीक-ठाक तैराकी
कर लेती ह़ूं यदि मुझे मेरे मन की वह बचपन वाली नदी मिल जाये या कभी-कभी स्वीमिंग पूल पर भी तैरकर अपनी बिसरी हुई स्मृतियों को ताज़ा कर लेती हूं इसका बहुत सा श्रेय पिताजी को भी जाता है क्योंकि वह भी गांव की नदियों की देन तैराकी में कुशल, मुझे दोनों हाथों और दोनों पैरों को चलाकर तैरने का अभ्यास कराया करते थे. चाचाजी भी कुशल तैराक थे कभी-कभी उनके साथ भी हम नदी में नहाने जाया करते थे.नदी
एक दिन चाचाजी के साथ मैं
और बड़ी बहन (जिसे मैंने दीदी कभी नहीं कहा अनिता ही कहा क्योंकि उम्र का ज़्यादा फासला नहीं था हम दोनों में) और एक कालोनी ही की शोभा दीदी भी नदी में नहाने गये.अमलावा नदी के बीचों-बीच एक बड़ा
और चौड़ा सा पत्थर था,जिस पर हम जब तैर-तैरकर थक जाते तो थोड़ा सुस्ताने और बदन को सुखाने के लिए बैठ जाते. जैसे ही गर्म हो जाते धूप में फिर नदी में उतर जाते. क्या मदमस्त बचपन था वह? जो कभी लौटकर नहीं आयेगा अब.चाचाजी कपड़े छोड़कर दौड़कर आये
और हम दोनों बहनों को बचाने के लिए नदी में कूद पड़े, हम दोनों बहनों को जैसे-तैसे नदी से बाहर निकाल कर पत्थरों पर उल्टा लिटाया गया और दोनों की पीठ पर शोभा दी की सहायता से डूक्के मारे और हमारे मुंह से झाग भरे पानी को बाहर निकाला गया तब कहीं जाकर हम दोनों अर्धचेतन अवस्था से बाहर आकर होश में आये,डांट खायी सो अलग.
नदी
चाचाजी दूर नदी के किनारे अपने कपड़े धोने में मशग़ूल थे हम तीनों उस बड़े पत्थर से कूदकर पानी में कभी मछलियों की तरह तैरते कभी पत्थर पर बैठकर गपियाते और स्वयं को सुखाते,
यही क्रम चल रहा था बहुत देर तक. दरअसल पत्थर के चारों ओर वृत्त में ही हमारा तैरने का रकबा था उससे आगे गहरा हरा-हरा सा पानी था जहां तक तैरने की अभी हमारी कुव्वत नहीं थी हालांकि हमें भ्रम और घमंड हो गया था कि हम अच्छी तैराकी करना सीख गये हैं. बातों-बातों में अनिता और शोभा दी ने मुझे चुनौती दी कि उस हरे गहरे पानी में कूदकर दिखाओ तो जानें…नदी
मैंने भी आव देखा न ताव पूरे आवेश में झट से उस बड़े पत्थर की परिधी से बाहर हरे गहरे पानी में कूद गयी उसके बाद इतना भर याद है कि कहां मेरे हाथ गये कहां पैर गये मुझे पता नहीं
आंखों के आगे गहरा पानी और असंख्य बुलबुले और किसी मछली सी तैरती आकृति ने खींचने की कोशिश की और मैं जिसे शायद औरों की ही तरह अपनी जान बहुत प्रिय थी उस आकृति के कंधों पर चढ़ गयी वह मछली जैसी आकृति बाद में महसूस हुआ और कोई नहीं अनिता मेरी बड़ी बहन थी अब उसका भी पानी में डूबना तय था क्योंकि मैं उसके कंधों पर जो चढ़ गयी थी. परिणामस्वरूप हम दोनों नदी में डूबने लगे और शोभा दी पत्थर पर खड़ी होकर ज़ोर-ज़ोर से चाचाजी को आवाज़ देकर चिल्लाने लगी.नदी
गांव में तैराकी में दक्ष,
असंख्य छुपी हुई प्रतिभायें हैं जिन्हें दरक़ार है तो सिर्फ़ एक अदद रोशनी की जो उनकी उम्मीद,उनके सपनों के मुक़्क़मल होने की वजह बनें ताकि ये प्रतिभायें जहां जन्म लें वहीं गुम न हो जायें अन्यथा ये प्रतिभायें कहीं भी कभी भी निष्कंटक उत्पन्न होना बंद हो जायेंगी.
नदी
शोर सुनकर चाचाजी कपड़े
छोड़कर दौड़कर आये और हम दोनों बहनों को बचाने के लिए नदी में कूद पड़े, हम दोनों बहनों को जैसे-तैसे नदी से बाहर निकाल कर पत्थरों पर उल्टा लिटाया गया और दोनों की पीठ पर शोभा दी की सहायता से डूक्के मारे और हमारे मुंह से झाग भरे पानी को बाहर निकाला गया तब कहीं जाकर हम दोनों अर्धचेतन अवस्था से बाहर आकर होश में आये,डांट खायी सो अलग.नदी
बड़ी बहन अनिता मज़ाक में आज
भी उलाहना देती है कि मैं तुम्हें बचाने गयी और तुम तो मेरे ही मेरे कंधे पर बैठ गयी.पानी के साथ आंख-मिचौली खेलते-खेलते
मैं कब नदी में तैरने वाली मछली बन गयी मेरी देह को भी आहट नहीं हुई.नदी
गांव में तैराकी में दक्ष, असंख्य छुपी
हुई प्रतिभायें हैं जिन्हें दरक़ार है तो सिर्फ़ एक अदद रोशनी की जो उनकी उम्मीद,उनके सपनों के मुक़्क़मल होने की वजह बनें ताकि ये प्रतिभायें जहां जन्म लें वहीं गुम न हो जायें अन्यथा ये प्रतिभायें कहीं भी कभी भी निष्कंटक उत्पन्न होना बंद हो जायेंगी.(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)