पंचायत चुनाव किस्त— 1
- शशि मोहन रवांल्टा
मारी तो शरीप कंसराओ… मारी तो शरीप ये
उंच बौख क डांडा कंसराओ ह्यू पड़ी बरिफ ये।।
कंसराओ (कंसेरू) भटाओ (भाटिया) केशनाओ (कृष्णा)….
हेड़ खेलण जाणू ये…. कंसराओ, भटाओ, केशनाओ….
हिमालय
तीन गांवों का यह गीत अपने आप में एक
बहुत ही गहन संदेश छिपाए हुए है, जिसमें तीन गांवों की एकता को गीत के माध्यम से बखूबी दर्शाया गया है। इस लोक गीत के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि इन तीनों की गांवों की एकता अटूट है।बर्फ
हिमालय की ऊंची चोंटियां
जब बर्फ से आच्छादित हो जाती हैं, तो हम रवांल्टे अपने उच्च हिमालय क्षेत्र में आखेट करने जाते हैं जो हमारे हक—हकूक में शामिल है। जब हिमालय की ऊंची चोटियों के साथ—साथ हमारे गांव—गोठ्यार तक बर्फ से लक—दक हो आते हैं तो उस दौरान हम हिमालय के वांशिदें अपनी पुरानी परंपराओं को आगे बढ़ाते हुए शिकार करने अपने स्थानीय जंगलों में जाते हैं जो बर्फ से अटे पड़े होते हैं और जंगली जानवरों का शिकार करते थे।राशन—पानी
जब हमारे इन पहाड़ी
इलाकों में बर्फ गिरती थी तो घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाया करता था। जिस कारण हम लोग अपने 4 से 6 माह के राशन—पानी की व्यवस्था और पशुओं के लिए चारे की समुचित व्यवस्था करके रखते थे।
समय
चूंकि पहाड़ों में पहले बहुत ज्यादा बर्फबारी होती जिसके लिए हम हिमालय की तलहटी में बसे लोग छह माह के लिए अपने खाने—पीने और पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था पहले ही
करके रखते थे। और जब हमारे इन पहाड़ी इलाकों में बर्फ गिरती थी तो घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाया करता था। जिस कारण हम लोग अपने 4 से 6 माह के राशन—पानी की व्यवस्था और पशुओं के लिए चारे की समुचित व्यवस्था करके रखते थे। अत्यधिक ठंड होने के कारण यहां के लोग गोस्त के शौकीन हुआ करते थे, जिसके लिए जंगलों में ऐड़ खेलने जाया करते थे और जंगली जानवारों का शिकार किया करते थे। लेकिन आज स्थितियां एकदम उलट हैं क्योंकि आज ना तो पहाड़ों में पहले की तरह बर्फबारी होती है और न ही कोई जंगल आखेट करने जाता है। क्योंकि समय के साथ लोगों के खान—पान और रहन—सहन भी शहरी मिजाज में रमते जा रहे हैं।चुनाव/h3>
जब चुनाव आते हैं तो
हमारी मर्यादाएं और नैतिकता तार—तार हो जाती है। गांवों के गांवों में फूट पड़ रही है, गांवों की दाइलियां अलग—थलग पड़ रही हैं। मानो ऐसा लग रहा है कि लोगों का स्वयं के स्वार्थ के अलावा किसी से कोई मतलब ही नहीं रहा हो।
गीत
जब चुनाव आते हैं तो
हमारी मर्यादाएं और नैतिकता तार—तार हो जाती है। गांवों के गांवों में फूट पड़ रही है, गांवों की दाइलियां अलग—थलग पड़ रही हैं। मानो ऐसा लग रहा है कि लोगों का स्वयं के स्वार्थ के अलावा किसी से कोई मतलब ही नहीं रहा हो।पहले गीत ऐसे ही नहीं बनाए जाते थे जैसे आज बन रहे हैं। पहले गीत उस व्यक्ति या गांव का गाया या लगाया जाता था जिसने कोई मिशाल खड़ी की हो। लेकिन आजकल चीजें
एकदम उलट हैं संस्कृति संरक्षण के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह एक जमात खड़ी हो गई (इसमें कुछ लोक वाकई संस्कृति का संरक्षण का काम बड़ी तनमयता से कर रहे हैं) जो संस्कृति को बचाने के लिए कुछ भी गाये जा रहे हैं। गीतों की ऐसी—तैसी करके मैशअप नाम दिया जा रहा है।हिमालय
आजकल चुनाव के मौसम में देखो तो हर प्रत्याशी का गीत गाया जा रहा है, लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आया कि जिसने कुछ किया ही नहीं, सिर्फ चुनाव के मैदान में खड़ा
हुआ ही है वही अपना गीत बनवा रहा है। क्या पैसे के लिए कुछ भी किया जा सकता है या हमारी कोई नैतिक जिम्मेदारी या मर्यादाएं भी हैं? या सिर्फ पैसे के लिए कुछ भी परोसा जा रहा है? संस्कृति के नाम पर?हिमालय
जिन सभी गांवों में ये निर्विरोध
प्रत्याशी चुने गए उन सभी गांववासियों को नमन क्योंकि उन्होंने अपनी आने वाली पीढ़ी को एक नई दिशा देने का काम किया है।
प्रत्याशी
जब चुनाव आते हैं तो हमारी मर्यादाएं
और नैतिकता तार—तार हो जाती है। गांवों के गांवों में फूट पड़ रही है, गांवों की दाइलियां अलग—थलग पड़ रही हैं। मानो ऐसा लग रहा है कि लोगों का स्वयं के स्वार्थ के अलावा किसी से कोई मतलब ही नहीं रहा हो। गांवों की परंपराएं खत्म होने की कगार पर है। खैर गांवों की इन परंपराओं और रीति—रिवाजों पर फिर बात करेंगे। लेकिन आज चुनाव से उत्पन्न हुई स्थिति के बारे में बात हो रही है।कृष्णा
एक सुखद अहसास यह भी है कि
अकेले उत्तरकाशी जिले में लगभग 100 के करीब ग्राम प्रधान प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक पहल है और जिन सभी गांवों में ये निर्विरोध प्रत्याशी चुने गए उन सभी गांववासियों को नमन क्योंकि उन्होंने अपनी आने वाली पीढ़ी को एक नई दिशा देने का काम किया है।भाटिया
अब बात करते हैं कंसराओ (कंसेरू) भटाओ (भाटिया) केशनाओ (कृष्णा)…. की। इनमें कंसेरू गांव में आजादी से लेकर आज तक प्रधान पद का प्रत्याशी निर्विरोध ही निर्वाचित
होता आया है। लेकिन भाटिया, कृष्णा और तुनाल्का में कभी ऐसा नहीं हुआ। अपने गांव भाटिया में हमने एक कोशिश की थी लेकिन सफलता नहीं मिली। ऐसा ना हो पाने का कारण जब जानने की कोशिश की गई तो पता चला कि फलां लाल, फलां सिंह का कंडिडेट हैं, तो फिर निर्विरोध प्रधान कहां से बनता। खैरनौजवान
नौजवान साथियों से
आग्रह है कि वे संगठित बनें, लीडरशिप डेवलप करें और समाजहित के कार्यों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें। अपने लोगों की समस्याओं में उनके साथ खड़े हों न कि उनके लिए समस्या बनें।
पिछे चलना
अब बात करते हैं इन तीन गांवों की जिन पर एक पुराना लोक गीत— कंसराओ (कंसेरू) भटाओ (भाटिया) केशनाओ (कृष्णा)… हारुल के रूप में हम बचपन से किसी भी
तीज—त्यौहार में गाया करते थे। हमारे बुजुर्ग बताते थे कि ये तीनों गांव अलग—अलग होते हुए भी एक हैं लेकिन इस बार पंचायत चुनावों में इन तीन गांवों को न जाने किसकी नजर लग गई। तीनों गांवों से तीन जिला पंचायत प्रत्याशी। जबकि आजतक के इतिहास में ऐसा नहीं हुआ था। जब भी कोई बड़ा चुनाव होता तो आसपास के सभी गांव एक हो जाया करते थे। ऐसा शायद इसलिए भी हो जाया करता था कि पहले हमारे बुजुर्ग ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, वे परंपराओं और मर्यादाओं को बचाए और बनाए रखना अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते थे। आज जब हम ज्यादा पढ़—लिखने का दावा करते हैं तो पुरानी परंपराओं को बोझ समझकर उनको दरकिनार करते जा रहे हैं। शायद इसी का परिणाम ये है कि आज हर घर में नेता पैदा हो रहे हैं।भीड़ के
लीडरशिप ऐसे ही नहीं आती,
उसके लिए भीड़ के पिछे चलना पड़ता है लेकिन आज सारी चीजें विपरीत हो रही हैं। जो भी नेतागिरी में उतर रहा है वो 8 से 10 लोगों को साथ लेकर चलता बनाता है। पहले भीड़ से नेता बनने थे आज नेता से भीड़। नौजवान साथियों से आग्रह है कि वे संगठित बनें, लीडरशिप डेवलप करें और समाजहित के कार्यों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें। अपने लोगों की समस्याओं में उनके साथ खड़े हों न कि उनके लिए समस्या बनें।लिए
अंतत: कंसराओ (कंसेरू)
भटाओ (भाटिया) केशनाओ (कृष्णा)…. के तीनों प्रत्याशियों के साथ—साथ उत्तराखंड के उन तमाम प्रत्याशियों को हार्दिक शुभकामनाएं। वे सभी विजय हों और समाज के हित में कार्य करें। जो प्रत्याशी भी विजय हो, समाज में एक नई मिशाल कायम करे ताकि उसके गीत पैसों से नहीं, जन भावनाओं से बनें। कंसराओ (कंसेरू) भटाओ (भाटिया) केशनाओ (कृष्णा)…. के तीन जिला पंचायत प्रत्याशियों में कौन विजय होगा ये तो भविष्य के गर्भ में लेकिन यदि समाज के प्रबुद्धजनों की राय मानी जाए तो तीनों प्रत्याशी एक दूसरे के वोट काटने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर रहे हैं। बाकी पब्लिक समझदार है।(लेखक पांचजन्य एवं
आर्गेनाइजर पत्रिका में आर्ट डायरेक्टर हैं)
Graminon ko dekhna hoga ki jo log dusre ke naam se pradhan ka chunaav lad rahe hain unko saport n karen kyunki bina lalach ke vah savarn unko saport to kar nhin raha hoga. To sajag rahen…. Jaagruk hokar vote karen…..