- आशिता डोभाल
पहाड़ की चक्की, शुद्धता और आपसी भाईचारे की मिसाल कायम करने वाली ये चक्की शायद ही अब कहीं देखने को मिलती होगी, गुजरे जमाने में जीवन जीने का यह
मुख्य आधार हुआ करती थी. पहाड़ में मानव सभ्यता के विकास की ये तकनीक सबसे प्राचीन है. यहां की जीवन शैली में इसे आम भाषा में घराट (Gharat) या घट्ट कहा जाता है और हिंदी में पनचक्की यानी पानी से चलने वाली चक्की. ये पूर्ण रूप से हमारे चारों ओर के पर्यावरण के अनुकूल होते थे, इसका निर्माण हमारे बुजुर्गों ने अपनी सुविधा के अनुसार किया है, जिस जगह पानी की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता रही, वहीं इसका निर्माण किया, खासकर नदी या सदाबहार गाढ़ गदेरे में इसका निर्माण हुआ है. एक समय वह भी था जब हर गांव का अपना एक घराट होता हुआ करता था, चाहे वो किसी एक व्यक्तिगत परिवार का रहा हो, पूरे गांव के लोग उसी घराट में अपना गेहूं, जौ, मक्का, झंगोरा या पीसने का जो भी होता था सब घराट में पिसा जाता था.पर्यावरण
घराट की कार्य प्रणाली पूर्ण रूप से पानी के बहाव पर निर्भर करती है जैसा पानी का वेग/प्रवाह होगा, घराट वैसा ही काम करेगा. पानी की एक निश्चित मात्रा घराट चलाने में
उपयोग में लाई जाती है, घराट चलाने के लिए कम से कम 300-400 मीटर दूर से गूल का निर्माण किया जाता है और ये गूल पीछे से चौड़ी और आगे से संकरी होती है जिससे पानी में वेग वो उत्पन्न हो, इस गूल द्वारा पानी को पनाल (लड़की से निर्मित सीढ़ीनुमा) की ओर प्रवाहित किया जाता है इस कारण पानी का प्रवाह तेज हो जाता है, इस प्रवाह के नीचे पंखेदार चक्र (घिरनी) भेरण लगी होती है, उसके ऊपर चक्की पर दो पाट रखे जाते हैं, ये पत्थर के बने होते हैं.पर्यावरण
पंखे के चक्र के बीच का
हिस्सा व ऊपर उठा नुकीला भाग ऊपरी चक्के के खांचे में निहित लोहे की खपच्ची में फंसाया जाता है. पानी के वेग से ज्यों ही भेरण घूमने लगती है चक्की का उपरी हिस्सा घूमने लगता है पिसाई के पाट के ऊपर लकड़ी का एक शंकु के आकार का एक पात्र बना होता है ऊपर से चौड़ा और नीचे से संकरा होता है संकरे हिस्से में लकड़ी की नाली लगाई जाती है जिससे कि अनाज लकड़ी के नाले से होकर चक्की वाले पाट के छिद्र में ही गिरे व अनाज की पिसाई सही ढंग से हो सके.पर्यावरण
आधुनिक तकनीक ने नई-नई चक्कियों का
निर्माण तो कर दिया है साथ ही सुविधाजनक चक्कियों का भी, जिससे ये प्राचीन तकनीक पीछे हो गई है पर घराट में पिसे आटे और बिजली से चलने वाली चक्कियों के पिसे आटे के स्वाद और शुद्धता और गुणवत्ता में काफी अंतर होता है और ये अनुभव सिर्फ वो लोग कर सकते है जिसने उस स्वाद को चखा है.पर्यावरण
पुराने समय में लोगो के पास
पैसा कम था, वस्तु विनिमय का प्रचलन भी था घराट में लोग पिसाई के रूप में पैसा नहीं आटा देते थे, जिससे घराट चलाने वाले व्यक्ति के परिवार का भरण पोषण होता था और पीसने वाले परिवार का भी, यानी आपसी भाईचारे का भाव भी था. आज हालात ये है आपदा से कई नदियों के पानी का रुख बदल जाने से कई गांव के घराट आपदा का शिकार हो चुके हैं और कई गाढ़-गदरे सुख चुके हैं.पर्यावरण
लोगों को अपनी सुविधा के
अनुसार बिजली वाली चक्कियों में आटा पीसना आसान लगता है, उनको लगता है कि उनका समय बचेगा पर कहीं न कहीं वो घराट में पिसे आटे के स्वाद से बंचित रह गए हैं, पर अभी भी कुछ ऐसे गांव है जो इस घराट को जिंदा रखे हुए है उदाहरण के लिए टिहरी जिले का जौनपुर विकासखंड और देहरादून का कालसी, चकराता ब्लॉक और उत्तरकाशी के नौगांव विकासखंड में कुछ एक जगह ऐसी है जहां ये आज भी देखने को मिलते है.पर्यावरण
जौनपुर विकासखंड के जिला
पंचायत सदस्य अमेंद्र बिष्ट जी ने पर्यटन के लिहाज से इस घराट के जीर्णोद्धार का काम भी करवाया है और उनके इस काम की लोग और बाहर से आने वाले पर्यटक भूरि-भूरि प्रशंसा करते है.(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)