कहानी
- एम. जोशी हिमानी
चनी इतनी जल्दी सारी खीर खा ली तूने? ‘‘नही मां मैने खीर जंगल के लिए रख ली है. दिन में बहुत भूख लगती है वहीं कुछ देर छांव में बैठकर खा लूंगी. अभी मैंने सब्जी रोटी पेट भर खा ली है. मां आप प्याज की सूखी सब्जी कितनी टेस्टी बनाती हो. मैं तीन की जगह पांच रोटी खा जाती हूँ फिर भी लगता है कि पेट नही भरा…’’
भगवती समझी की पीपल पानी होने के कुछ दिन बाद यह शहर में पली लड़की कहां इस पिछड़े गांव में रह पायेगी. चली जायेगी अपने मायके. कहा भी जाता है- ‘‘तिरिया रोये तेरह दिन माता रोये जनम भर.’’ भगवती का विश्वास झूठा साबित हो रहा था. चनी को शायद जनम भर-यहीं पर रोना मंजूर था.
चनी अपनी सास भगवती को अपनी मीठी बातों से खुश कर देती है. अपनी सास के साथ चनी का बहुत प्यारा रिश्ता बन गया है. सास को जब वह मां कहती है तो भगवती को बेटे का गम काफी हद तक कम हो जाता है. ऐसे वक्त में भगवती खुद पर शर्मिंदा भी होती है. जब चनी से विवाह के दो साल बाद ही उसके बेटे पवन की दिल्ली में अचानक पीलिया होने से मृत्यु हो गई थी, भगवती ने तब दिल्ली में रह रही इस बहू को पानी पी पी कर कोसा था कि उसने पवन यानी अपने पति की ठीक से देखभाल नहीं की. वह चनी को वापस अपने पास रखना ही नही चाहती थी. कौन पच्चीस बरस की जवान विधवा बहू की जिम्मेदारी लेगा. बेटा नहीं रहा तो बहू से क्या लेना-देना. मगर चनी तो गोद में खेलने वाली साल भर की बच्ची को लेकर पति की लाश के साथ सीधे गांव ही आ गई थी. भगवती समझी की पीपल पानी होने के कुछ दिन बाद यह शहर में पली लड़की कहां इस पिछड़े गांव में रह पायेगी. चली जायेगी अपने मायके. कहा भी जाता है- ‘‘तिरिया रोये तेरह दिन माता रोये जनम भर.’’ भगवती का विश्वास झूठा साबित हो रहा था. चनी को शायद जनम भर-यहीं पर रोना मंजूर था.
चनी ने सास की दी हुई खीर को बड़े जतन से केले के पत्ते मे लपेटकर घास लाने वाली टोकरी में रख लिया था. वह कस्यालेक के अपने गांव के ऊपर जंगलों में जब भी घास काटने जाती पहाड़ी पर बने शिव मंदिर के नीचे बनी गुफा मे रहने वाले बाबा से मिलने जरूर जाती. साथ में बाबा के लिए अपने हिस्से के पकवान, पेड़ों से तोड़कर ताजे फल या मिठाई जो भी उस समय संभव होता छुपाकर ले जाती थी.
‘‘बाबा आंखे खोलो मैं तुमसे मिलने आयी हूँ. जानते हो ना मेरे पास बहुत कम समय होता है यहां रूकने का…’’
बाबा ध्यान में होते तो भी चनी की किसी बच्ची जैसी भोली वाणी सुनकर आंखे खोल देते. वे मुस्कुरा उठते चनी को देखकर. चनी गुफा के बाहर से उनको प्रणाम करती और अपनी लायी चीजें उनकी तरफ सरका देती. वह उनको एकटक देखती रहती. उसे बाबा की रहस्यमयी आंखो को देखकर ऐसा लगता जैसे वह अपने मरे हुए बाबूजी को देख रही है. कभी उसे लगता जैसे उसके बाबू जी की आत्मा बाबाजी के अंदर प्रवेश कर गई है और उनकी आंखों से वे अपनी चनी को देख रहे हैं.
बाबा के पुनः आखें बंद करते ही समझदार चनी उसे अपने लिए चले जाने का इशारा समझकर कुछ उदास सी कुछ खुश सी घास काटने के लिए दूसरी पहाड़ी की तरफ मुड़ जाती है. घंटों घास काटने के बाद उसको पेट में तेज मरोड़ उठती है, भूख की मरोड़. खीर, फल वह सब कुछ बाबा को दे गयी थी. अपने लिए उसने कुछ बचाया ही नहीं. अभी सर पर घास का बड़ा सा गट्ठर लेकर पहाड़ी से नीचे उतरने में उसे घंटा भर लग जायेगा. क्या करे चनी अब. वह सोचने लगती है. सास से उसने सुबह झूठ ही बोला था कि उसने प्याज की सब्जी के साथ खूब सारी रोटियां खाई हैं. सच तो यह था कि बाबा से मिल पानें की खुशी में उसने जल्दी-जल्दी दो ही रोटियां खाई थी. वह जल्दी से खड़ी धार सुबह ठंडे में चढ़ जाना चाहती थी, वरना ऊपर रोड किनारे चाय की दुकान में नौ बजे के बाद तो गांव के लफाड़ियों और रात भर दारू के नशे में टुन्न रहने के बाद होश में आये दारूबाजों का जमघट लगने लग जाता था. वह सोचती दिल्ली के शोहदों से किसी मायने में कम न थे यहां के शोहदे. साीधे हाथ डालने की हिम्मत भले ही ये न करते हों परंतु अपनी गंदी जबान से ये आने-जाने वाली औरतों को छलनी कर देते थे.
भगवती उसे जब कभी सावधानी बरतने और एक विधवा औरत की हालत के बारे में आंखों में आंसू भरकर भर्राये गले से कुछ कहने की कोशिश करती तो वह उसे चुप करा देती. ‘‘मां मेरे हाथ की यह दंराती कब काम आयेगी? किसी ने चूं भी की न तो उसकी गरदन उतारकर उसी के हांथ में रख दूंगी…’’
सास बेचारी फिक्र के मारे मर जायेगी और चनी को अकेले बाहर नहीं निकलने देगी सोचकर वह खून के घूंट पीकर रह जाती और सास को शोहदों की हरकतों के बारे में कुछ न बताती थी. भगवती उसे जब कभी सावधानी बरतने और एक विधवा औरत की हालत के बारे में आंखों में आंसू भरकर भर्राये गले से कुछ कहने की कोशिश करती तो वह उसे चुप करा देती. ‘‘मां मेरे हाथ की यह दंराती कब काम आयेगी? किसी ने चूं भी की न तो उसकी गरदन उतारकर उसी के हांथ में रख दूंगी…’’
चनी को मालूम था कि सास का मन मजबूत करने के लिए वह यह सब कहती है वरना अंदर से सुरक्षित वह खुद को कब समझती है. कितनी बार उसने उन शोहदों को पीछे से अपने ऊपर फिकरे कसते सुना है-’’अभी हम जवान हैं, हम मर गये क्या जो अपनी जवानी इस तरह बरबाद कर रही हो…’’
अपने हीं गांव बाड़े के रिश्ते में चाचा ताऊ लगने वाले उन नशेड़ियों पर एक बार दराती लेकर वह दौड़ पड़ी थी तो सब के सब बंदर की तरह कूदते हुए नीचे अंधेरे की तरफ भाग गये थे- ‘‘अरे बचाओ इस रांड से कोई. पागल हो गई है यह…’’
चनी आसमान की तरफ देखती और फिर अपनी पहाड़ी की तरफ देखती है, अभी दिन काफी बाकी है और घास काटकर सुखाने के लिए पहाड़ी का बड़ा हिस्सा आभी बाकी है. सास बेचारी अकेले घर का काम जानवरों का चारा पानी आलू खुदाई का काम अकेले कर रही होगी. वह बेचारी पैर में तकलीफ के कारण इतनी ऊँचे चढ़ भी नही पाती है इसलिए जंगल का सारा काम चनी को करना पड़ता है.
चनी से अब भूख-प्यास बर्दास्त नही हो रही है. वह सोचती है बाबा की गुफा तक हो आऊँ, क्या पता बाबा कुछ प्रसाद दे दें. थोड़ा सा गुड़ या एक कुंजी मिश्री भी दे देगें तो वह पास के झरने पर ठंडा पानी पी लेगी पेट भर. पानी पी लेने से भी भूख का आवेग कुछ देर को शांत हो जायेगा. इसी बहाने वह बाबा के दर्शन भी दोबारा कर लेगी.
लगभग आधा मील की चढ़ाई वह बिना रूके एक सांस में चढ़ गई थी. दोपहर ढलने को थी. उसने गुफा में झांका बाबा गायब थे. बाहर गहरा सन्नाटा था. इस ढलती दोपहर में ही जंगल के बीच से झींगुरों के बोलने की झीं-झीं की आवाज आ रही थी. चनी के बदन में झुरझुरी होने लगती है.
पहली बार उसे वहां पर डर का अहसास होता है. कुछ देर वह जड़ सी गुफा के बाहर खड़ी रह जाती है. उसे अपना गला सूखता महसूस होता है. वह समझ नही पा रही है कि गला डर से सूख रहा है अथवा भूख-प्यास से. आज उसे सास की नसीहतें याद आ रही हैं- ‘‘बेटा बिना मरद की औरत सर कटे धड़ की तरह होती है.’’ कभी वह कहा करती-‘‘बेटा औरत चाहे साठ बरस की हो जाय फिर भी उसे सबसे पहले अपनी हिफाजत करनी चाहिए क्योंकि वह सदा औरत ही रहती है…’’
उस घनघोर सन्नाटे में उसे एक एक कर सास की कही सारी बातें, शोहदों के कहे सारे फिकरे याद आने लगते हैं.
‘‘चन्द्रा! मुझसे डरो मत. डरने के लिए संसार काफी है. डरना है तो उससे डरो. तुम पुण्यात्मा हो, मैं वर्षों से यहां तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ. तुम योगमार्ग से भटकी हुई पिछले जन्म की योगिनी हो, जो दण्डस्वरूप इस देह में सांसारिक कष्ट भोग रही हो…’’
वह सन्न सी वापस नीचे को दौड़ लगाने को मुड़ती ही है कि जंगल के बीच से अचानक बाबा को गुफा की तरफ आते देखती है. वह भयमिश्रित आश्चर्य से थर-थर कांपने लगती है. वह भाग नही पाती अपनी जगह पर थिर खड़ी रह जाती है. आज बाबा जी उसे अपने बाबूजी जैसे नही लगते, वे एक अनजान पुरुष से लगते हैं. जिससे इस घने जंगल में दुनिया की किसी भी औरत का डर जाना लाजिमी है. बाबा की भव्य ऊँची धवल कद काठी से वह भीतर-भीतर आतंकित हो उठती है. क्योंकि उसने पहली बार बाबा को सम्पूर्णरूप में देखा था वरना गुफा के भीतर बाबा की थोड़ी सी झलक ही मिलती थी जिससे उनकी उम्र का ठीक ठाक अंदाज नहीं लगता था.
बाबा भयभीत चनी की दशा देखकर ठठाकर हंस पड़ते हैं.
‘‘चन्द्रा! मुझसे डरो मत. डरने के लिए संसार काफी है. डरना है तो उससे डरो. तुम पुण्यात्मा हो, मैं वर्षों से यहां तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ. तुम योगमार्ग से भटकी हुई पिछले जन्म की योगिनी हो, जो दण्डस्वरूप इस देह में सांसारिक कष्ट भोग रही हो…’’
चनी आश्चर्य से मूर्छित सी हो रही है कि बाबा को उसका नाम कैसे मालूम जो उसके बाबूजी ने उसे दिया था. वरना उसका असली नाम तो अब कोई लेता ही नहीं सबने छोटा करके उसे चनी बना दिया है. वह खुद भी भूल गई है कि उसका असली नाम चन्द्रा है, चन्द्रकिरण.
वह अभिमंत्रित-सी गुफा के बाहर पत्थर पर बैठ जाती है. बाबा गुफा के अंदर ध्यान में लीन हो जाते हैं. उसे अब भूख प्यास की कोई वेदना नहीं रह जाती है. उसके नेत्र खुद-ब-खुद बंद हो जाते हैं.
वह कुछ ही देर में असीम आनंद का अनुभव करने लगती है. वह चनी अपनी बेटी निर्मला, सास भगवती, नीचे गांव के शोहदों, अपने मृत पति, पिता सबको कुछ देर के लिए भूल जाती है.
वह पूरी तरह होशो हवास में है और यहां से जल्द भागकर घास का गट्ठर लेकर नीचे गांव की तरफ दौड़ लगाना चाहती है. परंतु नाकाम. पूरी शक्ति लगाने के बाद भी वह उस पत्थर से उठ नहीं पाती. जैसे वह पत्थर न होकर कोई चुम्बक हो और चनी हाड़ मांस की न होकर लोहे की बन गई हो.
चनी के नेत्र न जाने कब से बन्द हैं उसे अपने खुले कानों से बाहर अंधेरा घिर आने का आभास हो जाता है. वह सप्रयास आंखे खोल देती है. बाहर चारो तरफ गहरा काला अंधेरा छाया हुआ है. जंगल के पेड़ उसे किसी भूत से नजर आने लगते है. उसके लिए अंधेरे में खुद को देख पाना भी मुश्किल हो गया है. उसे याद आता है आज तो अमावस की रात है. वह भय और चिंता के मारे पसीना-पसीना हो उठती है. चारो तरफ बह रही ठंड़ी हवायें भी उसका पसीना नहीं सुखा पाती. बाबा के ऊपर उसे पहली बार आज भयंकर गुस्सा आने लगता है. कहीं यह कोई पाखंडी तो नही है. इस अंधेरे में उसका शील हरण तो न कर देगा यह मायावी. कैसे लौट पायेगी अब वह अपने गांव तक. उसके अब तक घर न लौटने से गांव में तरह-तरह की चर्चा शुरू हो गयी होगी. उसके घर पर कोहराम मचा होगा.
चनी भयमिश्रित क्रोध से गुफा की ओर देखती है. आश्चर्यजनक रूप से गुफा के अन्दर चमकदार उजाला फैला हुआ है. गुफा के एक कोने में नन्हा सा दीपक जल रहा है. चनी हतप्रभ है कि इतना नन्हा दीपक भी कहां से इतनी रोशनी दे रहा है. उस रोशनी में ध्यानमग्न बाबा का चेहरा कभी दमकते सूरज सा दिखता है चनी को, कभी पूर्णमासी के चन्द्रमा जैसा पूर्ण और प्रकाश से भरा हुआ.
चनी के लिए समझ पाना नामुमकिन है कि वह गुफा से आगे खुद बढ़ रही है सशरीर अथवा उसकी आत्मा. बहुत हल्की आनंदाकाश में उड़ती सी चनी गुफा के अंदर के संकरे रास्तो में मीलों चलने के बाद एक खुले विशाल मैदान में पहुंच जाती है जहां से उस घने अंधेरे में भी चनी को हिमालय के विहंगम दृश्य साफ साफ नजर आने लगते हैं.
चनी जैसे सम्मोहन में चली गयी थी. उसकी अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नही रह गया था. वह न चाहते हुये भी जोर-जोर से रोने लगती है. उसके रोने की आवाज पूरे जंगल की शांति को भंग कर देती है. जंगल के सोय हुये पंछी फड़फड़ाने लगते हैं. पेड़ों पर नींद में चले गये बंदर डालों पर उछल कूद मचाने लगते हैं. दूर कहीं शेर के दहाड़ने की आवाज आने लगती है.
चनी अचानक महसूस करती है कि अंधेरे में किसी ने उसके माथे को अपने अंगूठे से जोर से दबा दिया है, तत्काल उसका रूदन, भय, क्रोध, चिंता सब गायब हो जाती है. चनी अनदेखी अलौकिक दुनियां में प्रवेश कर जाती है. वह उस अंगूठे के सहारे बाबा की गुफा में ध्यानस्थ बाबा के चरणों का स्पर्श कर आगे बढ़ जाती है.
चनी के लिए समझ पाना नामुमकिन है कि वह गुफा से आगे खुद बढ़ रही है सशरीर अथवा उसकी आत्मा. बहुत हल्की आनंदाकाश में उड़ती सी चनी गुफा के अंदर के संकरे रास्तो में मीलों चलने के बाद एक खुले विशाल मैदान में पहुंच जाती है जहां से उस घने अंधेरे में भी चनी को हिमालय के विहंगम दृश्य साफ साफ नजर आने लगते हैं. वह खुशी के मारे बड़ा ही खूबसूरत नृत्य करने लगती है. चनी साफ-साफ याद भी कर रही है कि उसे तो नृत्य के नाम पर हाथ हिलाना भी नहीं आता है तो वह इस समय इतना सुंदर नृत्य कैसे कर पा रही है.
कुछ ही समय बाद चनी को महसूस होता है कि वह आसमान में पंछी की तरह उड़ भी सकती है. वह खुशी के मारे पागल हो गयी है. उसके पंख नहीं लगे हैं फिर भी वह हिमालय के ऊपर उड़ रही है. हिमालय के ऊपर चनी विशाल झीलों, उनमें खिले नीलकमलों, हिमालय से निकलती सरितायें, वहां तपस्यारत अनेक ऋषियों को देख पा रही है. वह अपनी आंखे खोलने के लिए बहुत जोर लगाती है लेकिन आंखे है कि खुलती ही नहीं शायद किसी फेवीकोल से चिपका दी गई हैं.
चनी को कुछ पता नहीं कि वह रात्रि के कितने प्रहर तक इस खुले आसमान के नीचे इतनी ठंड में इस सख्त पत्थर के ऊपर बैठी रह गई है. वह पत्थर उसके लिए उस समय गरम, मुलायम आसन की अनुभूति दे रहा था. अचानक उसे महसूस होता है कि वह कहीं नहीं गयी थी वह घंटों से उसी पत्थर में बैठी है. शायद उसने कोई सपना देखा था जिसमें वह गुफा के रास्ते हिमालय में उड़ गई थी.
जंगल में शेर की भयानक दहाड़ से उसकी तन्द्रा कुछ देर को टूटती है. कुछ देर बाद स्वतः उसकी आंखे बंद हो जाती हैं. बंद आंखों से वह देखती है कि उस जंगल में भयानक आग लगी है. आग फैलते फैलते उसके गांव तक पहुंच गयी है. उस आग में सब जल रहे हैं. चारो तरफ हाहाकार मचा है केवल गुफा में बाबा और बाहर चनी बच गये हैं.
क्षितिज में कुछ कुछ रोशनी फैलने लगी है. शायद भगवान भाष्कर अपनी यात्रा शुरू करने के लिए अपने रथ पर आरूढ़ हो गये हैं.
चनी की आंखे अनायास खुल जाती है. यूं तो वह जब से अपनी ससुराल के इस गांव में आई है उसकी सास ने ध्रुवतारा निकलने के बाद उसे कभी सोने नहीं दिया है. भोर में उत्तर दिशा में धु्रवतारा दिखने के बाद सोते रहने से घर में दरिद्रता का वास होता है और उस घर से देवी-देवता हमेशा रूठे रहते हैं.
भोर के धुंधलके में चनी खुली आंखों से देखती है, बाबा झक सफेद वस्त्रों में उसके ऊपर हल्की सी निगाह डालकर घने जंगलों की तरफ बढ़ रहे हैं. बहुत ही विशिष्ट चाल थी उनकी वे पीछे से भी किसी देवपुरूष से लग रहे थे. चनी मन में यही सोचती है कि बाबा शायद नित्यकर्म के लिए जंगल की तरफ जा रहे हैं.
चनी के सिर पर धूप पहुंच गई है. वह खुली आंखों से आंखे फाड़-फाड़ कर देख रही है. गुफा के अंदर न तो दीपक की रोशनी है न उसमें किसी के कभी निवास करने के निशान दिख रहे हैं. गुफा झाड़ियों से भरी हुई है. देखने से लग रहा है वर्षों से उसके अंदर इंसान तो क्या कोई जानवर भी नहीं गया होगा.
नीचे गांव की तरफ से ऊपर आने वाली चढ़ाई में उसे भारी शोरगुल सुनाई पड़ता है. चनी समझ जाती है गांव वालों का झुंड उसी की खोज में ऊपर आ रहा होगा. वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी पत्थर से हिलती भी नहीं है. वह समझ पाने में असमर्थ है कि उसके साथ जो कुछ रात्रि में हुआ था वह सत्य था या यह सत्य है. कुछ ही देर में लोगों की आवाजें उसके कानों तक टकराने लगती है.
‘‘चनी. ओ चनी. ओ पवन की दुल्हैनी. तुम जिंदा हो या मर गई हो?’’ कुछ लोग आपस में हंसी ठिठोली भी कर रहे हैं- ‘‘अरे यार कल रात में शेर की भयंकर दहाड़ सुनी नहीं तुम लोगों ने क्या ? अब उसकी हड्डियां भी मिल जायें तो बड़ी बात है…’’
चनी को साबुत सामने पाकर अब बेहोश होने की बारी उन सात-आठ लोगों की थी जो उसकी लाश की आस में यहां तक पहुंचे थे. उनमें धार की चाय के टिप्पड़ पर बैठनें वाले कुछ वे लोग भी शामिल थे जो चनी को परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे.
कुछ देर की आश्चर्यमिश्रित खामोशी के बाद एक आवाज उनके बीच से जंगल के सन्नाटे को तोड़ती हुई गंूजी थी-‘‘रात भर यह छिनाल इस जंगल में यहां किसके साथ रही और क्या करती रही?……..’’
चनी ने बिना कोई जवाब दिये आग्नेय नेत्रों से उनकी तरफ निगाह डाली और अपने पास रखे डंडे के सहारे उठने की कोशिश करती है. उसे अब अपने शरीर में बहुत कमजोरी सी महसूस हो रही है. वह बहुत चिंचित भी है कि घर पर उसकी सास रो-रो कर अपना सर पीट रही होगी. उसने एक काम समझदारी का किया है कि अपनी बेटी को उसने अपने पास नहीं रखा है. बेटी बचपन से ही दिल्ली में अपनी नानी के पास रह रही थी.
अपने साथ घटित कल रात की अनोखी घटना, भूख, प्यास, चिंता सारी बातें अब चनी पर हावी हो रही है. वह लड़खड़ाते हुए उठने की कोशिश करती है कि दो-तीन हाथ दारू का भभका छोड़ते हुये उसको उठाने के लिए लपक पड़ते हैं. और उठाने के बहाने चनी के शरीर में यहां-वहां हाथ लगाने की कोशिश करने लगते हैं.
वह कृतज्ञता भरी निगाहों से गुफा की तरफ देखती है साथ में पछताती भी है कि सुबह जंगल में विलीन होते बाबा के उसने पैर क्यों नहीं पकड़ लिये, कौन थे वे रहस्यमय बाबा, क्या इस रहस्य को वह कभी सुलझा पायेगी?
चनी के अंदर जैसे रणचंडी अवतरित हो उठती है. वह लात घूंसों से उनकी धुनाई कर देती है. उसका यह रूप और हाथ के डंडे को देखकर बचे लोगों में भगदड़ मच जाती है. नीचे को सरपट भागते हुये हांफते और खी-खी करते हुए जंगल में उनकी आवाज गूंज रही है- ‘‘चनी मैया की जय हो.’’
चनी मुस्कुराते हुये निश्चिंत सी घर की ओर की चढ़ाई उतर रही है. उसे अब कोई भय नहीं. वह कृतज्ञता भरी निगाहों से गुफा की तरफ देखती है साथ में पछताती भी है कि सुबह जंगल में विलीन होते बाबा के उसने पैर क्यों नहीं पकड़ लिये, कौन थे वे रहस्यमय बाबा, क्या इस रहस्य को वह कभी सुलझा पायेगी? क्या किसी को विश्वास दिला पायेगी कभी कि उसके साथ उस रात क्या हुआ था? कौन मानेगा उसकी बात को? वह खुद भी क्या समझ पायेगी कभी कि यह सब उसी के साथ घटा था?
लेखिका पूर्व संपादक/पूर्व सहायक निदेशक— सूचना एवं जन संपर्क विभाग, उ.प्र., लखनऊ. देश की विभिन्न नामचीन पत्र/पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक कहानियाँ/कवितायें प्रकाशित. कहानी संग्रह-‘पिनड्राप साइलेंस’ व ‘ट्यूलिप के फूल’, उपन्यास-‘हंसा आएगी जरूर’, कविता संग्रह-‘कसक’ प्रकाशित)
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