- दीपशिखा गुसाईं
मायके से विशेष रूप से आए उपहारों को ही ‘भिटौली’ कहते हैं। जिसमें नए कपड़े, मां के हाथों से बने कई तरह के पकवान आदि शामिल हैं। जिन्हें लेकर भाई अपनी बहिन के घर ले जाकर उसकी कुशल क्षेम पूछता है। एक तरफ से यह त्यौहार भाई और बहिन के असीम प्यार का द्योतक भी है।
पहाड़ की अनूठी परंपरा ‘भिटौली’
‘अब ऋतु रमणी ऐ गे ओ चेत क मेहना,
भटोई की आस लगे आज सोरास बेना…’
यह गीत सुन शायद सभी पहाड़ी बहिनों को अपने मायके की याद स्वतः ही आने लगती है, ‘भिटौली’ मतलब भेंट… कुछ जगह इसे ‘आल्यु’ भी कहते हैं। चैत माह हर एक विवाहिता स्त्री के लिए विशेष होता है। अपने मायके से भाई का इंतजार करती, उससे मिलने की ख़ुशी में बार—बार रास्ते को निहारना… हर दिन अलसुबह उठकर घर की साफ—सफाई कर अपने मायके वालों के इंतजार में गोधूलि तक किसी भी आहट पर बरबस ही उठखड़े होना शायद कोई आया हो।
मायके से विशेष रूप से आए उपहारों को ही ‘भिटौली’ कहते हैं। जिसमें नए कपड़े, मां के हाथों से बने कई तरह के पकवान आदि शामिल हैं। जिन्हें लेकर भाई अपनी बहिन के घर ले जाकर उसकी कुशल क्षेम पूछता है। एक तरफ से यह त्यौहार भाई और बहिन के असीम प्यार का द्योतक भी है।
बसंत ऋतू के आगमन पर चैत्र माह की संक्रांति ‘फूलदेई’ के दिन से बहिनो को भिटौली देने का सिलसिला शुरू हो जाता है। बसंत से छाई हरियाली, कोयल, न्योली और अन्य पक्षियों की मधुर कलरव, सरसों, फ्योंली के फूलों को घर—घर जाकर फूलदेई मनाना… बरबस ही सभी बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं।पहाड़ों में यह परम्परा रही है कि जो मायके से काल्यो भटौली आती हैं उसे आस—पड़ोस से लेकर पूरे गांव में बांटा जाता है। अभी भी कई जगह यह रिवाज और परम्परा जीवंत है।
पिथौरागढ में भिटौली से संबन्धित एक और त्यौहार मनाया जाता है— चैंतोल। चैत के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्यौहार में एक डोला निकलता है। मुख्य डोला पिथौरागढ़ के समीपवर्ती गांव चहर/चैसर से निकलता है।
पिथौरागढ में भिटौली से संबन्धित एक और त्यौहार मनाया जाता है— चैंतोल। चैत के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्यौहार में एक डोला निकलता है। मुख्य डोला पिथौरागढ़ के समीपवर्ती गांव चहर/चैसर से निकलता है। यह डोला 22 गांवों में घूमता है। चैंतोल का यह डोला भगवान शिव के देवल समेत अवतार का प्रतीक है जो 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। हर मन्दिर पर पैदल पहुंच कर देवल समेत देवता ‘धामी’ शरीर में अवतार होकर के अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।
आज समय बदलने के साथ-साथ इस परंपरा में भी काफी कुछ बदलाव आ चुका है। शहरो में अब ये औपचारिकता मात्र रह गयी है। कुछ लोग तो इस परंपरा की भूल चुके हैं या फ़ोन पर बात करके या कोरियर से गिफ़्ट या मनीआर्डर/ड्राफ़्ट से अपनी बहनों को रुपये भेज कर औपचारिकता पूरी कर देते हैं। लेकिन गांवों में यह परंपरा आज भी जीवित है।
अपनी परंपरा बिलकुल भी नहीं भूलनी चाहिए बल्कि हमारे बच्चों को गर्व से उत्तराखंड और यहां के त्योहारों के बारे में जरूर बताना चाहिए। ये भी बताना चाहिए की उत्तराखंड देव भूमि के साथ साथ प्रकृति की एक अनुपम देन है, जिस पर हम सभी उत्तराखंडवासियों को गर्व होना चाहिए।
घुगुती घुरोण लागी म्यार मैत की..
बौडी बौडी आयी गे ऋतू, ऋतू चेत की..
घुगुती घुरोण लागी म्यार मैत की..
(लेखिका ‘अपनत्व’ सामाजिक संस्था की को-फाउंडर हैं तथा लेखन में रूचि, अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित)