सांस्कृतिक, धार्मिक और पहाड़ी धरोहर की प्रतीक ‘पहाड़ी गागर’

5 ‘ज’ पर निर्भर है पहाड़ी जीवन- शैली

आशिता डोभाल

मानव सभ्यता में जल, जंगल, जमीन, जानवर और जन का महत्वपूर्ण स्थान रहता है यानी कि हमारी जीवन-शैली 5 तरह के ‘ज’ पर निर्भर रहती है और ये सब कहीं न कहीं हमारी आस्था because और धार्मिक आयोजनों के प्रतीक और आकर्षण के केंद्र बिंदु भी होते है और सदियों से ये अपना स्थान यथावत बनाए हुए है।

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आज आपको पहाड़ की एक ऐसी धरोहर की खूबसूरती से रू-ब-रू करवाने की कोशिश करती हूं जो अपने आप में खूबसूरत तो है, हमारी समृद्ध संस्कृति और संपन्न विरासत को भी because अपने में समाए हुए है. ये महज एक बर्तन नहीं बल्कि हमारी धरोहर है, जिसे हमारे बुजुर्गों ने हमे सौंपा है. ये अपने में कहावतों को भी समाए हुए हैं, ऐसी ही एक धरोहर है जिसका पहाड़ की रसोई में महत्वपूर्ण स्थान है उसका नाम है ‘गागर’.

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गागर में सागर जैसी कहावत को सुनने से प्रतीत होता है कि ये जो गागर है वाकई में कई मायनों में अपने अंदर बहुत सारी खूबसूरती को समेटे हुए है. पहाड़ की संस्कृति और लोक जीवन में अनेकों अनेक रंग हमारी जीवनशैली को, हमारे लोक को दर्शाते हैं, because उसमे हमारी आस्था, विश्वास और संस्कृति से गहरा लगाव किसी से छुपा नहीं है.

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एक समय था जब लोग पानी भरने घर गांव से लगभग एक या आधा किलोमीटर दूर से पीने का शुद्ध पानी भरकर लाया करते थे और गांव की बसायत पानी के स्रोत से लगभग दूरी ही हुआ because करती थी जिसके बहुत सारे कारण भी रहे होंगे हो चाहे हमारे स्वास्थ या स्वच्छता के हिसाब से रहा होगा, धर्मिक मान्यताओं की वजह से या कुछ और ये बता पाना थोड़ा मुश्किल है.

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घरेलू काम में सुबह उठकर सबसे पहले ताजा पानी भरना रोज का नियम होता था और ये दिन का सबसे पहला और महत्वपूर्ण काम भी था. गागर में पानी भरकर लाना वो भी कम मुश्किल काम नहीं था पर पहाड़ी जीवनशैली में उतना मुश्किल भी नहीं क्योंकि हम लोग रोजमर्रा की जीवन शैली में इन कामों को आसानी से कर लेते हैं. because एक समय वो भी था जब लोग पहाड़ में फिल्टर और आर वो जैसी तकनीक से बिल्कुल भी अनजान थे, लोग परिचित थे तो सिर्फ गागर से या मिट्टी के घड़े से. लोगों ने अपनी बसायत के लिए ऐसी जगह का चयन किया रहता था जहां पर 12 महीनों पानी की जलधारा बहती हो, जो कभी दूषित न हो बल्कि मौसम के अनुसार सर्दियों में गरम और गर्मियों में ठंडे पानी की बहने वाली धारा वाले स्रोत होते थे और ऐसे पानी को गागर में भरा जाए तो उसका स्वाद और मीठा हो जाता था.

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आज समस्या इस बात की है कि न जल श्रोत बचे न गागर घर के अंदर दिख रही है क्योंकि जल संस्थान और जल जीवन मिशन और न जाने सरकारी महकमे की बड़ी-बड़ी योजनाओं ने हमारे जल स्रोतों और हमारी गागर को निगल लिया है, क्योंकि जल धाराओं के जीर्णोद्वार के नाम पर सीमेंट और कंक्रीट के निर्माण से जल स्रोत सुख गए हैं, जब जल धाराएं ही नही बची तो गागर भी क्यों बचेगी.

सरकार का दावा है कि हर घर में पानी के because नल पहुंचा दिए जाएंगे बल्कि नल तो पहुंच गए पर पानी नहीं पहुंचा और यदि पानी पहुंच भी जाए तो उसकी स्वछता की कोई गारंटी नहीं है बल्कि बरसात में कीड़े मकोड़ों का नल से निकलना आम बात है, जिससे पहाड़ के घरों में गागर जैसा बर्तन तो नहीं दिख रहा है बल्कि उसकी जगह फिल्टर और आरवो जैसी तकनीक ने ले लिया है. गागर सिर्फ पहाड़ी गानों में में शादी ब्याह और धार्मिक आयोजनों में एक रस्म अदायगी के रूप में दिखती है.

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लोग बेटी को दहेज में गागर तो देते है पर उसके महत्व को समझाने का एक छोटा-सा प्रयास भी कर लें तो आज इस बर्तन की उपयोगिता हमारी रोजमर्रा की जीवनशैली में हो सकती है, जो कि हमारे स्वास्थ्य के हिसाब से बहुत अच्छा साबित हो सकता है विवाह संस्कार के सम्पूर्ण होने में भी गागर का विशेष महत्व है. नववधु के because आगमन पर धारा पूजने की रस्म और फिर उसी जल स्रोत से तांबे की  गागर में जल भरकर घर ले जाना उस गागर के महत्व को बतलाता है. समय बदला है आज तांबे की गागर की जगह प्लास्टिक के गागर नुमा बर्तन भी गाँव में देखे जा सकते हैं.

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आज जब पानी की पाइप लाइन ने पानी को घर घर पहुंचा दिया है तो पानी की स्वच्छता और गुणवत्ता में फ़र्क आया है. पानी के स्रोतों की साफ-सफाई न होने से कई बार हम कई तरह because की बीमारियों से ग्रसित होते रहते हैं,  क्योंकि बहुत सारी बीमारियों का एक ही कारण होता है और वो है दूषित पानी. आज अगर जरूरत है तो वो है पानी के जल स्रोतों को संरक्षण देने की, उनकी स्वच्छता की और गागर की. जिससे एक बार फिर से चरित्रार्थ होती वो कहावत ‘गागर में सागर’ नजर आएगी, वरना आने वाली भावी पीढ़ी गागर और जल स्रोतों की विलुप्तता का जिम्मेदार ठहराने का जिम्मा हम लोगो को माना जाएगा.

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)

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