बचपन से देखी गरीबी, जंगल ने पेंटिंग सिखाई और बुरांश ने रंग भरना

पहाड़ की बेटियां — एक

  • Himantar Web Desk

नव वर्ष पर ‘हिमांतर पत्रिका एवं वेबसाइट’ की विशेष सीरीज़’ ‘पहाड़ की बेटियां’ में हम आपको 24 साल की एक ऐसी प्रतिभावान लड़की की कहानी बता रहे हैं, जो निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुई और बचपन से ही पहाड़ का संघर्ष देखा एवं उसे अभी भी जी रही है. पर कला के प्रति पूरी तरह से समर्पित है, because और उत्तराखंड की लोक कला ऐपण को देशभर के दूसरे राज्यों की लोक कलाओं के साथ जोड़कर सुंदर कलाकृतियां बना रही है. जिन्हें कला प्रेमी खूब पसंद कर रहे हैं. अभिनय का शौक है. कई कार्यक्रमों के लिए शूट कर चुकी हैं. इस लड़की का नाम है हिमानी कबडवाल.

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बचपन में जंगल की मिट्टी में उकेरती थी कलाकृतियां

हिमानी कबडवाल कहती हैं कि उन्हें कलाकार because प्रकृति ने बनाया. जंगल ने पेंटिंग सीखाई. बुरांश ने रंग भरना और चीड़ के पेड़ से लीसा निकालने वाली तकनीक ने सीधी रेखाएं खिंचना. वह कहती हैं, ‘जब मैं आठवीं- नौवीं कक्षा में थी, तब जंगल में गाय चराने के लिए जाती थी. आज भी गई हूं.

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Himani Kabdwal, aipan girl Uttarakhand

जब आपसे बात कर रही हूं, सामने बुरांश खिल रहा है. मैं बैठे हुए इसे देख ही रही थी और अपने अगले प्रोजेक्ट के लिए कुछ आईडिया खोज रही थी. हमारा जीवन तो जंगल और पहाड़ ही हुआ.  बचपन में ही प्रकृति को देखकर पहले कलाकृतियों को अपने जेहन में so उकेरती फिर उसके बाद मिट्टी पर. इसी तरह धीरे-धीरे फूल-पत्तियां बनाना सीखा और फिर घर की धैली पर बड़ी बहन से ऐपण. लीसा निकालने का पैटर्न बचपन से ही आकर्षित करता था. इसमें बिना किसी मेजरमेंट के सीधी लाइनें खिंची जाती हैं.  इन रेखाओं का मैंने अपनी कई पेंटिंग में उपयोग किया है.

बचपन से ही अभाव देखा, पैसों की कमी के चलते मायके नहीं जा पाती थी मां

हिमानी जब 17 साल की हुईं, तो उनके पिता का देहांत हो गया. घर की जिम्मेदारी का भार मां और भाईयों पर आ गया. वह कहती हैं, ‘मैं अपने पिता के सबसे ज्यादा करीब थी. पिता की गोद में खेली और एक दिन अचानक एक दुर्घटना में उन्हें खो दिया. because तब में कॉलेज में थी और बैचुलर ऑफ फाइन आर्ट की पढ़ाई कर रही थी. ऐसा धक्का लगा कि उबरने में काफी वक्त लग गया. उसी दिन मैंने सोच लिया कि अपना खर्च खुद निकालना है. धीरे-धीरे अपने आर्ट वर्क को बेचने लगी और घर में भी हाथ बटाने लगी.

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पिता किसानी कर घर चलाते थे. उनके संघर्ष को तो बचपन से ही देखा था. उन्हीं के संघर्ष से हमने संघर्ष करना सीखा. ये ही वजह है कि कभी हिम्मत नहीं हारी और न ही कभी कोई गलत रास्ता अपनाया. घर के काम और अपने हुनर पर ही ध्यान दिया. because हमारे लिए संघर्ष ही जीवन हुआ और उसे ही कर रहे हैं. बचपन से ही अभाव देखा हुआ. परिवार की आर्थिक स्थिति देखकर अपनी जरूरतें कम करना पहले ही आ गया ठहरा. कई बार इधर-उधर जाने के लिए कपड़े नहीं होते थे, तो स्कूल ड्रेस पहनकर ही चल देने वाले हुए. वो दिन भी याद हैं, जब ईजा पैसे नहीं होने के कारण मायके नहीं जा पाती थी.

इंस्टाग्राम से मिलते हैं आर्ट वर्क के ऑर्डर

हिमानी मुक्तेश्वर के सतोली गांव की रहने वाली हैं. because उन्होंने अल्मोड़ा के सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय से मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स  (MFA) की पढ़ाई की है. 12वीं तक की पढ़ाई धन सिंह राजकीय इंटर कॉलेज प्यूड़ा में हुई.  कहती हैं- पहाड़ की लड़कियों को गाय, भैंस, बकरी, गोबर, घास और जंगल के साथ खटते हुए ही पढ़ना हुआ. स्कूल में बैक बेंचर्स हुआ करती थी मैं. मास्टर पढ़ाते और मैं कॉफी पर तरह-तरह की लकीरें खिंच रही होती थी. कई बार डांटकर क्लास से बाहर भेजी गई. घर में भी मेहेंदी के तरह-तरह के डिजाइन कॉपी में बनाती.

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गांव में ही एक महिला बैग बनाती थी, उनके लिए उसमें ऐपर्ण डिजाइन किया. प्रति डिजाइन वो 15 रुपये देती थीं. फिर आर्ट की पढ़ाई की और अब अपनी कलाकृतियों को बेचती हूं. इस काम में मुझे बचपन से ही खुशी मिलती थी, अब भी मिलती है. because अपने ही कमरे में सिमटी रहती हूं. कभी स्वेटर बुनती हूं, तो कभी नई कलाकृति का बेस तैयार कर रही होती हूं. कमरे में चारों तरफ कलाकृतियां फैली हुई हैं, दीवारों पर आड़ी-तेड़ी लकीरें खींची है, रंग-रोगन है. देख रही हूं कि सब लोग पहाड़ से because बाहर निकलने की दौड़ में लगे हुए हैं. मैं तो कुछ दिन हल्द्वानी भी जाती हूं तो असहज हो जाती है, गांव ही पसंद आता है.

एमएफए करने के बाद ही सोच लिया था यहीं से काम करूंगी, लोक-संस्कृति के लिए काम करूंगी, अपने संस्कारों के लिए काम करूंगी, संस्कृति के लिए काम करूंगी.  इंस्टाग्राम और सोशल मीडिया से कई ऑर्डर मिलते हैं, 10-10 हजार से लेकर 15 हजार रुपये तक एक आर्ट वर्क बिकता है. लोग अपनी पसंद की कलाकृति को बनवाना चाहते हैं, कई बार तो थीम तक बताने लगते हैं.

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ऐपण को पिछवाई कला, वारली और मधुबनी से जोड़ रही हूं

हिमानी कहती हैं कि उन्होंने ऐपण के लिए because उत्तराखंड के कई गांवों में नि:शुल्क कार्यशालाओं का आयोजन किया. कोरोना काल में इंस्टाग्राम और जूम के जरिए वर्कशॉप दीं. जिसमें दूसरे राज्यों के स्टूडेंट्स और कला प्रेमी भी जुड़े. अभी फोक फ्यूजन पर काम चल रहा है. ऐपण को पिछवाई कला से जोड़ रही हूं. राजस्थान की यह हस्तकला मुझे बहुत सुंदर लगती है.

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इसमें कपड़े पर भगवान श्रीकृष्ण के जीवन चित्रण को दर्शाया जाता है. वल्लभ संप्रदाय से संबंधित कला है यह. बिहार की मधुबनी और ऐपण का फ्यूंजन भी बना रही हूं.  महाराष्ट्र की आदिवासी लोक चित्रकला वारली का भी ऐपण के साथ फ्यूजन तैयार किया है मैंने. because मैं पुरानी तकनीक को नई तकनीकों के साथ मिलाकर लोक कलाओं का निर्माण कर रही हूं. गेरू के साथ फेविकोल का लेप बनाकर पेंटिंग का धरातल तैयार करती हूं,  फिर उस पर वर्तमान में प्रचलित तकनीक तथा रंगों से कलाकृतियों का निर्माण करती हूं. देशभर के लोक कलाकारों के लिए एक ऐसा स्टार्टअप शुरू करने की सोच रही हूं, जिसमें लोक कलाकारों को काम करने का मौका मिले और कला प्रेमियों के लिए लोक कला से संबंधित कृतियों को खरीदना आसान हो.

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