बेहद कठिन था ह्यूपानी के जंगल से लकड़ी लाना
- प्रकाश चन्द्र पुनेठा
हमारे पहाड़ में मंगसीर के महीने तक यानी कि दिसम्बर माह के अन्त तक पहाड़ की महिलाओं द्वारा धुरा-मांडा में घास कटाई तथा साथ ही खेतों में गेहूँ, जौ, सरसों व चने बोने का काम पूरा जाता है. हम अपने बचपन में सोचते थे कि अब सब काम पूर्ण हो गए है अब हमारी महिलाओं को थोड़ा आराम मिलेगा! लेकिन एक काम और हमारे पहाड़ की महिलाओं की प्रतिक्षा कर रहा होता था, वह काम होता था साल भर के लिए अपने चूल्हे के लिए जलावन लकड़ियों की व्यवस्था करना.
रसोई
आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व हमारे पहाड़ों की रसोई में भोजन बनाने का कार्य अधिकांश चूल्हों में लकड़ी जलाकर किया जाता था. उस समय कुछ संपन्न परिवारों में मिट्टी के तेल से चलने वाले प्रेशर वाले स्टोप भी होते थे, जिनमें भोजन बनाया जाता था. इस प्रकार के प्रेशर से जलने वाले स्टोप में, अधिक प्रेशर से फटने का जोखिम भी रहता था.
इसलिए अधिकतर परिवार मिट्टी के चूल्हे में लकड़ियां जलाकर भोजन तैयार करते थे. उस समय आबादी बहुत कम थी और जंगल बहुत होते थे.जंगलों में सूखी लकड़ियां बहुत आसानी से मिल जाया करती थी. प्रत्येक गाँव वाले अपने निकट के जंगल से सूखी लकड़ियाँ एकत्र कर अपना चूल्हा जलाने के लिए ले आते थे.चूल्हा
पहाड़ की महिलाओं का प्रातः
सूरज निकलने से पहले उठकर रात ढलने तक, खेतों में, मांङे-धुरों में व गोरु-भैंस के छाने में व अन्य घरेलू कामों में लगे रहने के कारण पूरा दिन बहुत अधिक व्यस्तता से व्यतीत हो जाता था. रात को चूल्हा जलाकर भोजन बनाने का उत्तरदायित्व हमारी महिलाओं को ही निभाना हुआ!
चूल्हा
गाँव घरों में हमारे पहाड़ की महिलाओं का प्रातः सूरज निकलने से पहले उठकर रात ढलने तक, खेतों में, मांङे-धुरों में व गोरु-भैंस के छाने में व अन्य घरेलू कामों में लगे रहने के कारण पूरा
दिन बहुत अधिक व्यस्तता से व्यतीत हो जाता था. रात को चूल्हा जलाकर भोजन बनाने का उत्तरदायित्व हमारी महिलाओं को ही निभाना हुआ! चूल्हा जलाने के लिए सूखी लकड़ियों का बंदोबस्त भी हमारी ईजा, आमा, ज्येठज्या या काकी ही करने वाली हुई! अब रोज-रोज सूखी लकड़ियों के लिए दूर जंगलों में जाना नहीं हो पाता है, तो इसका समाधान हमारे पूरखों ने पहाड़ में जीवन बसाने के साथ ही निकाल लिया था.इसें भी पढ़ें— वराहमिहिर के जलविज्ञान की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता
चूल्हा
वह समाधान था, पूस-माघ के महीनों में घर की महिलाओं के द्वारा सूखी लकड़ियों को जंगलों से लाकर अपने मकान के आंगन के एक कोने में वर्ष भर के लिए सूखी लकड़ियों का
ढेर लगाने का, जिसको हमारी सोर की बोली में ‘खल्यो’ लगाना कहा जाता है. ‘खल्यों’ लगाने से बारिश का पानी इनके ऊपर टिक नहीं पाता और धूप में खूब सिंकाई हो जाती है. जिससे अधकच्ची लकड़ी भी अच्छी तरह सूखकर जलाने लायक हो जाती हैं. घरवालों द्वारा रोज ‘खल्यों‘ से अपनी आवश्यकता अनुसार चूल्हे के लिए लकडियां निकाल ली जाती थी.चूल्हा
पूस-माघ के महीने में मेरे गाँव सिलपाटा की महिलायें सूखी लकड़ियों के लिए अपने नजदिक ‘ह्यूपानी’ के जंगल में जाती थी. सिलपाटा से चंडाक तक की लगभग 5 किलोमीटर की खड़ी धार की चड़ाई चढ़ना. उसके पश्चात चंडाक से ह्यूपानी के जंगल की उबड़-खाबड़ पगदंढ़ी में लगभग 6 किलोमीटर ओर आगे चलना. सिलपाटा गाँव
से लेकर ह्यूपानी के जंगल तक, कुल मिलाकर 11 किलोमीटर के मार्ग में चढ़ाई व उबड़-खाबड़ वाले दुश्कर पहाड़ी पगदंडियों में महिलाओं का चलना, कोई सामान्य काम नही था. 11 किलोमीटर ह्यूपानी के जंगल में पहुँचना, दिनभर सूखी लकड़ियों को ढूढ़कर इकट्टा करके सामर्थ अनुसार गट्टर तैयार करना, फिर लकड़ियों के गट्ठर को अपनी पीठ में लादकर 11 किलोमीटर वापस घर आना. यानी कि एक दिन में 22 किलोमीटर चलना, वह भी वापसी में लकड़ियों के बोझ को पीठ में लेकर आना.चूल्हा
ह्यूपानी का जंगल बांझ, चीड़, देवदार, बुराँझ आदी अनेक प्रकार की कीमती वृक्षों व झाड़ियों से भरा हुवा जंगल था. जहाँ सूखी लकड़ियाँ आराम से मिल जाया करती थी. मेरे गाँव के
अतिरिक्त पड़ोसी गाँव पुनेड़ी, तड़ीगाँव की महिलायें भी ह्यूपानी के जंगल जाया करती थी. ह्यूपानी का जंगल उस समय अपने आस-पास के लगभग पंद्रह गाँवों के परिवारों को चूल्हे में जलाने वाली सूखी लकड़ियां उपलब्ध करता था. जंगल के पेड-पौधों को व कच्ची टहनी को काटना सख्त मना था. जंगल में वन विभाग के पतरौल का लोगों के मध्य बहुत डर रहता था.चूल्हा
ह्यूपानी का अर्थ होता है बर्फ
और पानी. उस समय शरद ऋतु के अंत में ह्यूपानी के जंगल में बर्फ पढ़नी आरंभ हो जाती थी और बसंत ऋतु के अंत तक लगभग पाँच माह तक बर्फ जमी रहती थी. बीच-बीच में लगातार दस बारह दिन धूप आने से बर्फ पिघल भी जाती थी. ठंढ होते ही बर्फ पढ़ जाती थी. ज्येठ के महिने में भी ह्यूपानी के जंगल में नमी रहने के कारण ठंड लगती थी.
चूल्हा
ह्यूपानी का अर्थ होता है बर्फ और पानी. उस समय शरद ऋतु के अंत में ह्यूपानी के जंगल में बर्फ पढ़नी आरंभ हो जाती थी और बसंत ऋतु के अंत तक लगभग पाँच माह तक बर्फ जमी
रहती थी. बीच-बीच में लगातार दस बारह दिन धूप आने से बर्फ पिघल भी जाती थी. ठंढ होते ही बर्फ पढ़ जाती थी. ज्येठ के महिने में भी ह्यूपानी के जंगल में नमी रहने के कारण ठंड लगती थी. और हमारे पहाड़ की महिलायें पुस-माघ माह में जमी हुई बर्फ में और बर्फ के पिघलने पर पानी बन जाने से लथपथ हुए ह्यूपानी के जंगल में नंगे पैर लकड़ियाँ लेने जाती थी.चूल्हा
उस समय हमारे गाँव-घरों में अनाज की
और धिनाली की कमी नही थी, लेकिन रुपए-पैसों की बहुत कमी थी. अधिकतर पहाड़ की जनता, विशेषकर महिलायें साल के बारह माह नंगे पैर रहते हुए काम में लगी रहती थी. एक प्रकार से उस समय की परिस्थिति के कारण हमारे पहाड़ की महिलायें उमर गुजरने के साथ-साथ नंगे पैर रहने की अभ्यस्त हो जाती थी. किन्तु ह्यूपानी के जंगल में बर्फ के मध्य नंगे पैरों को जूते जुराब या चप्पल की आवश्यकता अवश्य महसूस होती थी.इसें भी पढ़ें— गढ़वाल की जातियों का इतिहास भाग-1
चूल्हा
मेरी उम्र उस समय लगभग 12 वर्ष की होगी, तब में कक्षा 6 में पढ़ता था. मैं अपनी ईजा को ह्यून के दिनों में प्रातः सूर्य की किरणों के निकलते ही, ह्यूपानी के जंगल में गाँव की महिलाओं के साथ, हम भाई-बहनों के नींद से उठने से पहले चले जाती थी. मेरी ईजा गाँव अन्य महिलाओं की अपेक्षा कमजोर शरीर की दुबली-पतली थी.
ब्रह्म मूहुर्त के समय ईजा उठ जाती थी. नित्य कर्म से निवृत हो चूल्हा जलाकर, हमारे लिए व अपने लिए कलेवा बनाती थी. उस समय हम भाई-बहन गहरी नींद होते थे, तो हमारे लिए कलेवा बड़े जतन के साथ चूल्हे के पास बर्तनों में रख देती थी. ईजा को भले ही उस समय भूख न लगी हो, फिर भी ईच्छा न होते हुए भी कलेवा खाँ लिया करती थी. क्योकि उसके बाद दिन भर खाने का समय नही मिलता था.ह्यूपानी के जंगल समय से पहुँचना, लकड़िया इकट्टा करना, लकड़ियों का बोझ पीठ में लादे घर वापस आना. दिन में ह्यूपानी के जंगल में ईजा लकड़ियाँ एकत्र करते हुए, खाजा
(भूने हुए चावल) की तीन-चार फांक खाँ लिया करती थी. गाँव की महिलाओं के साथ ईजा के घर पहुँचने तक सूर्य अस्त हो जाता था. ईजा का प्रातः सूर्य की किरणों के निकलने के साथ ही घर से ह्यूपानी के जंगल चले जाना और सूर्य की किरणों के डूबने के साथ घर पहुँचना. पूरा एक दिन इस प्रक्रिया में व्यतीत हो जाता था.चूल्हा
पुस-माघ के दो माह हमारे पहाड़ की महिलाओं का वर्षभर के लिए लकड़ियाँ एकत्र करके ‘खल्यो’ बनाने में व्यतीत हो जाता था. पहाड़ के हमारे स्कूलों में उन दिनों शीतकालिन
अवकाश रहता था. ईजा के लकड़ियों को लाने, जंगल जाने के कारण हमको दिनभर उदास लगा रहता था. ईजा के ह्यूपानी के जंगल से लकड़ियों का पीठ लादे जब घर पहुँचती थी, लकड़ियों के बोझ को आंगन के एक कोने में उतारते ही, हम भाई-बहन ईजा को घेर कर खड़े हो जाते थे. ईजा कुछ समय के लिए लकड़ियों के गट्ठर के बीच वाले हिस्से में पीठ टिकाये, तकियाँ की तरह सहारा लिए, निडाल हो वही पर बैठी रहती थी.चूल्हा
हम भाई-बहनों की नजर सबसे पहले ईजा के पैरों की तरफ जाती थी. क्योकि ईजा के शरीर के सबसे अधिक कष्ट सहने वाले भाग पैर थे. ह्यूपानी के जंगल में दिनभर ईजा नंगे
पैर कही बर्फ में, तो कही बर्फ पिघलकर मिट्टी-कंकड़ से मिलकर किचड़ में परिवर्तित हो चुकी भूमी में कष्ट सहन करते हुए सूखी लकड़ियों को एकत्र करने में लगी रहती थी. मेरी ईजा के पैर इन परिस्थितियों में फट जाते थे और पैर के इन फटे हुए हिस्सों में दरार पढ़ जाती थी. पैर में पड़ी इन दरारों में से अक्सर खून रिसने लगता था. हम बेबस हो ईजा के पैरों में पड़ी दरारों से रिसते खून को बेबसी से देखते रह जाते थे.चूल्हा
तब ईजा के कहे अनुसार लकड़ियों के गट्ठर में अधकच्ची चीड़ की लकड़ी को, जिसमें लिसा लगा रहता था, उस लिसे को निकालकर, ईजा के पैर की फटी हुई दरारों में रिसते हुए खून की जगह पर भर देते थे. जिससे कुछ समय पश्चात खून का रिसना बंद हो जाता था. किन्तु हम भाइ-बहनों के दिल में ईजा के दुख को
देखकर एक दर्द उठते रहता था. पिताजी दूर परदेश में नौकरी में थे. गाँव-घर में इस दर्द को किसी के साथ अपने मन को हल्का करने के लिए साझा लिया करते थे, तब पता चलता कि, हर घर की महिलाओं की ह्यूपानी के जंगल लकड़ियों के लिए जाने की, यही कष्ट सहन करने की दर्द भरी कहानी थी. एक प्रकार से उस समय पहाड़ की संपूर्ण महिलाओं की भारी कष्ट सहते हुए, कठीन परिस्थितियों के मध्य सामर्थ से अधिक, परिश्रम करने की दर्द भरी कहानी थी.चूल्हा
साल में ह्यून का समय, पहाड़ की अधिकतर महिलाओं का इसी प्रकार गुजरता था.धीरे-धीरे समय व्यतीत होते हुए, हमारे पहाड़ की महिलाओं को पहाड़ों में बर्फ पढ़ने के समय अपने नंगे
पैरों के लिए गर्म जुराब व जूतों का अहसास होने लगा. गाँव में पढ़ी-लिखी नई ब्वारियों ने जूते चप्पलों को पहनकर जंगल व खेतों में काम करना आरंभ कर दिया था. उम्र दराज हो चुकी महिलायें फिर भी नंगे पैर ही काम करती थी. हाँ, समय के साथ ह्यूपानी के जंगल में, बर्फ-पानी से सनी भूमी में, नंगे पैर जाने से पहले पैरों में जूते चप्पल पहनने के बारे में सोचने लग गई थी.चूल्हा
मेरी ईजा गाड़ा-खेत, मांङा-धुरा,
गोठ-भितर का काम नंगे पैर ही करती थी, लेकिन जैसे ही ह्यून का समय आता और ह्यूपानी के जंगल में लकड़ियाँ लाने के लिए, दिन निकट आते तो ईजा चप्पल पहनकर जाने के बारे में सोचने लगती थी. किन्तु कभी खुलकर अपने दिल की बात परिवार में किसी नही कह पाती थी. क्योकि घर में गरीबी भी बहुत थी. रुपये-पैसों की किल्लत बनी रहती थी. मेरी ईजा यही सोचती थी कि, बस उसके बच्चों का लालन पालन और पढ़ाई अच्छी प्रकार से हो जाय, इस सोच के आगे वह अपने जीवन में आवश्यक ईच्छाओं का दमन कर देती थी.चूल्हा
ह्यून के दिनों की
एक घटना रह-रह कर मुझे अभी तक मुझे याद आती है. और मेरा दिल उस घटना की याद करते ही, अपनी ईजा के कष्ट से भरे व त्यागमय जीवन की याद आती है तो मेरा हृदय ब्यथित हो जाता है.एक दिन ईजा ह्यूपानी के जंगल से
लकड़ियों का गट्ठर अपनी पीठ में लिए, धीरे-धीरे नंगे पैर लंगड़ाते हुए, दर्द से कहारते हुए, जब घर के आंगन में पहुँची थी. लकड़ियों के गट्ठर को आंगन में उतारते ही ईजा के मुहँ से पीड़ भरी आवाज निकली…“ओ..ईजा..म्येरी ऽ ऽ, आज म्यारा खुट्टान भौत पीड़ हुन लागी रै छ.” (ओई..माँ..ऽ ऽ आज मेरे पैरों में बहुत दर्द हो रहा है)
चूल्हा
इतना सुनते ही मैंने ईजा के पैरों की तरफ
देखा तो ईजा के दोनों पैरों की फटी हुई दरारों से अन्य दिनों की अपेक्षा उस दिन कुछ अधिक खून रिस रहा था! तब मैंने शीघ्र ही गरम पानी से ईजा के पैरों को अच्छी तरह धोया. जिससे ईजा के पैरों में गरम पानी की सैंक लगी और ईजा को आराम लगा. तब ईजा ने धीरे से कहा,चूल्हा
“पार तलघर कैलास की ईजा लगे आज
चप्पल पैरी बेर आ रैछी. मैं आब कब चप्पल पैरी बेर ह्यूपानी का जंगल जूलो?” (पड़ोस की कैलास की माँ भी आज चप्पल पैर कर आई हुई थी. मैं अब कब चप्पल पहनकर ह्यूपानी के जंगल जांअगी?)आर्थिक रुप से
समृद्ध कुछ घरों में गैस से जलने वाले आधुनिक चूल्हे भी आ गए थे. अब गाँव की महिलाओं का ह्यूपानी के जंगल जाना लगभग बंद हो गया था. जिन गरीब परिवारों के पास स्टोप नही थे, मात्र लकड़ियों से चूल्हा जलाने की मजबूरी थी, वह परिवार अपने आस-पास के पेड़-पौधों से जलावन की लकड़ी उपलब्ध कर लेते थे.
चूल्हा
ईजा की नंगे पैरों के कष्ट व पीड़ से भरी बात सुनकर मुझे बहुत दुख लगा. मैं बेबस था कि ईजा के लिए कुछ कर नही पा रहा था. उस समय मैं गरीबी से जूझते हुए स्कूल की पढ़ाई कर रहा था.
मैं स्वयं अपने फौजी काका के दिए हुए, घिसे-पिटे लाल रंग के किरमिच कपड़े के जूते पहना करता था. स्कूल या बाजार जाने के लिए मात्र इन जूतों को पहनता था. उसके अतिरिक्त इन जूतों को संभालकर रख देता था, ताकि जूते लम्बे समय तक चल सकैं. तब मैंने मन में प्रण कर लिया था कि नौकरी में लगते ही अपनी ईजा के लिए सबसे पहले चप्पल खरीदूंगा. ईजा द्वारा ह्यूपानी जंगल से लकड़ियाँ लाने के बाद, दुख भरे कहे शब्द, मेरे मस्तिष्क में स्थिर हो गए थे.चूल्हा
समय की गति के साथ, देश के प्रत्तेक क्षेत्र में वैज्ञानिक चेतना के साथ विकास होने लगा. हमारे क्षेत्र में भी शिक्षा का प्रसार होने लगा. लोगों के रहन-सहन में परिवर्तन होने लगा.
लगभग कुछ वर्ष पश्चात गाँव-घरों में अनेक प्रकार के मिट्टी के तेल से चलने वाले प्रेशर के स्टोप के अतिरिक्त अन्य स्टोप भी चलन में आ गए थे. आर्थिक रुप से समृद्ध कुछ घरों में गैस से जलने वाले आधुनिक चूल्हे भी आ गए थे. अब गाँव की महिलाओं का ह्यूपानी के जंगल जाना लगभग बंद हो गया था. जिन गरीब परिवारों के पास स्टोप नही थे, मात्र लकड़ियों से चूल्हा जलाने की मजबूरी थी, वह परिवार अपने आस-पास के पेड़-पौधों से जलावन की लकड़ी उपलब्ध कर लेते थे.चूल्हा
जब मैं सेना से प्रशिक्षण पूर्ण कर प्रथम अवकाश में घर गया तो अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ईजा के लिए चप्पल, जूता व जुराब लेकर गया था. ईजा उस समय बहुत शारिरीक रुप से बहुत कमजोर हो चुकी थी. जब मैंने उसके सामने जूता, चप्पल व जुराब रखकर कहा कि,
“ईजा, इन सब त्यारा लिजी ल्या रयू,”
(माँ, यह सब तेरे लिए लाया हूँ,)
ईजा, गौर से बहुत देर तक जूता,
चप्पल व जुराब को देखते रही, मुहँ से कुछ नही बोली, शायद अपने मन में कह रही थी, “काम करना दिनून, ह्यूपानी का जंगल ह्यू का बीच में, नंगा खुट्टा रयू, आब म्यारा हाथ-खूट्टा के न कर सकना, आब कि करु इन ज्वात्ता, चप्पल पैरी बेर.”चूल्हा
(काम करने के दिनों, ह्यूपानी के जंगल में
बर्फ के बीच नंगे पैर रही, अब मेरे हाथ-पैर कुछ नही कर पाते है, अब क्या करु इन जुतों, चप्पलों को पहन कर.)आज मेरी ईजा परलोक में है!
यही मानव जीवन की नियती है. कभी-कभी अपने घर से मोस्टामानू की ओर घूमने जाता हूँ. वहाँ से ह्यूपानी के जंगल स्पष्ट दिखता है. ह्यूपानी का जंगल अब भी अपने स्थान में स्थित है. लेकिन पूर्व की तरह समृद्ध, सदाबहार व हरे भरे वृक्षों से भरा हुवा जंगल नही! अब ह्यूपानी का जंगल बीच-बीच में वृक्ष विहीन हो, गंजा हो गया है.
चूल्हा
आज मेरी ईजा परलोक में है!
यही मानव जीवन की नियती है. कभी-कभी अपने घर से मोस्टामानू की ओर घूमने जाता हूँ. वहाँ से ह्यूपानी के जंगल स्पष्ट दिखता है. ह्यूपानी का जंगल अब भी अपने स्थान में स्थित है. लेकिन पूर्व की तरह समृद्ध, सदाबहार व हरे भरे वृक्षों से भरा हुवा जंगल नही! अब ह्यूपानी का जंगल बीच-बीच में वृक्ष विहीन हो, गंजा हो गया है.चूल्हा
(लेखक सेना के सूबेदार पद से सेवानिवृत्त हैं. एक कुमाउनी काव्य संग्रह बाखली व हिंदी कहानी संग्रह गलोबंध प्रकाशित. कई राष्ट्रीय पत्र—पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित.)