रवांई की पहली पढ़ी-लिखी लड़की ‘सत्यभामा’ का सफर

satyabhama

Dhyan Singh Rawat

ध्यान सिंह रावत ‘ध्यानी’, शिक्षक एवं साहित्यकार

भारत जब पराधीनता की जंजीरों को तोड़ देने के अंतिम पायदान पर आ खड़ा हुआ था तो देशी रियासतों का विलय भारतसंघ में एक बड़ी चुनौती से कम न थी. टिहरी रियासत की जनता भी अपने को इस कड़ी से जुड़ने के लिए चिर निद्रा से उठ खड़ी हुई थी और स्वतंत्रता के दो वर्षों के बाद अर्थात सन् 1949 को संयुक्तप्रान्त उत्तर प्रदेश का एक हिस्सा बनी. रियासत काल में शिक्षा की दशा और दिशा संतोषप्रद नहीं थी. महाराजा प्रतापशाह ने कुछेक स्कूल तो खोले किन्तु महाराजा कीर्तिशाह ने प्रत्येक पट्टी में एक-एक प्राईमरी पाठशाला खोली थी. रवांई परगने में महाराजा नरेन्द्रशाह के शासन काल में कीर्ति आधारिक विद्यालय उत्तरकाशी, प्राइमरी पाठशाला राजगढ़ी, पुरोला, ठडियार आदि गिने-चुने स्कूल खुल चुके थे.

यद्पि महाराजा नरेन्द्र शाह के शासन काल में इस ओर कुछ सुधार अवश्य हुआ किन्तु तत्कालीन समय में पहाड़ की भौगोलिक परिस्थितियां भी पहाड़ जैसी ही विकट थी. शिक्षा की ओर यहां का जनमानस बिल्कुल बेपरवाह था. बहुत मामूली दूरदृष्ठा माता-पिता ही अपने बच्चों को स्कूल भेजने का प्रबन्ध जुटा पाते थे. बालिकाओं की शिक्षा तो नगण्य ही थी. उनका ब्याह बहुत कम उम्र में ही कर जिम्मेदारियों का एक भारी बोझ उनके नाजुक कंधो पर इस कदर लाद दिया जाता कि वे कोल्हू के बैल की भांति जीवन पर्यन्त जूझती रहती थी. कुछ ऐसे भी जन हुए जिन्होंने दूर की कंदराओं में भी उस पुरुष प्रधान समाजिक व्यवस्था में बालिका शिक्षा को एक नई दिशा देने के लिए तमाम मिथकों, भ्रान्तियों को दर किनारा करते हुए बेटा-बेटी के भेद को पाटने के लिए आगे आये, इन्हीं में एक हुए लाखीराम ‘बडेड़ी’.

इनके पुरखे बाजा बडेड़ी के विषय में एक कहावत ही प्रचलित थी ‘‘आधी कु राजा आधी कु बाजा.’’ अर्थात आधा हिस्सा राजा का और आधा बाजा का. 1803 में गोरखा आक्रमण और लूट के दौरान बाजा की अकूत धनसंपदा को गोरखे आक्रान्ता लूट कर ले गये. यहां तक कि बाजा की बहिन हिरमोली और शोभा गोरख्या के गीत आज भी उत्तरकाशी के रवांई क्षेत्र में गाये जाते हैं. बाजा का पुत्र केशर सिंह उर्फ ‘केशरू’ बडेड़ी इसी परिवार का ‘संयाणा’ और मोड़ भड़ हुआ, जिसकी राज दरबार तक पहुंच थी. लाखिराम बडेड़ी केशर सिंह का पुत्र था. जो उस जमाने का पढ़ा-लिखा व्यक्ति था जब सिर्फ टिहरी में ही एक मात्र स्कूल था. बाद में ये राजदरबार की ओर से लेखपाल भी रहे. पिताजी की विरासत पाकर बडियाड़ और रामासेरांई का ‘संयाणा’ हुआ.

महाराजा का संरक्षण पाकर अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक निणर्य भी लेते थे. लाखिराम बालकों की शिक्षा के साथ-साथ बालिकाओं को भी समान रूप से शिक्षा देने के पक्षधर थे. उन्होंने यह पहल अपने परिवार से आरम्भ की और अपनी बहिन जयपालदेई को भी दर्जा 4 तक रियासत काल में पढ़ाया बाद में वे अध्यापिका भी बनी. संतान की चाह और कारोबार को चलाने के लिए इन्हें सात शादियां भी करनी पड़ी किन्तु इनके भाग्य में एक मात्र संतान पुत्री रूप में 1945 को सत्यभामा ही हुई. बेटी का बचपन बहुत ही लाड़-प्यार और शानो शौकत से गुजरा. घर पर किसी थी चीज का कोई अभाव नहीं रहा. हजारों भेड़ बकरी, जमीन जायदाद, नौकर चाकर सब को अलग-अलग कोमों की जिम्मेदारी थी. इनका परिवार पुरोला के पास कण्डियाल गांव और बडियाड़ में पुरखों के जमाने के बनाए पुश्तैनी घर में रहता है. कण्डियालगांव का मकान एक छोटा महल जैसा ही लगता है इस हवेलीनुमा मकान पर लकड़ी की अपेक्षा तराशे पत्थरों का अधिक प्रयोग किया हुआ है.

तब और आज में जमीन और आसमान का अन्तर है. दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था. सुना है कि आजादी के इतने लम्बे समय बाद अब जाकर बडियाड़ के लिए सड़क मार्ग निर्माणधीन है. लाखीराम ने सत्यभामा उर्फ ‘सती’ और अपने भाई की बेटी को पढ़ाने के लिए घर पर ही एक शिक्षक रख लिया था. जो पौड़ी गढ़वाल के थे. वे कहती हैं कि मैने कोई नियमित प्राईमरी स्कूली शिक्षा ग्रहण नहीं की. घर पर गुरुजी ने जो कुछ पढ़ाया वही आगे जाकर मेरे ज्ञान की नींव बनी.

सर बडियाड़ में तो इनके पंचपुरे ‘जौल’ (दो चौकट एक साथ बने जिनकी ऊपर से जो दो ढालदार छत होती थी.) चौकटों और ‘कुठारों’ जो ठीक मकान के सामने हैं उसका दरवाजा आज भी लोहे की मोटी सांकल से ऊंचे चौकट की अटाली के ऊपर एक मोटे दरख्त से बंधा है और बीच में कांसे की घंटी टंगी अपने अतीत की यादों को समेटे कुठार की रखवाली आज भी एक सजग प्रहरी की भांति निभा रही है.

सत्यभामा जो अब 80 वर्ष की हो चुकी हैं अपने गुजरे उस चुलबुले बचपन की कुछ मधुर स्मृतियों को मस्तक पटल पर उतारने की कोशिश कर कहती हैं,  ‘‘तब और आज में जमीन और आसमान का अन्तर है. दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था. सुना है कि आजादी के इतने लम्बे समय बाद अब जाकर बडियाड़ के लिए सड़क मार्ग निर्माणधीन है. लाखीराम ने सत्यभामा उर्फ ‘सती’ और अपने भाई की बेटी को पढ़ाने के लिए घर पर ही एक शिक्षक रख लिया था. जो पौड़ी गढ़वाल के थे. वे कहती हैं कि मैने कोई नियमित प्राईमरी स्कूली शिक्षा ग्रहण नहीं की. घर पर गुरुजी ने जो कुछ पढ़ाया वही आगे जाकर मेरे ज्ञान की नींव बनी. देश जब स्वतंत्र हो गया तो पिताजी मुझे और मेरी चचेरी बहिन को पांचवी का इम्तिहान दिलाने के लिए पुरोला ले गये तो उसी दौरान क्षेत्र के गणमान्य लोग जिनमें गुन्दियाटगांव से पं0 मनीराम, पोरा से पं0 बालकृष्ण और पिताजी ने महारानी से मिलकर गुन्दियाट गांव में कन्या पाठशाला खोलने की विनती कर चुके थे. उनकी मेहरबानी से जब पहली जूनियर कन्यापाठशालाा गुन्दियाट गांव में खुली तो हमारा दाखिला नवीन विद्यालय की कक्षा 6 में कर दिया गया.

हम पूरे क्षेत्र की मात्र तीन लडकियां ही थी जिनमें एक स्कूल की परिचायिका की बेटी जो अनु0 जाति की थी. और ताराचन्द डाक्टर की तीन बेटियां भी देहरादून से आकर यहीं पढ़ने लगी तो कुल मिलाकर हम छः लड़कियों हो गयीं. दर्जा आठ कर लेने के उपरांत पिताजी के सामने मेरी आगे की पढ़ाई की चिन्ता सताने लगी थीं. मेरे सपने भी बहुत ऊंचे थे. उन्होंने बहुत हाथ-पैर मारे पर उन्हें कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि कहां जा कर अब बेटी को पढ़ाऊं. वे चाहते थे कि पं0 जवाहर लाल नेहरू की बेटी इन्दिरा की भांति मेरी बेटी भी आगे बढ़े और पढ़े. यद्पि तब पिताजी वृद्ध भी हो गये थे तो स्वभाविक ही था कि उन्हें जहां मेरी पढ़ाई की चिन्ता थी वहीं मेरी शादी की फिक्र भी थी. तब तो बहुत कम उम्र में ही ब्याह कर दिया जाता था. मेरे सगे चाचा बद्री सिंह मेरी आगे की पढ़ाई के पक्षधर बिल्कुल भी नहीं थे. चूंकि उस दौर में टिहरी देहरादून जाकर पढ़ना होता था. उत्तरकाशी में कीर्ति स्कूल 10वीं तक खुल चुका था. एक दूरस्थ क्षेत्र और गांव के परिवेश में पली बढ़ी लड़की को देहरादून में रखना हमारे परिवार के लिए एक बड़ी चुनौती थी. जाने का कोई साधन नहीं था. कई दिनों तक का पैदल ऊबड़-खाबड़ जंगली़ वीरान रास्ता स्वयं पहाड़ बन कर हमारे सामने एक प्रकार से चुनौती दे रहा था. किन्तु कहते हैं कि ‘‘जहां चाह है वहां राह भी.’’

स्वतन्त्रता के बाद कण्डियालगांव पुरोला में एक मेंढा केन्द्र चलता था उस केन्द्र का निरीक्षण करने जो अधिकारी उत्तरकाशी से हमारे गांव आते वे सीधे मेरे पिताजी के पास ही आकर रूकते थे. जब उन्होंने मेरे बारे में सुना कि मैने आठवीं पास कर लिया है ओर आगे की पढ़ाई की कोई सम्भावना नहीं है तो उन्होंने मुझसे पूछा- ‘‘बेटी क्या तुम आगे पढ़ना चाहती हो?’’ तो मैने उनसे हां तो कर दी पर दुविधा बनी थी कि पढ़ाई करने जाना कहां है? मैने सुना था कि देहरादून, टिहरी, उत्तरकाशी तो कोशों दूर हैं. उन्होंने पिताजी से कहा- ‘‘लाखीराम जी यदि आपको कोई आपत्ति नहीं हो तो मेरे भी तीन बेटियां हैं और उत्तरकाशी में पढ़ती हैं यह भी मेरी बेटी ही हुई आप इसे उत्तरकाशी ले आओ वहीं इसको 9वीं में प्रवेश दिला देंगे और मेरे ही घर पर रह भी लेगी.’’ बस फिर क्या था हमें एक सहारा मिल गया. मेरी उत्तरकाशी जाने की तैयारी होने लगी. मेरी माताओं ने सुना कि मैं दूर पढ़ने जा रही हूं तो उनको बहुत बुरा लगा उन्हें तो मेरी जाने की चिन्ता सताने लगी थीं. यद्पि वे पिताजी से कुछ कह तो नहीं पाती पर चुपके-चुपके आंसू बहाती रहती. मैं उन्हें ढ़ाढस बंधाती कि मैं रह लूंगी तुम मेरी चिन्ता क्यों करती हो? मुझे पढ़ने जाना है.

मैं पिताजी और दो और आदमी जिनमें एक मेरी चचेरी बहिन का बेटा बलवीर जिसकी मां उसके बचपन में ही गुजर गयी थी उसे भी पिताजी ने अपने ही घर पर रखा, वहीं पला बढ़ा और मुझे मौसी कह कर पुकारता था. घोड़ों की लगाम भी वही पकड़ता था. हम चारों तीन घोड़ों के साथ आवश्यक सामग्री लेकर निश्चित तिथि को उत्तरकाशी के लिए चल दिये. तीसरे दिन हम उत्तरकाशी पहुंचे. मेरा ‘एडमिशन’ और रहने के लिए कमरा सब हो गया. पिताजी वापस लौट आये. आरम्भ में एक निजी परिवार का ही व्यक्ति मेरी हेर-देख के लिए मेरे साथ ही रूका रहा. वह खाना बनाता और कपड़े धो लेता था. मैंने अपने एक रिश्ते के जीजा के कहने से उस जमाने विज्ञान वर्ग चुना किन्तु मेरी बुनियाद मजबूत नहीं हो पायी थी. कक्षा5 वीं तो हवा हवाई में कर दिया, तीन साल आठवीं तक कुछ मेहनत जरूर की पर पर्याप्त नहीं थी.

मेरा परीक्षा परिणाम नवीं में अच्छा नहीं रहा. दूसरे साल फिर मेहनत की. इस बार पिताजी ने मुझे गोविन्द निवास में रखा जो एक प्रकार से हॉस्टल था. तीन साल मैं उत्तरकाशी में रही. जब घर आती थी तो कई बार हमें राड़ी डांडे में 5-6 फीट तक की बर्फ और मौसम के प्रतिकूल भी चलना पड़़ता पर कभी मेरे हौसले कम न हुए. कभी देर हो जाने पर किसी गांव में भी रात्रि विश्राम करना होता था. मैं जितनी बार भी आती-जाती बलवीर घोड़ा लेकर हर बार मेरे पास पहुंच जाता था. राड़ी डांडे की विकट खड़ी चढ़ाई के उपरांत जब हम दूसरी ओर यमुना घाटी की ओर नीचे उतर कर यमुना नदी पर बने पुल को पार करते तो पट्टी ठकराल, बनाल के गांवों से होकर गडोली फिर एक और चढ़ाई कालसी के डांडे को पार कर पुरोला की कमल सेरांई घाटी के लिए उतरते तब जाकर अपने गन्तव्य को पहुंचते थे. मैं अक्सर सोचती कि मै अपने क्षेत्र के विकास के लिए कुछ भी हो रोड़, और बड़ा स्कूल खोलने के लिए प्रयास करूंगीं.

एक दिन उत्तरकाशी से आने के दौरान हमें गडोली आते-आते रात हो गयी थी. वहां बनाल के थोकदार संयाणे रणजोर सिंह के छोटे भाई कुंवर सिंह की दुकान थी और रास्ता भी उनकी दुकान के करीब से होकर गुजरता था. बलवीर सिंह बहुत बातूनी था. इतनी बातें करता था कि सामने वाले को तो बस चुप ही रहना होता. दुकान के पास घोड़ा रोककर वह लालटीट में तेल डलवाने के लिए दुकान में चला गया और बातों में लीन हो गया. हम रास्ते में देर तक उसकी प्रतीक्षा करते रहे.’’ तब कुंवर सिंह ने बलवीर से पूछा ‘‘तुम कहां से आ रहे हो?’’ तो उसने बताया- मैं अपनी मौसी जो उत्तरकाशी में पढ़ती है उसे लेने गया हुआ था अब हम ‘दुनकाणी’ जा रहे हैं रात को वहीं रहेंगे सुबह वहां से हम कालसी डांडे के रास्ते से होते हुए सांय तक कण्डियालगांव पहुंच जायेंगे.’’ बलवीर ने उत्तर दिया. ‘‘कौन मौसी?’’

‘‘सत्यभामा मौसी, लाखीराम नाना की लड़की जो उत्तरकाशी में पढ़ाई कर रही है.’’ बलवीर ने कहा. अरे हां सुना तो है कि लाखीराम संयाणा अपनी बेटी को उत्तरकाशी पढ़ा रहा है ये तो बड़ी बात है. उसे भी इधर बुला लो, कहां हैं?  ‘‘नहीं कोई बात नहीं मामा जी, वह घोड़े पर बैठी है मै लालटीन में मिट्टी का तेल डालकर बस जा रहा हू.’’ बलवीर ने कहा. तो कुंवर सिंह स्वयं ही उसे बुलाने दुकान से बाहर आ गये. उस दौर में सत्यभामा का पढ़ाई करने जाना और आना एक राजकुमारी के जैसे ही था.

‘‘सत्यभामा कहती हैं कि मेरे बहुत मना करने के बावजूद भी वे नहीं माने और हमें घर के भीतर बुला ही लिया. परिवार के सभी सदस्यों से मुलाकात हुई कुछ बातें हुई.’’ कुंवर सिंह भी दुकान बन्द कर कमरे में आ गये.

‘‘क्या नाम हैं बेटी तुम्हारा?’ कुंवर सिंह ने पूछा. ‘‘जी सत्याभामा.’’ ‘‘रूप-रंग, नयन-नक्ष, सौर-सलीका, बात-चीत का निराला ढंग देखकर कुंवर सिंह मन ही मन पढ़े लिखे और अनपढ़ के बीच के भेद का आंकलन कर रहे थे. वे नहीं माने और हम खाना के उपरांत दुनकाणी के लिए निकल गये. उन्होंने बहुत रोका पर हम नहीं माने. दुनकाणी मुश्किल आधा किमी की दूरी पर था.’’ वहां पर होटल वाले को पिताजी ने हिदायत दी हुई थी.

मेरी पढ़ाई के उपरांत उत्तरकाशी से जब वापस आई तो मेरे लिए नौकरी की सब दिशाएं खुली थी. मैं कोई ‘जॉब’ करना चाह रही थी किन्तु पिताजी को मेरा विवाह किसी संभ्रान्त परिवार में राजकुमार जैसे दामाद से करने के सपने आने लगे थे. चूंकि पूरे क्षेत्र में अकेली ऐसी लड़की जो आठवीं से आगे की पढ़ाई के लिए रवांई क्षेत्र के बाहर से पढ़-लिख़कर आयी थीं.

कुंवर सिंह जो स्वयं भी टिहरी और नरेन्द्रनगर में नाजीर के पद पर रहे थे. उनका छोटा बेटा जगवीर रावत जो पढ़ाई में बहुत होनहार था उस दौर में इलाहाबाद जाकर तैयारी कर रहे थे ‘इन्जीनियरिंग’ की ट्रेनिंग कर अपने क्षेत्र के पहले ‘आर्केटेक्ट इन्जीनियर’ भी बने.)

लाखीराम ने अपने कुलपुरोहित गैर बनाल के सूर्यप्रसाद गैरोला को घर पर बुलाकर कुंवर सिंह के बेटे से रिश्ते के सम्बन्ध बात छेड़ने के लिए कहा. पंडित जी थोकदार रणजोर सिंह के घर चले गये. बातों की भूमिका बन जाने पर सूर्याप्रसाद जी ने कुंवर सिंह के पुत्र का विवाह लाखीराम की पुत्री सत्यभामा जो रवांई में एक मात्र पढ़ी-लिखी लड़की थी से करने की बात छेड़ दी. ऊहा-पोह की सी स्थिति बनी रही. दोनों परिवारों की आपस में दूर तक भी कोई रिश्ता नहीं था. बहुत उठा-पटक के बाद कुंवर सिंह रिश्ते की बात पक्की करने घोड़े पर बैठकर कण्डियालगांव गये. उन पर लाखीराम ने बाकायदा सोने की अशरफियों की पीठांई लगाई थी.

बारात जब आई तो हर बारातियों को उस दौर में पीठाईं लगायी गई और भव्य स्वागत हुआ. पच्चीस से तीस घोड़े दुल्हे की बारात में आये थे. दुल्हन जिस पालकी में बैठकर आयी उसे तब टार्च की रोशनी से पाट दिया था. क्षेत्र में कहीं भी बिजली नहीं थी. लोग टार्च की रोशनी को देखकर दंग रह गये थे. दुल्हन को विदा करने हजारों लोग कतार में दोनों ओर खड़े थे. इतना ही नहीं लाखीराम बडेड़ी ने बेटी को दहेज में अपनी हैसियत से जो कुछ दिया बावजूद सर गांव में पानी का नाला और कांठा तक (चरान चुगान क्षेत्) दान दिया हुआ है. आज भी बड़े बुजुर्ग सत्यभामा की पढ़ाई और शादी का जिक्र करना नहीं भूलते.

सत्यभामा अपने पति इं. जगवीर रावत अपने दो बेटों और एक बेटी के साथ लखनऊ में रह रही हैं दोनों बेटे भी इन्जिीनियर हैं एक लंदन में जॉब कर रहा तथा छोटा वाल दुबई में है. बेटी लखनऊ में जॉब पर हैं इतना ही नहीं इन्होंने न सिर्फ अपने परिवार के बच्चों को आगे बढ़ाया अपितु गांव-क्षेत्र के बच्चों का भी उचित मार्गदर्शन किया है.

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