उत्तरायणी पर विशेष
- डॉ. मोहन चंद तिवारी
कुमाऊं उत्तराखण्ड में मकर संक्रान्ति का
पर्व ‘उत्तरैंणी’, ‘उत्तरायणी या ‘घुघुती त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। उत्तराखंड हिमालय का क्षेत्र अनादिकाल से धर्म इतिहास और संस्कृति का मूलस्रोत रहता आया है।ज्योतिष
भारत मूलतः सूर्योपासकों का देश होने के
कारण यहां मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी का पर्व विशेष उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। मकर संक्रान्ति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखाई देती है। ऐसी मान्यता है कि मकर संक्रान्ति के दिन भगवान् भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूँकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं‚अतः इस दिन को मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है।ज्योतिष
महाभारतकाल में भीष्म पितामह ने
अपनी देह त्यागने के लिये उत्तरायण पक्ष में पड़ने वाले मकर संक्रान्ति के दिन का ही चयन किया था। मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं। मान्यता यह भी है कि इस दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये व्रत किया था।ज्योतिष
वैदिक आर्यों का राष्ट्रीय पर्व
उत्तरायणी का पर्व मूलतः सूर्यवंशी वैदिक आर्यों का राष्ट्रीय पर्व है। यह पर्व वैदिक कालीन आर्य किसानों का भी सांस्कृतिक पर्व है। मैंने अपनी पुस्तक “अष्टाचक्रा अयोध्या : इतिहास और परम्परा में यह जानकारी दी है कि
उत्तराखंड हिमालय वैदिक आर्यों का मूल निवास स्थान था और सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी बनने से पहले सरयू नदी का उद्गम कुमाऊं उत्तराखंड के बागेश्वर नामक स्थान पर हुआ और उसके बाद ही सरयू कौशल प्रदेश की ओर प्रवाहित हुई तथा सूर्यवंश के आदि राजा मनु ने राजधानी अयोध्या का अष्टाचक्रा नगरी के रूप में निर्माण किया।ज्योतिष
गंगा, यमुना,सरस्वती आदि सभी प्राचीन नदियों
से पहले सरयू का जन्म हुआ ,जिसे शिव और पार्वती धरती पर लाए थे।उसी स्थान पर आज कुमाऊं बागेश्वर में उत्तरायणी के दिन विशाल मेला लगता है।ज्योतिष
स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ का
सरयू सम्बन्धी पौराणिक आख्यान भी भारत में आर्य आगमन के इसी तथ्य पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है कि मानसरोवर से कुमाऊं उत्तराखंड की ओर प्रवाहित होता हुआ सरयू नदी का मार्ग वैदिक युग में कभी सूर्यवंशी भरतों का अयोध्या आगमन का मार्ग रहा था। बागेश्वर की सरयू और अयोध्या में बहने वाली सरयू एक ही नदी है।
ज्योतिष
भारतीय सभ्यता के आदिकाल से ही भारत के सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी आर्यों से उत्तराखंड हिमालय क्षेत्र का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ में ‘सरयू’ का मूल उद्गम मानसरोवर से माना गया है। हिमालय पर्वत
में वसिष्ठ आश्रम के बाईं ओर विष्णुचरणों से ‘सरयू’ नामक लोकपावनी नदी प्रकट होती है। वैदिक आर्यों के कुल पुरोहित महर्षि वसिष्ठ की घोर तपस्या से ‘सरयू’ का मानव लोक में आगमन सम्भव हो सका। वसिष्ठ मुनि अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं के लिए ही इस नदी को देवलोक से उत्तराखंड की गिरि-कन्दराओं के मार्ग से होते हुए नीचे कोशल देश तक लाए थे। उत्तराखंड हिमालय स्थित ‘बागेश्वर’ (व्याघ्रेश्वर) नामक धार्मिक तीर्थ स्थान से सरयू और वसिष्ठ मुनि की पौराणिक कथा आज भी इसी ऐतिहासिक तथ्य की ओर इंगित करती है।ज्योतिष
स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ का सरयू सम्बन्धी
पौराणिक आख्यान भी भारत में आर्य आगमन के इसी तथ्य पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है कि मानसरोवर से कुमाऊं उत्तराखंड की ओर प्रवाहित होता हुआ सरयू नदी का मार्ग वैदिक युग में कभी सूर्यवंशी भरतों का अयोध्या आगमन का मार्ग रहा था। बागेश्वर की सरयू और अयोध्या में बहने वाली सरयू एक ही नदी है।ज्योतिष
उत्तराखण्ड में सरयू नदी पिथौरागढ़ जनपद स्थित परगना दानपुर की नत्थीसुख पट्टी के पूर्व भाग में उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। इसका उद्गम इसी पट्टी के उत्तरी भाग कैंतेला पहाड़ की जड़ ‘सौंधार’ यानी ‘सरयूधारा’
बताया गया है। यहीं से चक्कर खाती हुई सरयू पञ्चेश्वर में ‘काली’ से मिल जाती है। ‘मानसखण्ड’ में ही यह उल्लेख भी आता है कि कूर्म के चरणों से उद्भूत होने के कारण यहां की समस्त नदियां जाह्नवी (गंगा) कहलाती हैं और इनका संगम सरयू में होता है-ज्योतिष
“तत्र याः सरितः प्रोक्ताः
कूर्मपादसमुद्भवाः।
ताःसर्वा जाह्नवीतुल्याः
सन्ति वै मुनिसत्तमाः।।
सरयूसंगमे सर्वाः
संगता नात्र संशयः।।”
ज्योतिष
कुमाऊं में संरक्षित है ‘उत्तरैंणी’ से ‘भारतराष्ट्र’ की सांस्कृतिक पहचान
वैदिक साहित्य के साक्ष्यों के सन्दर्भ में कहना चाहुंगा कि आज हमारे देशवासियों ने उत्तरायणी पर्व से जुड़े इस सांस्कृतिक और राष्ट्रीय महत्त्व को भुला दिया है। पर सरयू नदीं में स्नान परम्परा का धार्मिक महत्त्व कुम्भ स्नान से भी
कहीं अधिक है। कुम्भ पर्व से भी प्राचीन है बागेश्वर में बागनाथ के चरणों से बहती सरयू गोमती सरस्वती के संगम में स्नान का महत्त्व। इस दिन सरयू में स्नान करने का अर्थ है,जाड़े की ऋतु का समापन।ज्योतिष
कुमाऊं क्षेत्र में आज भी ‘उत्तरैंणी’ की इस ऋतुपर्व की परम्परा को जनश्रुतियों के माध्यम से याद रखा गया है। उत्तरायणी से पहले दिन ‘तत्त्वाणी’ यानी गर्म पानी से नहाने की प्रथा है तो दूसरे दिन उत्तरायणी को ठंडे पानी से नहाने के
कारण इसे ‘सिवाणी’ कहते हैं। उसका भी यही तात्पर्य है कि इस दिन लोग अपने क्षेत्र की स्थानीय नदियों में स्नान दान और ध्यान करते हैं। इस दृष्टि से यदि कुमाऊंनी मैं प्रचलित ‘उत्तरैंणी’, ‘तत्त्वाणी’ और ‘सिवाणी’ इन तीन शब्दों की भाषाशास्त्रीय पड़ताल करें, तो इस पर्व के सांस्कृतिक और खगोलीय महत्त्व को ज्यादा वैज्ञानिक धरातल पर जाना और समझा जा सकता है।ज्योतिष
मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्यदेव
दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करते हैं। इसलिए इसे कुमाऊंनी भाषा में :उत्तरैंणी’ या ‘उत्तरायणी’ कहते हैं,जिसे मकर संक्रांति पर्व के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों में उत्तरायण को देवताओं का दिन और दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि कहा गया है। इस प्रकार मकर संक्रान्ति का पर्व रात्रि से प्रभातकाल की ओर तथा अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने का पर्व है। इस दिन प्रभातकालीन सूर्य को साक्षी मानकर नदियों में स्नान करने का विशेष माहात्म्य है।
ज्योतिष
मकर संक्रान्ति के दिन तीर्थराज प्रयाग
और गंगा सागर आदि तीर्थ स्थानों में स्नान करने दूर दूर से तीर्थयात्री आते हैं। इस अवसर पर स्नान‚ दान‚ जप‚ तप‚ श्राद्ध तथा तर्पण आदि धार्मिक अनुष्ठानों का भी विशेष महत्त्व है। शीतकालीन ऋतु होने के कारण इस अवसर पर तिल-दान तथा वस्त्र-दान अत्यन्त पुण्यकारी माना गया है।ज्योतिष
भारत में पर्वों का निर्धारण चंद्रकलाओं द्वारा निर्धारित कालगणना एवं तिथिक्रम के अनुसार किया जाता है। खगोलीय दृष्टि से सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में संक्रमण, ‘उत्तरायणी’ या ‘मकर संक्रान्ति’ कहलाता है। भारतीय कालगणना के अनुसार प्रत्येक वर्ष में छह-छह महीनों के दो अयन होते हैं। सूर्य जब विषुवत रेखा के उत्तर मार्ग की ओर गतिशील रहता है तो उत्तरायण कहलाता है और दक्षिण मार्ग दक्षिणायन के
नाम से प्रसिद्ध है। मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्यदेव दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करते हैं। इसलिए इसे कुमाऊंनी भाषा में :उत्तरैंणी’ या ‘उत्तरायणी’ कहते हैं,जिसे मकर संक्रांति पर्व के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों में उत्तरायण को देवताओं का दिन और दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि कहा गया है। इस प्रकार मकर संक्रान्ति का पर्व रात्रि से प्रभातकाल की ओर तथा अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने का पर्व है। इस दिन प्रभातकालीन सूर्य को साक्षी मानकर नदियों में स्नान करने का विशेष माहात्म्य है।ज्योतिष
सूर्य से जुड़ी ‘भारतराष्ट्र’ की पहचान
भारतराष्ट्र की अवधारणा सूर्य के संवत्सर चक्र से जुड़ी एक ऋतु वैज्ञानिक अवधारणा है। वैदिक साहित्य में प्रजावर्ग का भरण पोषण करने के कारण सूर्य को वेदों में ‘भरत’ कहा गया है। उत्तरायण तथा दक्षिणायन मार्गों से भ्रमण करने के
कारण सूर्य को विष्णु के रूप में चक्रवर्ती सम्राट् माना गया है। यही कारण है कि वैदिक साहित्य में सूर्य को ‘राष्ट्र’ भी कहा गया है तथा ‘राष्ट्रपति’ भी। सूर्य की ‘भरत’ संज्ञा होने के कारण इस देश के सूर्योपासक लोगों का देश ‘भारतवर्ष’ कहलाया और वैदिक ऋषि विश्वामित्र के राष्ट्ररक्षा के स्तोत्रों के कारण इसे ‘भारतजन’ की संज्ञा प्राप्त हुई-ज्योतिष
“विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम्॥” -ऋग्वेद. 3.53.12
अर्थात् ऋषि विश्वामित्र कहते हैं ,”हे मनुष्यो ! हम वृष्टि के
अधिष्ठाता देव इंद्र की स्तुति करें जो अंतरिक्ष तथा पृथ्वी दोनों ओर से भारत में जन्म लेने वालों की रक्षा करता है।ज्योतिष
दरअसल, मकर संक्रान्ति हो या उत्तरायणी,
बिहार की छठ पूजा हो या दक्षिण भारत का पोंगल का पर्व सूर्य की उपासना से जुड़े भारतवासियों के लिए राष्ट्रीय और सांस्कृतिक अस्मिता के पर्व हैं।ज्योतिष
हमें अपने देश के उन आंचलिक पर्वों
और त्योहारों का विशेष रूप से आभारी होना चाहिए जिनके कारण भारतीय सभ्यता और संस्कृति की ऐतिहासिक पहचान आज भी सुरक्षित है। उत्तराखण्ड का उत्तरायणी पर्व हो या बिहार का छठ पर्व केरल का ओणम पर्व हो या फिर कर्नाटक की रथसप्तमी सभी त्योहार इस तथ्य को सूचित करते हैं कि भारत मूलतः सूर्योपासक वैदिक आर्यों का देश होने के कारण बारह महीनों के तीज-त्योहार यहां सूर्य के संवत्सर चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं।ज्योतिष
मकर संक्रांति के विविध रूप
भारत के विभिन्न प्रान्तों में मकर संक्रान्ति का पर्व विविध रूपों में मनाया जाता है। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व ही मनाया जाता है। इस दिन अँधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते
हुए तिल‚ गुड़‚ चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। उत्तर प्रदेश में इसे ‘खिचड़ी’त्योहार कहते हैं तथा इस दिन खिचड़ी का दान और सेवन अत्यन्त पुण्यकारी माना जाता है। राजस्थान में इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां तिल के लड्डू‚ घेवर आदि वस्तुओं पर रुपया रखकर अपनी सास को प्रणाम करते हुए उनसे आशीर्वाद लेती है। साथ ही महिलाएँ इस दिन किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं।ज्योतिष
महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास‚ तेल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल- गुड़ नामक हलवे के बाँटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल–गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं -‘तिल गूड़ ध्या आणि गोड गोड बोला’अर्थात् ‘तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। उत्तराखण्ड के लोग इसे ‘उत्तरायणी’या ‘घुघुती’ त्योहार के रूप में
मनाते हैं और काले कौए को घुघुते, खजूर के पकवान खाने के लिए बुलाया जाता है। बागेश्वर में बड़ा मेला लगता है। बंगाल में इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थींज्योतिष
तमिलनाडु में मकर संक्रान्ति
का पर्व ‘पोंगल के रूप में चार दिनों तक मनाने की परम्परा है। प्रथम दिन भोगी-पोंगल‚ द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल‚ तृतीय दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल और चौथे व अन्तिम दिन कन्या-पोंगल। इस प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है‚ दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशुधन की पूजा होती है।
ज्योतिष
इसलिए यहाँ गंगासागर में प्रति वर्ष विशाल मेला
लगता है। असम में यह पर्व ‘माघ-बिहु’ अथवा ‘भोगाली-बिहु’के नाम से मनाया जाता है।तमिलनाडु में मकर संक्रान्ति का पर्व ‘पोंगल के रूप में चार दिनों तक मनाने की परम्परा है। प्रथम दिन भोगी-पोंगल‚ द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल‚ तृतीय दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल और चौथे व अन्तिम दिन कन्या-पोंगल। इस
प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है‚ दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशुधन की पूजा होती है। पोंगल मनाने के लिये स्नान करके खुले आँगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है‚जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद सभी लोग खीर को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।ज्योतिष
उत्तरायणी के साथ जुड़ा है ऋतुविज्ञान और वृष्टिविज्ञान का इतिहास
सूर्य संक्रान्ति के इस पर्व के साथ धार्मिक तथा सामाजिक मान्यताओं के अतिरिक्त भारतीय काल गणना, नक्षत्रविज्ञान,वृष्टि विज्ञान एवं ऋतुविज्ञान के भी गूढ़ सिद्धान्त जुड़े हुए हैं। यह भारतवंशी सूर्योपासक आर्यों का ही वैज्ञानिक आविष्कार है जिसके अनुसार मकर संक्रान्ति के दिन से ही आगामी साढ़े छह महीनों तक मेघ सूर्य के वाष्पीकरण की प्रक्रिया से ‘वृष्टिगर्भ को धारण करते हैं तथा वर्षा ऋतु में
मानसूनी वर्षा इसी सफल ‘वृष्टिगर्भ का परिणाम है। प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक वराहमिहिर का वृष्टिगर्भ सिद्धान्त इन्हीं उत्तरायण तथा दाक्षिणायन पक्षों पर आधारित है। कृषि प्रधान भारतवासियों के लिए यथाकाल मानसूनों की वर्षा उनके जीविकोपार्जन का मुख्य आधार है और ऋतु वैज्ञानिक दृष्टि से यह प्रक्रिया सूर्य के द्वारा जल में प्रवेश करने से सम्पन होती है। पर्यावरण विज्ञान की दृष्टि से मकर राशि के स्वामी शनि को सूर्य का पुत्र जल माना गया है। मकर राशि में सूर्य का प्रवेश होने का तात्पर्य है वाष्पीकरण की सतत प्रक्रिया द्वारा मानसूनों का निर्माण होना जिसे भारतीय वैज्ञानिक ‘वृष्टिगर्भ’कहते हैं। मकर संक्रान्ति की प्रभात वेला में भारत वर्ष का कृषक वर्ग इसी वृष्टिकारक सूर्य को प्रणाम करते हुए कामना करता है–ज्योतिष
‘निकामे निकामे वर्षन्तु मेघाः’
-अर्थात् सूर्य देव समय समय पर
कृषि के अनुकूल वर्षा करें ताकि भारतवंशी आर्यों का यह देश अन्न-धन और सुख-समृद्धि से सम्पन्न हो सके। समस्त देशवासियों को मकर संक्रान्ति, उत्तरायणी, लोहड़ी, और पोंगल की हार्दिक शुभकामनाएं !!ज्योतिष
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’,
1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)