पर्वतीय राज्य का  स्वप्न 24 वर्षों के बाद भी रहा अधूरा

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Prakash Upreti

प्रकाश उप्रेती

सहायक प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

उत्तराखंड 25वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। 9 नवंबर की तारीख़ पर्वतीय राज्य का सपना देखने वालों के लिए ऐतिहासिक महत्व की है। उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक- 2000 को 1 अगस्त की देर शाम जब लोक सभा ने ध्वनिमत से पारित किया तो देश के नक्शे पर 27वें राज्य के रूप में उत्तराखंड (पर्वतीय राज्य की माँग के साथ) बनने का रास्ता साफ हुआ। 10 अगस्त को इस बिल को मंजूरी देने के पश्चात राष्ट्रपति ने 28 अगस्त , 2000 को राज्य के गठन की अधिसूचना जारी कर दी थी। अटल बिहारी बाजपेयी जी की सरकार ने 1 नवंबर, 2000 को उत्तराखंड की पहली सरकार गठन करने का फैसला किया, लेकिन पता चला कि उक्त दिन “ग्रह नक्षत्रों” के हिसाब से “शुभ” नहीं है। “शुभ” की आशा में 9 नवंबर, 2000 को नए राज्य ने आकार ग्रहण किया।

मानवजनित आपदाओं के प्रकोप से काँपते हुए जवानी की दहलीज तक पहुंचा यह राज्य 24 वर्षों में 12 मुख्यमंत्रियों को देख चुका है।  देश के किसी अन्य राज्य को 24 वर्षों में12 मुख्यमंत्री देखने का सौभाग्य तो नहीं ही मिला होगा।  इस मामले में उत्तराखंड और वहां की जनता स्वयं पर गर्व कर सकती है। दो-दो अस्थाई राजधानियों का बोझ भी यही राज्य उठा रहा है। स्थाई राजधानी का प्रश्न आज भी जस का तस बना हुआ है।  

वैसे तो पर्वतीय राज्य की संकल्पना के बीज हम- गढ़देश सेवा संघ, हिमालय सेवा संघ, पर्वतीय राज्य परिषद, पर्वतीय विकास परिषद,1968 में बोट क्लब की रैली और उसके बाद उत्तराखंड क्रांति दल का अस्तित्व में आना तथा राज्य आंदोलन के इस संघर्ष को तेज करना आदि के रूप में देख सकते हैं। कायदे से तो 9 नवंबर का दिन वर्तमान की चमक और भविष्य की भव्यता के स्मरण का दिन होना चाहिए था लेकिन हम आज भी इतिहास के पन्नों से धूल ही झाड़ रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों? यह सवाल हर उत्तराखंडवासी के मन को समय-समय पर विचलित करता है। देहरादून की सड़कों पर बेरोजगारी, नौकशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार और मूल निवास के लिए संघर्ष करते युवाओं को भी यह सवाल विचलित करता है ।

उत्तराखंड के साथ झारखण्ड राज्य भी अस्तित्व में आया था । झारखंड राज्य अपनी आदिवासी अस्मिता के साथ आगे बढ़ा और आज भी कायम है लेकिन उत्तराखंड का क्या हुआ ?

  1. उत्तराखंड राज्य गठन के पीछे जो पर्वतीय/ पहाड़ी राज्य की अस्मिता का सवाल था क्या हम उसको लेकर कभी चले भी ?
  2.  राजनैतिक पार्टियों के लिए क्या कभी पहाड़ की अस्मिता का सवाल मुख्य सवाल रहा ?
  3.  गैरसैंण की बजाय देहरादून को राजधानी बनाकर हमारे कर्ताधर्ताओं ने पर्वतीय राज्य की संकल्पना और पहाड़ी अस्मिता के सवाल की भ्रूण हत्या नहीं की ?

दुर्भाग्य देखिए कि यह राज्य आज भी स्थाई राजधानी के सवाल पर उलझा हुआ है। वैसे भी जब नेताओं की दीठ दिल्ली और पीठ पहाड़ की तरफ होगी तो राजधानी पहाड़ों में कैसे हो सकती है। हर सरकार जब विपक्ष में होती है तभी राजधानी का सवाल उठाती हैं। यह सवाल 24 वर्षों के बाद भी सवाल ही है।  

मानवजनित आपदाओं के प्रकोप से काँपते हुए जवानी की दहलीज तक पहुंचा यह राज्य 24 वर्षों में 12 मुख्यमंत्रियों को देख चुका है।  देश के किसी अन्य राज्य को 24 वर्षों में12 मुख्यमंत्री देखने का सौभाग्य तो नहीं ही मिला होगा।  इस मामले में उत्तराखंड और वहां की जनता स्वयं पर गर्व कर सकती है। दो-दो अस्थाई राजधानियों का बोझ भी यही राज्य उठा रहा है। स्थाई राजधानी का प्रश्न आज भी जस का तस बना हुआ है।कुछ समय पहले सरकार ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया है जबकि पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन के साथ ही गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग भी उठी थी लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि यह राज्य आज भी स्थाई राजधानी के सवाल पर उलझा हुआ है। वैसे भी जब नेताओं की दीठ दिल्ली और पीठ पहाड़ की तरफ होगी तो राजधानी पहाड़ों में कैसे हो सकती है। हर सरकार जब विपक्ष में होती है तभी राजधानी का सवाल उठाती हैं। यह सवाल 24 वर्षों के बाद भी सवाल ही है।  बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधनों को लेकर सरकारों की नीतियों पर किए गए सवाल भी 24 वर्षों में गाढ़े ही हुए हैं।  सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में बेरोजगारी दर 22.3% है।  पलायन का एक बड़ा कारण भी बेरोजगारी ही है।  इन 24 वर्षों में राज्य के सैकड़ों गांवों खाली हो चुके हैं।  पृथक राज्य बनने के बाद तकरीबन 32 लाख लोग पलायन कर चुके हैं।  सरकारी पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 1702 गांव भुतहा हो चुके हैं।  मतलब एकदम खाली हो चुके हैं और तक़रीबन 1000 गांव ऐसे हैं जहां 100 से कम लोग बचे हैं।

प्राकृतिक संसाधनों की लूट के मामले में तो इस राज्य का कोई मुकाबला है ही नहीं। सरकारी तन्त्र और भू-माफिया के गठजोड़ ने पूरे पहाड़ को फोड़ डाला है। सड़कों की माया में लाखों पेड़ काट डाले गए हैं। खनन माफियाओं ने नदियों को खत्म कर दिया है। यह सब 24वर्षों की अदला-बदली की सरकारों की देन ही है।  

पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 50% लोग रोजगार के कारण, 15% शिक्षा के चलते और 8% लचर स्वास्थ्य सुविधा की वजह से पलायन करने को मजबूर हुए। शिक्षा का हाल यह है कि कई गांवों में तो 20- 20 किलोमीटर तक कोई स्कूल ही नहीं है। कहीं स्कूल है तो शिक्षक नहीं हैं।  पिछले वर्षों में सरकार ने कई सारे स्कूल बंद भी किए।  शिक्षा की स्थिति आज भी 24 वर्ष पुरानी जैसी ही है। चिकित्सा सुविधाओं के मामले में तो राज्य का हाल ही खस्ता है।  एक तरफ जहाँ 30 से 40 किलोमीटर तक कोई सरकारी हॉस्पिटल नहीं है तो वहीं सुविधा के लिहाज से तहसील तक में बने सरकारी हॉस्पिटल में अल्ट्रासाउंड की मशीन और अन्य जाँच के उपकरण तक नहीं हैं। अल्मोड़ा जिले के ही 83 गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। आज भी इलाज के लिए दिल्ली ही आना पड़ता है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट के मामले में तो इस राज्य का कोई मुकाबला है ही नहीं। सरकारी तन्त्र और भू-माफिया के गठजोड़ ने पूरे पहाड़ को फोड़ डाला है। सड़कों की माया में लाखों पेड़ काट डाले गए हैं। खनन माफियाओं ने नदियों को खत्म कर दिया है। यह सब 24वर्षों की अदला-बदली की सरकारों की देन ही है।  24 वर्षों की वह तस्वीर है जो स्थापना दिवस की चकाचौंध में कहीं नजर नहीं आएगी। वहां नजर आएगी तो बस फाइलों में दर्ज विकास की इबारतें जो कभी जनता तक पहुँच ही नहीं पाई।  अदम गोंडवी ने लिखा-“तुम्‍हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है” वास्तविकता भी यही है।

पर्वतीय राज्य की अवधारणा में हिमालयी संस्कृति, पहचान, नदी, खेत, जंगल, बुग्याल, तीर्थ, देवी-देवता सभी कुछ थे। क्या इन 24 वर्षों में वो बचे हैं या लूटे हैं? हिमालय जो इस राज्य की ताकत है, आज वही सबसे ज्यादा कमजोर हो गया है। बुग्याल निजी भूमि में बदल गए हैं। देवभूमि की अवधारणा धीरे-धीरे धूमिल हो रही है, तीर्थ पिकनिक स्पॉट में बदल रहे हैं। भूमि का अंधाधुंध दोहन जारी है। सन् 1960-64 में भूमि का बंदोबस्त हुआ था। उसके बाद 2004 में होना था, जो आज तक नहीं हुआ।

पर्वतीय राज्य की अवधारणा में हिमालयी संस्कृति, पहचान, नदी, खेत, जंगल, बुग्याल, तीर्थ, देवी-देवता सभी कुछ थे। क्या इन 24 वर्षों में वो बचे हैं या लूटे हैं? हिमालय जो इस राज्य की ताकत है, आज वही सबसे ज्यादा कमजोर हो गया है। बुग्याल निजी भूमि में बदल गए हैं। देवभूमि की अवधारणा धीरे-धीरे धूमिल हो रही है, तीर्थ पिकनिक स्पॉट में बदल रहे हैं। भूमि का अंधाधुंध दोहन जारी है। सन् 1960-64 में भूमि का बंदोबस्त हुआ था। उसके बाद 2004 में होना था, जो आज तक नहीं हुआ। 8 दिसंबर , 2018 को जो संसोधन किया गया, उसके बाद तो अब- पहाड़ों  में जमीनों की लूट का रास्ता खुल गया। इसके बाद पहाड़ों में  कृषि भूमि को कोई भी कितनी भी मात्रा में खरीद सकता है। पहले इस अधिनियम की धारा-154 के अनुसार कोई भी कृषक 12.5 एकड़ यानी 260 नाली जमीन अपने पास रख सकता था।  इससे अधिक जमीन पर सीलिंग थी। नए संशोधन में इस अधिनियम की धारा 154 (4) (3) (क) में बदलाव कर दिया गया है। नए संशोधन में धारा- 154 में उपधारा (2) जोड़ दी गई है। इससे कृषक होने की बाध्यता समाप्त हो गई है। इसके साथ ही 12. 5 एकड़ की बाध्यता को भी समाप्त कर दिया गया है।

“राज्य में बाहरी व्यक्तियों के द्वारा जो भूमि की खरीद-फरोख्त की गई है उसके संबंध में एक अनुमान है कि अभी तक लगभग 100000 हैक्टेयर जमीन स्थानीय लोगों के हाथ से निकलकर बाहरी व्यक्तियों के हाथ में चली गई है। साथ ही राज्य बनने के बाद कृषि भूमि का क्षेत्रफल लगभग 90000 हैक्टेयर घट गया है।” ऐसे में पर्वतीय राज्य की अस्मिता और राज्य संकल्पना की अवधारणा कहाँ बची है ? इन 24 वर्षों में हमने राजनीतिक राज्य के रूप में बहुत कुछ पाया है लेकिन एक पर्वतीय एवं सांस्कृतिक राज्य के रूप में जो था उसको भी गंवा दिया।

तरुण जोशी हिमांतर पत्रिका में छपे अपने लेख में एक आंकड़ा देते हैं- “राज्य में बाहरी व्यक्तियों के द्वारा जो भूमि की खरीद-फरोख्त की गई है उसके संबंध में एक अनुमान है कि अभी तक लगभग 100000 हैक्टेयर जमीन स्थानीय लोगों के हाथ से निकलकर बाहरी व्यक्तियों के हाथ में चली गई है। साथ ही राज्य बनने के बाद कृषि भूमि का क्षेत्रफल लगभग 90000 हैक्टेयर घट गया है।” ऐसे में पर्वतीय राज्य की अस्मिता और राज्य संकल्पना की अवधारणा कहाँ बची है ? इन 24 वर्षों में हमने राजनीतिक राज्य के रूप में बहुत कुछ पाया है लेकिन एक पर्वतीय एवं सांस्कृतिक राज्य के रूप में जो था उसको भी गंवा दिया। अभी भी पर्वतीय राज्य के नाम पर जो कुछ बचा- कुचा था उसे 2025-26 में होने वाला परिसीमन खत्म कर देगा-  उत्तराखंड में भौगोलिक दृष्टि से लगभग 85% भू- भाग पहाड़ी और 15% भू-भाग मैदानी क्षेत्र में आता है। पलायन के कारण 85% भू-भाग में 42.5% और 15% में  57. 5% जनसंख्या रहती है। 2002 के परिसीमन में पहाड़ में- 40 और मैदान में- 30 सीटें हुई फिर 2012 के परिसीमन में- पहाड़ में- 34 और मैदान में- 36 सीटें हो गईं। 2026 में होने वाले परिसीमन के बाद क्या स्थिति होगी उसका अंदाजा आप लगा सकते हैं!  अब सोचिए अगर सारी पॉलिटिकल पॉवर मैदान में ही सिमट जाएगी तो पहाड़ के हिस्से क्या आएगा?

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