- सुनीता भट्ट पैन्यूली
सर्द मौसम है, कभी बादल सूर्य को आगोश में ले लेते हैं कभी सूरज देवता बादलों को पछाड़कर धूप फेंकते यहां-वहां नज़र आ जाते हैं, कभी पेड़ो के झुरमुट में, कभी आसमान
में प्रचंड चमकते, कभी खेतों के पीछे, कभी पहाड़ियों में धीरे-धीरे सरकते कभी नदी का माथा चूमते किंतु इस धूप में ताबिश नहीं है बनिस्बत इसके सर्दी की धूप में कहीं न कहीं नमी भी है. जरा-सी धूप मलने का मन हो देह में तो एक चुभन भरी हवा चेहरे को छूकर, सर्र से कानों से होकर गुज़र जाती है.माथा
फिर क्या किया जाये? नमी और कोहरे भरे दिन से धूप का आंख-मिचौली करना कहां सुकून दे पाता है ठिठुरते शरीर को. झट से ओढ़ लिये जाते हैं शाल, स्कार्फ,
कैप या टोपी तब कहीं जाकर निजात मिल पाती है ठंड से.कड़कड़ाती ठंड हो और दांत किटकिटा रहे हों ऐसे में टोपी, स्कार्फ़ मफलर पहनने का ख़्याल न आये तो सर्दी का मजा लेना बेईमानी है.
माथा
बाज़ार में रंग-बिरंगी विभिन्न आकार
और डिज़ाइन वाली टोपियों की बहार है. आन-लाईन सेल में भी टोपियां धकापेल बिक रही हैं और फेसबुक में भी टोपी चैलेंज की बाढ़ आ गयी हैं टोपी पहनी हुई तस्वीरों की, यक़ीनन बहुत ख़ूबसूरत दिखती हैं ये टोपी वाली तस्वीरें. यदाकदा मैं भी टोपी वाली तस्वीर पोस्ट कर देती हूं फेसबुक में.माथा
मेरे फेसबुक मित्र शशि मोहन रवांल्टा जी से एक दिन जानकारी मिली की उनको टोपियों का बहुत शौक है और रोचक संग्रह है उनके पास टोपियों का. उसी समय जिज्ञासा हुई मुझे टोपियों का इतिहास जानने की और विभिन्न प्रकार की टोपियों के बारे में पढ़ने की. टोपियों के बारे में अनंत उपलब्ध है विभिन्न साइट्स में टोपियों के बारे में इतना लिखना संभव नहीं किंतु इतना जान पायी कि सिर को ढकने की परंपरा का आगाज़ तो भारत में ही हुआ किंतु रोमन, ग्रीक, फारस, हुण, कुषाण, मंगोल, मुगल आदि के काल में भारतीय परिधानों के साथ ही सिर के पहनावे में भी बदलाव आता गया.
माथा
नई, टोपियां या साफे प्रचलन
में आये और हम भारतीयों ने इनमें स्वयं को पहले की अपेक्षा ज़्यादा सहज महसूस किया. सिर के पहनावे को कपालिका, शिरस्त्राण, शिरावस्त्र या सिरोवेष कहते हैं.यह सिर का पहनावा हर प्रांत में अलग नाम व अलग रंग-रूप में होता है. हमारे यहां पगड़ी (साफा) और टोपी पहनने का प्रचलन है, दोनों में फ़र्क भी है और दोनों का
अपना-अपना ढंग और परंपरायें भी हैं धारण करने की. पगड़ी का इतिहास ख़ासतौर पर राजपूत समुदाय से जुड़ा हुआ है. इसे पाग साफा और पगड़ी कहा जाता है.राजस्थान में राजपूत समाज में साफों के अलग-अलग रंगों व बांधने की अलग-अलग शैली का इस्तेमाल समय के अनुसार होता है जैसे युद्ध के समय राजपूत सैनिक
केसरिया साफा पहनते थे अतः केसरिया रंग का साफा युद्ध और शौर्य का प्रतीक बना, सामान्यतः बुजुर्ग खाकी रंग का गोल साफा सिर पर पहनते हैं और विभिन्न समारोहों में पचरंगा, चुंदड़ी, लहरिया आदि रंग-बिरंगे साफो का प्रयोग होता है. सफेद रंग का साफा शोक का पर्याय माना जाता है.
माथा
यदि बात केवल साफे की हो तो मालवा
में अलग प्रकार के और राजस्थान में अलग प्रकार का साफा बांधा जाता है. जिसे फेटा भी कहा जाता है. महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा,पंजाब में यह अलग होता है तो तमिलनाडु में अलग.राजस्थानी में मारवाड़ी साफा अलग होता है तो सामान्य राजस्थानी में अलग.माथा
राजस्थान में राजपूत समाज में साफों के
अलग-अलग रंगों व बांधने की अलग-अलग शैली का इस्तेमाल समय के अनुसार होता है जैसे युद्ध के समय राजपूत सैनिक केसरिया साफा पहनते थे अतः केसरिया रंग का साफा युद्ध और शौर्य का प्रतीक बना, सामान्यतः बुजुर्ग खाकी रंग का गोल साफा सिर पर पहनते हैं और विभिन्न समारोहों में पचरंगा, चुंदड़ी, लहरिया आदि रंग-बिरंगे साफो का प्रयोग होता है. सफेद रंग का साफा शोक का पर्याय माना जाता है.माथा
मुगलों ने अफगानी, पठानी
और पंजाबी साफे को अपनाया.सिक्खों ने इन्हीं साफे को जड्डे में बदल दिया जो कि उन्हें एक अलग ही पहचान देता है.शंकराचार्य जब
उत्तराखंड आये तो उनके साथ और उनके बाद काफी मराठी ब्राह्मण भी यहां आये और फिर यहीं बस गये. मराठियों के साथ उनकी मराठी टोपी भी यहां आ गयी उसके बाद यहां टोपी पहनने का चलन शुरु हो गया इस प्रकार जिसे उत्तराखंडी टोपी कहा जाता है वह मूलतः महाराष्ट्र से आयी है लेकिन वे उजली टोपी पहनते थे जो बाद में गांधी टोपी कहलायी.
माथा
हमारा भारत देश विविध
परंपराओं, परिधानों एवं मान्यताओं का देश है.इसी देश के अवांतर भिन्न-भिन्न प्रांत हैं और उनकी वेश- भूषायें हैं जो उस प्रांत की विशिष्ट पहचान और संस्कृति को निर्धारित करती है उसी वेषभूषा का अभिन्न हिस्सा है “टोपियां” जो सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ-साथ हमें मौसम के अनुसार सुरक्षा प्रदान करती है. इन्हीं टोपियों में खास टोपियां हैं उत्तराखंड की गढ़वाली टोपी, हिमाचली टोपी,नेपाली टोपी,तमिल टोपी, मणिपुरी टोपी, पठानी टोपी, हैदराबादी टोपी आदि अनेक प्रकार की टोपियां आज भी प्रचलन में हैं इन्हीं टोपियों की फ़ेहरिस्त में गांधी टोपी भी है जिसे कभी गांधी जी ने पहना होगा.दरअसल गांधी टोपी कि बात करें तो गांधी टोपी अमूमन खादी से बनायी जाती है और आगे और पीछे से जुड़ी हुई होती है तथा उसका मध्य भाग फूला हुआ होता है इस प्रकार की टोपी
के साथ महात्मा गांधी का नाम जोड़कर इसे गांधी टोपी कहा जाता है किंतु इस का अर्थ ये नहीं कि गांधी जी ने इस टोपी का अविष्कार किया था. यहां इस बात का ज़िक्र करना माकूल है कि उत्तराखंड में पहनी जाने वाली टोपियां भी गांधी टोपी के रूप में प्रचलित हुईं माना जाता है कि उत्तराखंड के मूल निवासियों की अपनी कोई विशेष पहाड़ी टोपी नहीं है यहां के मूल निवासी टोपी नहीं बल्कि पग्गड़ (डांटा) पहनते थे.माथा
रामपुरी टोपी महात्मा गांधी के
साथ आठ दशक पूर्व शुरु हुई.1931 में जब बापू मोहम्मद अली जौहर से मिलने रामपुर पहुंचे थे उस वक़्त बी अम्मा ने हाथों से बनी सूती कपड़े की टोपी महात्मा गांधी को भेंट की यही टोपी बाद में गांधी टोपी के नाम से मशहूर हुई.
माथा
शंकराचार्य जब उत्तराखंड आये
तो उनके साथ और उनके बाद काफी मराठी ब्राह्मण भी यहां आये और फिर यहीं बस गये. मराठियों के साथ उनकी मराठी टोपी भी यहां आ गयी उसके बाद यहां टोपी पहनने का चलन शुरु हो गया इस प्रकार जिसे उत्तराखंडी टोपी कहा जाता है वह मूलतः महाराष्ट्र से आयी है लेकिन वे उजली टोपी पहनते थे जो बाद में गांधी टोपी कहलायी. आजादी के आंदोलन में यह स्वतंत्रता सेनानियों की पहचान बन गयी थी किंतु टिहरी के राजा को सफेद टोपी से चिढ़ हो गयी थी क्योंकि इसे स्वाधीनता सेनानी पहनते थे अतः राजा ने सफेद टोपियों पर प्रतिबंध लगा दिया और परिणामस्वरूप काली टोपी प्रचलन में आयी.माथा
एक दूसरी रामपुरी टोपी
का ज़िक्र भी गांधी टोपी के संबंध में करते हैं .रामपुरी टोपी महात्मा गांधी के साथ आठ दशक पूर्व शुरु हुई.1931 में जब बापू मोहम्मद अली जौहर से मिलने रामपुर पहुंचे थे उस वक़्त बी अम्मा ने हाथों से बनी सूती कपड़े की टोपी महात्मा गांधी को भेंट की यही टोपी बाद में गांधी टोपी के नाम से मशहूर हुई.माथा
हिमाचल की टोपीयों का ज़िक्र
न हो तो टोपियों की शान में गुस्ताख़ी होगी. हिमाचल प्रदेश अपने ख़ूबसूरत सौंदर्य ,अपनी प्राचीन वेष-भूषा, खान-पान संस्कृति, कलाकृतियों व भिन्न-भिन्न परंपराओं के लिए जाना जाता है. हिमाचल की पहाड़ी टोपी को पहले बुज़ुर्ग ही अपने सर पर सजाते थे परंतु युवाओं में भी अपने परिधान अपनी परंपरा अथार्त अपनी थाती हिमाचली टोपी को पहनने का उत्साह दिख रहा है.माथा
हिमाचली टोपी
हिमाचली लोगों के जीवन में एक अहम स्थान रखती है. शादी-ब्याह, तीज, त्योहार या कोई भी मांगलिक कार्य का अवसर हो हिमाचली लोगों के इन अवसर पर टोपी पहनाने की परंपरा काफी पुरानी है.माथा
यमुना घाटी के रवांई में
पहने जाने वाली टोपी ‘रवांल्टी टोपी’ के नाम से प्रसिद्ध है. रवांई में ऊन की बनी गोल टोपी प्रचिलत है. इसको ‘सिकली’, ‘सेकई’ या ‘फेडसेकई’ कहते हैं.
माथा
किसी राजनीतिक, फिल्मी या विदेशी हस्तियों को हिमाचलियों द्वारा टोपी पहनाकर स्वागत करना भी हिमाचलियों की परंपरा है और बहुत सम्मान की बात मानी जाती है. हिमाचली टोपियों का इस्तेमाल विभिन्न रंगों में किया जाता है जैसे हरा और लाल रंग यह हिमाचल के गर्व से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि यह मेहमानों के सम्मान में भी विवाह और अन्य उत्सवों के दौरान विशेष स्थान पाता है.
हिमाचली टोपियां तीन प्रकार की होती हैं-
माथा
- कुल्लुवी टोपी (कुल्लु जिला)
- बुशहरी टोपी (रामपुर,बुशहर)
- किन्नौरी टोपी (किन्नौर)
माथा
यमुना घाटी के रवांई में पहने जाने
वाली टोपी ‘रवांल्टी टोपी’ के नाम से प्रसिद्ध है. रवांई में ऊन की बनी गोल टोपी प्रचिलत है. इसको ‘सिकली’, ‘सेकई’ या ‘फेडसेकई’ कहते हैं. प्राय बाजगी लोग जो पूर्व में वाद्ययंत्रों के साथ-साथ सिलाई का कार्य भी किया करते थे वही इसी बनाने में पारंगत होते थे. टोपी को बनाने के लिए वह एक गोलाकार आकृति का प्रयोग करते हैं जिसे सांचा कहा जाता है. टोपी को सुसज्जित करने के लिए कई बार स्थानीय लोग ब्रह्मकमल और हरैई (हरियाली) की छुपकी को भी टोपी के ऊपर लगाते हैं. टोपी सर्दी व गर्मी दोनों मौसमों के लिए अनुकूलित होने के साथ-साथ प्रतिष्ठा का भी महत्वपूर्ण सूचक माना है.माथा
टोपियां पहनने का प्रचलन जितना
भारत में है उतना पश्चिमी देशों में भी है बल्कि वहां टोपियां फैशन के तौर पर अधिक पहनी जाती हैं.काटन टोपियां यह दुनिया भर में इस्तेमाल की जाने वाली टोपियों की आम किस्म है.ऊन की टोपियां जो कि भेड़ के बालों से बनी होती है जो कि बहुत नर्म और लचीली होती है
और बहुत गर्म होती हैं, चमड़े की टोपी जानवरों के चमड़े से बनायी जाती हैं और बहुत टिकाऊ होती हैं.पालिएस्टर टोपी सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली आधुनिक टोपी होती है.माथा
Fedora caps-इन टोपियों पर
छोटे फोल्ड होते हैं और इन टोपियों में रेशमी रिबन भी होता है जो इस कैप को दूसरी कैप से अलग बनाते हैं.Boater caps- जैसा कि नाम से ही ज्ञात हो रहा है इन टोपियों में फ्लैट टाप और फ्लैट ब्रिम होता है.
Sun Caps- ये टोपियां सिर
को अच्छी तरह से कवर करती हैं चेहरे और कंधों को धूप से बचाने के लिए ये इस तरीके से डिज़ाईन की गयी हैं. लंबाई और ऊंचाई को कई इंच तक बदला जा सकता है.माथा
बेसबॉल cap-यह कैप सबसे अधिक
इस्तेमाल की जाने वाली कैप है इसमें टोपी का अगला भाग लंबा होता है जो चेहरे को ढकता है.न्यूज़ boy caps, यह फ्लैट कैप के समान है और इसे एपल cap के नाम से भी जाना जाता है.टोपी के मुख्य भाग के साथ संलग्न करने के लिए शीर्ष पर बटन होता है.यह शैली
उन्नीसवीं शताब्दी में लोकप्रिय थी और अभी भी अपने फैशन के कारण लोकप्रिय है.माथा
Pork pie caps-यह फेडोरा कैप के
जैसे ही होती हैं.इन कैप्स में ब्रोय ,पंख और अन्य सजावटी चीजें हैं इसलिए ये उच्चतम स्तर के फैशन कैप हैं.Bobble Cap-इस टोपी के
शीर्ष पर एक डिजाईन है.ये फर वाली विभिन्न आकार की टोपियां होती हैं.Beret Cap-ये गोल
और सपाट होते हैं जिसे ऊन जैसे कपड़ों से बुना जाता है.इस कैप को समय के साथ एक उच्च फैशन एक्सेसरी के रुप में विकसित किया गया है.माथा
Top Cap-यह फार्मल टोपी होती है यह शीर्ष पर उच्च सिलेंडर आकार में रहता है.
Beanie Cap,इन्हें आम तौर पर ठंड के मौसम के लिए उपयोग किया जाता है.इन कैप्स में सिर को पूरी तरह ढकने की क्षमता होती है.
माथा
Mortarboard Caps- ये एकेडमिक ड्रेसिंग के
लिए एक आइटम के रूप में उपयोग की जाने वाली कैप है.इसे स्कवायर अकादमी टोपी,स्नातक टोपी या आक्सफोर्ड टोपी भी कहते हैं.माथा
Visor Cap-ये स्पोर्टी कैप आम तौर पर
गोल्फ या टेनिस खेलने के लिए उपयोग की जाती हैं.ये सूरज से चेहरे की रक्षा करते हैं.इन कैप्स में फिटिंग को समायोजित करने के लिए प्लास्टिक की ज़िप होती है.Bucket Caps-ये हल्के और हवादार होती हैं जो धूप में दिन बिताने में मदद करती हैं.इन टोपियों में गोल मुकुट होता है और पूर्ण सुरक्षा देने के लिए आंखों की ओर झुके होते हैं.
उपरोक्त टोपियों के अतिरिक्त कुछ और कैप जैसे पनामा, trapper, fascinator, pillbox, bowler cap आदि भी पश्चिम देशों में ख़ूब प्रचलित हैं.
माथा
टोपियों की भी अपनी गाथायें हैं अपना वजूद है जिनसे सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, कर्तव्य, संस्कृति का प्रसार जुड़ा है, अपनी अलग सामुदायिक पहचान, अपनी थाती, अपनी धरोहर बचाने के लिए भी नयी पीढीयों का टोपी धारण करना सराहनीय है.
माथा
इन सभी टोपियों के अतिरिक्त नेपाली टोपी जिसे ढाका टोपी भी कहा जाता है नेपाल में बहुत प्रसिद्ध है.दरअसल जिस कपड़े से यह टोपी बनायी जाती है उसे ढाका कहते हैं इसलिए इस टोपी का नाम ढाका टोपी पड़ा है.
माथा
एक और टोपी होती है जिसे बोहरा टोपी कहते हैं. बोहरा की महिलायें रिदा पहनती हैं जिसमें महिलाओं का चेहरा नहीं ढका होता है जबकि पुरूष सफेद रंग की टोपी जिसमें सुनहरे रंग की एम्ब्राइडरी होती है पहनते हैं जिसे बोहरा टोपी कहा जाता है.
इसके अलावा ताकि यह टोपी भी होती है जो रंग-बिरंगी, छोटी और गोलाकार होती हैं.
माथा
टोपियों के अथाह रंग विश्वभर में फैले हुए हैं जिनका संक्षिप्त नाम लेना ही मेरे बस में है इनमें अफगानी पकोल टोपी, पश्तुन टोपी, मस्कती टोपी, सुडानी टोपी, तुर्की टोपी,लखनवी दो पल्ली टोपी, शंकु के आकार की टोपी तुर्की भी विशेष महत्व रखती हैं.
माथा
टोपियां न केवल हमें सर्दी, धूप व बारिश से बचाती हैं बल्कि ये टोपियां सामाजिक प्रतिष्ठा का भी परिचायक हैं. भारत देश ही अकेला देश है जहां इतनी विविधता है हर किसी धर्म या समुदाय का अपना अलहदा अंदाज़ है पहनावा धारण करने का उसी सलीके में रहना का.
टोपियों की भी अपनी गाथायें हैं अपना वजूद है जिनसे सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, कर्तव्य, संस्कृति का प्रसार जुड़ा है, अपनी अलग सामुदायिक पहचान, अपनी थाती, अपनी धरोहर बचाने के लिए भी नयी पीढीयों का टोपी धारण करना सराहनीय है.
(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)