जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा भाग-3
- सुनीता भट्ट पैन्यूली
मेरी हथेली पर ऊंचाई से
टक से दस का सिक्का फेंकने के पीछे मकसद क्या था उस कंडक्टर का? क्या उसकी मनोवृत्ति थी आज तक नहीं समझ पायी मैं किंतु कॉलेज के सफ़र की अविस्मरणीय स्मृतियों में कंटीली झाड़ में बिच्छु घास सी उग आयी घटना है यह मेरे जीवन में.हथेली
कई हादसों की होने कीआवाज़ नहीं
होती है किंतु जिनसे होकर वह गुज़रते हैं यक़ीनन गोलियों के भेदने के उपरांत छिद्र से कर जाती हैं उनके जे़हन में जिन्होंने भोगा है इस यथार्थ को.हथेली
हादसा छोटा सा था या मैं ही
उसे विस्तार दे रही हूं इसका निर्णय आप पाठकों पर छोड़ती हूं.कॉलेज से शाम को घर पहुंच चुकी
थी मैं आज के अनुभव ने अनजाने ही सही पैठ बना ली थी मेरे मष्तिष्क में.कॉलेज में
अपनी किताबों को गर्व से निहारा और पन्ने दर पन्ने पलटते ही न जाने कहां कॉरपोरेट की दुनिया में पहुंच गयी. असाइनमेंट करते हुए मैं पढ़ रही थी कंपनी के भीतर काम
करने के सलीके के बारे, कर्मचारी उनके जीवन और कार्य-स्थल, एचआर मैनेजर, blue collar, white collar, Performance appraisal, 360° फीडबैक या assessment ना जाने क्या-क्या terms से होकर गुजर रही थी मैं.
एडमिशन
आफिस बाबू ने पहले ही बता दिया था
कि पंद्रह दिन में ही आपको असाइनमेंट जमा करने हैं और जल्दी ही आपको राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय इलाहाबाद द्वारा स्टडी मैटीरियल मुहैया करवा दिया जायेगा कुरियर या डाक द्वारा, इसी इंतज़ार में कुछ दिन दो एक दिन बीते और एक दिन अचानक से घर पर मुझे किताबों का मोटा सा बंडल मिल गया यह ध्यान नहीं है कुरियर द्वारा मिला या डाक द्वारा .लेने से
कौतुहलवश घर के भीतर पहुंच कर
किताबों के बंडल को बेतरतीब फाड़कर अपनी किताबों को गर्व से निहारा और पन्ने दर पन्ने पलटते ही न जाने कहां कॉरपोरेट की दुनिया में पहुंच गयी. असाइनमेंट करते हुए मैं पढ़ रही थी कंपनी के भीतर काम करने के सलीके के बारे, कर्मचारी उनके जीवन और कार्य-स्थल, एचआर मैनेजर, blue collar, white collar, Performance appraisal, 360° फीडबैक या assessment ना जाने क्या-क्या terms से होकर गुजर रही थी मैं. सच बताऊं आर्ट की स्टूडेंट होने के कारण यह सब मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर था सोच रही थी बहन ने कहां मुझे फंसा दिया.पहले
पंद्रह दिन का समय था मेरे
पास असाइनमेंट जमा करने के लिए स्वयं ही मैंने अपनी पीठ थपथपाकर दिलासा दी स्वयं को कि कोई बात नहीं होगा तो होगा मुझसे नहीं भी होगा तो कोई घर से कोई बंदिश तो नहीं थी सिर पर मेरे हां किसी की भावनाओं की, आशाओं की बेड़ियों में ज़रूर जकड़ा पाया मैंने स्वयं को जिसका मैं आगे ज़िक्र करूंगी और यह सब समझने के लिए कोर्स के बनिस्बत.मेरे अनुभव के इस हिस्से में
आप सभी पाठकों को कुछ अलग भी झांकना होगा..पढ़ें— अर्थ और सौंदर्य से ही स्त्री जीवन में आता है नयापन!
की बात
चमत्कार होते हैं यह सर्वमत है
कहना मुश्क़िल है मेरे लिए किंतु अपने मन कि बात कहूं तो ऐसा कुछ व्यक्तिगत अनुभव किया है मैंने. उन दिनों हमारे परिवार और मोहल्ले में वैभव लक्ष्मी के व्रत लेने का चलन जोरों पर था, जोश-जोश में एक दूसरे को देखकर बिना किसी उद्देश्य निर्धारण के मैं भी इस मुहिम में कूद पड़ी यह सुना था मैंने कि वैभव लक्ष्मी के व्रत लेने से धन संपदा और सुख समृद्धि आती है.घर वापस आने लगी
तो पिताजी ने झट अपनी अलमारी खोली और एक बड़ी रक़म मेरे हाथ में थमा दी कितनी ना-नुकुर की किंतु वे नहीं माने रास्ते में ड्राइविंग करते हुए मुस्कराते हुए सोच रही थी वैभव लक्ष्मी व्रत का बोलबाला यूं ही तो नहीं है शहर में मेरा व्रत लेना भी तो फलीभूत हुआ है.
है
यह कॉलेज में एडमिशन लेने से v पहले की बात है वैभव लक्ष्मी के ग्यारह व्रत लेने के उपरांत उद्यापन के अगले ही दिन प्रसाद देने मां के घर गयी सोचा कॉलेज में आगे पढ़ाई करने के बाबत मां पिताजी दोनों को बता दूंगी.
घर वापस आने लगी तो पिताजी ने झट
अपनी अलमारी खोली और एक बड़ी रक़म मेरे हाथ में थमा दी कितनी ना-नुकुर की किंतु वे नहीं माने रास्ते में ड्राइविंग करते हुए मुस्कराते हुए सोच रही थी वैभव लक्ष्मी व्रत का बोलबाला यूं ही तो नहीं है शहर में मेरा व्रत लेना भी तो फलीभूत हुआ है.वैभव
किंतु यदि कोर्स नहीं कर पाती अब
तो धराशायी हो जाती पिता की उम्मीद और उनके सपने जो वह देख रहे थे मेरे लिए और फीस भरकर कोर्स न करने का मलालभी जायज़ तो था मेरे लिए क्योंकि PGDHRD कोर्स की बुनियाद में पहली ईंट पिता के सहयोग की जो धरी गयी थी. असाइनमेंट पंद्रह दिन में कॉलेज में जमा करने हैं इसी डर के ज्वर में मैं फटाफट घर के काम निपटाती और अपने कमरे में बैठ कर दुकान सजा देती किताबों और आंसर शीट की पढ़ती जाती और एसांइनमेंट बनाती जाती मुझे कहां कुछ आता था छोटी बहन फोन पर मदद कर रही थी ख़ैर प्रयास और मेहनत तो मुझे भी करनी थी अपने स्तर पर.
के ग्यारह
असाइनमेंट थे कि ख़त्म होने का
नाम ही ले नहीं ले रहे थे पैन वर्षों बाद हाथ में पकड़ा था बमुश्क़िल साथ दे रहा था मेरे लिखने में दुनिया भर की कांट-छांट ,कभी पेपर फाड़ती फिर दूसरा लिखती,सहेली से भी मदद ली असाइनमेंट लिखने में सहयोग करने के लिए, सहेली इतनी ख़ासमख़ास थी कि सहर्ष ही तैयार हो गयी मुझे सहयोग करने के लिए अंतरंग सहेलियां ऐसी ही होती हैं नि:स्वार्थ.असाइनमेंट
अंततः असाइनमेंट लिखने का
पारितोष यह मिला कि किताबों से मेरी दोस्ती होने लगी कारपोरेट वर्ल्ड लुभाने लगा मुझे किताबों के भीतर भी और बाहर भी. कारपोरेट के इस तिलिस्म को जानने के लिए मैं अपनी किताबों के सागर की गहराई में घुसती ही चली जा रही थी.लिखने
पंद्रह दिन समाप्त हो गये
असाइनमेंट भी मेरे निपट गये थे अब अगले दिन कॉलेज जाकर असाइनमेंट जमा कराने का बुख़ार फिर दिलो-दिमाग पर तारी था ख़ैर जाना तो था ही उस पर बस में जाना और फिर वही ट्रैवल सिकनेस..पढ़ें— मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे…
का पारितोष
अगले दिन बस में बैठी हुई हूं
दिसंबर की ठंड पूरा पैक किया हुआ है मैंने स्वयं को स्वेटर और गर्म शाल से, सुबह-सुबह नहाने से हथेलियां नम और बेजान हो गरीब हैं मुंह से निकलती हुई भाप कोहरे से मिल रही है. आईएसबीटी से ही बस भरनी शुरू हो गयी है वही गीली सड़कें वही मोहंड से बिहारी गढ़ तक घुमावदार मोड़ और फिर कोहरे में लिपटा घटाटोप व धूमिल सीधा सपाट रास्ता, बस भरती जा रही है कंबल और सर पर कपड़ा बांधे हुए लोगों ने बस को ठसाठस भर दिया है कुछ लोग सिगरेट और बीड़ी के छल्ले उड़ा रहे हैं कुछ मुंगफली खाकर सारे रास्ते भर बस को गंदा कर रहे हैं,बच्चों की चीं-पों का शोरगुल यानी कुल मिलाकर उल्टी -सा मन हो रहा है.यह
मैंने बस की खिड़की खुली रखी हुई है पीछे की सीट खिड़की वाले बंद करने को कहकर बुड़बुड़ा रहे हैं लेकिन मैंने भी कान में जैसे रुई ठूंस ली है उनका कहना मानूंगी
तो आगे का सफ़र भयावह हो जायेगा मेरे लिए. कॉलेज के परिसर में पहुंच चुकी हूं भीतर घास के नर्म अहाते में छात्र और छात्रायें गुनगुनी धूप सेक रहे हैं कहीं हंसी ठिठोली है, कहीं छात्रों का झुरमुट खड़ा हुआ है, यही सब देखते हुए मैं कॉलेज के दांयी तरफ बढ़ी आफिस की ओर मेरी हताशा और आश्चर्य मिश्रित भावनाओं का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि आफिस में ताला लटका हुआ था अभी एक बजे जबकि पूरा कॉलेज गुलज़ार था छात्र और छात्राओं से क्या कर सकती थी मैं? एक घंटे खड़ी रही आफिस के बाहर लेकिन आफ़िस शायद कल तक के लिए बंद हो गया था.आखिर में फिर असाइनमेंट हाथ में लिए उद्दत हुई वापिस घर की ओर.
मिला
घर आकर मन ही मन मैंने निर्णय
ले लिया था कि शायद कल विलंब हो गया था मुझसे कॉलेज पहुंचने में लेकिन कल भोर अंधेरे उठकर जो सबसे पहले बस सहारनपुर के लिए निकलती है उसी से जाऊंगी कॉलेज और. र हालत में एसांइनमेंट जमा करवाकर आऊंगी कॉलेज में.और यही किया मैंने ग्यारह बजे के
करीब मैं कॉलेज परिसर में थी फिर आफिस गयी देखा आज भी ताला लगा हुआ था आफिस में और बाकि का कॉलेज परवान चढ़ा हुआ था छात्रों और छात्राओं की उपस्थिति में. किंतु आज मेरे क्रोध का ठिकाना नहीं रहा कुछ बच्चों से पूछा जो शायद वहां लोकल ही रहने वाले थे कहने लगे आफिस बाबू आपको यहां नहीं घर पर मिलेंगे कॉलेज के बाहर कुछ दूर ही गलियों में उनका घर है आप वहीं उनसे जाकर क्यों नहीं मिलतीं?असमंजस में थी मैं कि ये कौन सा नया उपक्रम है इस कॉलेज का?फिर स्वयं को मनाया कि जाकर प्रयास करने में करता हर्ज़ है क्या पता काम बन ही जाये?कि
और फिर कमर कसकर निर्भीकता से बच्चों के बताये पते के अनुसार ढूंढती-ढ़ूढती आफिस बाबू आनन्द प्रकाश जी (काल्पनिक नाम) के घर पर पहुंच गयी थी.
किताबों
मैंने दरवाज़ा खटखटाया बिना
आंगन का घर था किसी अधेड़ प्रौढा ने दरवाज़ा खोला शायद वह आफिस बाबू की अर्द्धांगिनी प्रतीत हुईं मुझे, पूछा क्या काम है? मैंने अपने आने का कारण बताकर आनन्द प्रकाश जी के बारे में पूछा यह सुनकर उन्होंने अंदर आने को कहा अंदर ड्राइंगरुम में तीन तरफ सोफे रखें हुए थे एक तरफ दीवान पर पीठ मोड़कर आनंद प्रकाश जी सो रहे थे.दीवान के ठीक नीचे उन्होंने अपनी चप्पलों की जोड़ी उतारकर रखी हुई थीं, सोफे के बीच में अख़बार के ऊपर सेंवियां जैसी बारीक बत्तियां जिन्हें शायद जवैं भी कहते हैं.अपने प्रश्न के प्रत्युत्तर में मैंने उन प्रौढा के चेहरे पर देखा देखते ही उन्होंने कहा सर अभी आराम कर रहे हैं एक घंटे बाद उठेंगे तुम चाहो तो यहां बैठकर इंतज़ार कर सकती हो करता करती थी मजबूरी थी मरती क्या नहीं करती वहीं दूसरे सोफे पर बैठ गयी सर के उठने का इंतज़ार करने के लिए.
दरवाज़ा
वह प्रौढा नि:शब्द मुझे घूर रही थीं कभी जवैं तोड़तीं कभी मुझे घूरती लेकिन एक शब्द उनके मुंह से पानी पूछने के लिए भी नहीं निकला.
एक घंटे से ऊपर हो चला था मैंने डरते -झिझकते उन मैडम से सर को उठाने के लिए कहा मेरी बात से मानो चौंकी वह और जवैं तोड़ने का क्रम तोड़कर उन्होने आनंद प्रकाश सर से उठने के लिए कहा. आनंद प्रकाश सर नींद को झटकर अंगड़ाई और जम्हाते हुए उठे और मेरी तरफ़ मेरे परिचय की अपेक्षा में देखने लगे मैंने
दो दिन से उन्हे अपने आने का कारण और आफिस में ताला लगने से उनके घर तक पहुंचने की कहानी बताई वह कुछ नहीं बोले थोड़ी देर चुपचाप सुनकर उठकर अपनी चप्पल ढ़ूंढने का प्रयास करने लगे, चप्पलें जो अपनी जगह से बैठे-बैठे मुझे साफ़ नज़र आ रही थीं और अर्द्धांगिनी उनकी जवैं तोड़ने में रत जैसे किसी भी वार्तालाप से मानो उनका कोई सरोकार न था.सहसा सर उठे और मुझे देखकर कहने लगे ज़रा चप्पल निकालियो मेरी दीवान के नीचे से..
क्रमशः