Tag: डॉ. मोहन चंद तिवारी

पितृपक्ष में पितरों का ‘श्राद्ध’ क्यों किया जाता है? 

पितृपक्ष में पितरों का ‘श्राद्ध’ क्यों किया जाता है? 

अध्यात्म
डॉ. मोहन चंद तिवारी इस साल 1 सितंबर से पितृपक्ष की शुरुआत हो चुकी है,जिसका समापन 17 सितंबर, 2020 को होगा. भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों का पितृपक्ष प्रतिवर्ष ‘महालय’ श्राद्ध पर्व के रूप में मनाया जाता है. 'निर्णयसिन्धु’ ग्रन्थ के अनुसार आषाढी कृष्ण अमावस्या से पांच पक्षों के बाद आने वाले पितृपक्ष में जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तब पितर जन क्लिष्ट होते हुए अपने वंशजों से प्रतिदिन अन्न जल पाने की इच्छा रखते हैं- “आषाढीमवधिं कृत्वा पंचमं पक्षमाश्रिताः. कांक्षन्ति पितरःक्लिष्टा अन्नमप्यन्वहं जलम् ..” आश्विन मास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्डदान तथा तिलांजलि देकर संतुष्ट करेंगे. इसी इच्छा को लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोक में आते हैं. पितृपक्ष में यदि पितरों को पिण्डदान या तिलांजलि नहीं मिलती है...
जब सांझ ढले : प्रकृति और प्रेम की जीवंत पहाड़ी कविताएं

जब सांझ ढले : प्रकृति और प्रेम की जीवंत पहाड़ी कविताएं

साहित्यिक-हलचल
शम्भूदत्त सती का कविता संग्रह, 'जब सांझ ढले', हिंदी अकादमी, 2005 डॉ. मोहन चंद तिवारी कुमाउनी साहित्य के रचनाकार शम्भूदत्त सती जी के उपन्यास 'ओ इजा' की पिछले  लेखों में चर्चा की जा चुकी है. इस लेख में उनके कविता संग्रह 'जब सांझ ढले' की चर्चा की जा रही है. उनका यह कविता संग्रह सन् 2005 में हिंदी अकादमी,दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. शम्भूदत्त सती जी ने पिछले दशकों से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक कुमाउनी आंचलिक साहित्यकार के रूप में अपनी एक खास पहचान बनाई है.सती जी पहाड़ की माटी से जुड़े एक कुशल लेखक ही नहीं बल्कि उत्कृष्ट कोटि के अनुवादक, धारावाहिक फ़िल्मों के लेखक और पहाड़ की लुप्त होती सांस्कृतिक शब्द सम्पदा और परम्परागत धरोहर के संरक्षक गीतकार भी रहे हैं. उनका 'ओ इजा' उपन्यास कुमाउनी साहित्य और लोकसंस्कृति के सन्दर्भ में   लिखी गई महत्त्वपूर्ण कृति है,जिसमें पहाड़ की महिलाओं के साथ पुरु...
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जननायक

उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जननायक

स्मृति-शेष
विपिन त्रिपाठी की पुण्यतिथि (30 अगस्त) पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी “गांव से नेतृत्व पैदा होने तक मैं गांव में रहना पसंद करूंगा. सत्ता पगला देती है. समाजवादी बौराई सत्ता से दूर रहें.”                                 -विपिन त्रिपाठी 30 अगस्त को उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जननायक और द्वाराहाट क्षेत्र के विकास पुरुष श्री विपिन त्रिपाठी जी की पुण्यतिथि है. उत्तराखण्ड की आजादी और वहां की जनता के मौलिक अधिकारों के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष करने वाले जननायकों में कुछ ही ऐसे नेता हैं जिन्हें देवभूमि उत्तराखण्ड का गौरव माना जा सकता है, उनमें द्वाराहाट क्षेत्र के संघर्षशील नेता, जुझारू पत्रकार, ‘द्रोणांचल प्रहरी’ के संपादक, कर्मठ समाज सेवी, क्षेत्र के विधायक और उक्रांद के अध्यक्ष रहे स्व. विपिन त्रिपाठी जी का नाम सबसे ऊपर आता है. उत्तराखंड आंदोलन समेत समाज के विभिन्न क्षेत्रों में जन आंदोलनो...
महिलाएं भी करती थी मानसूनी वर्षा की भविष्यवाणियां

महिलाएं भी करती थी मानसूनी वर्षा की भविष्यवाणियां

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-13 डॉ. मोहन चंद तिवारी प्राचीन भारतीय जलवायु विज्ञान का उद्भव तथा विकास भारतवर्ष के कृषितन्त्र को वर्षा की भविष्यवाणी की जानकारी देने के प्रयोजन से हुआ. इसलिए वैदिक काल से लेकर उत्तरवर्ती काल तक भारत में जलवायु विज्ञान की अवधारणा कृषि विज्ञान से जुड़ी रही है. भारत के ऋतुवैज्ञानिकों ने राष्ट्र कल्याण की भावना से मानसून सम्बन्धी भविष्यवाणियों के सम्बन्ध में अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्त और मान्यताएं स्थापित कीं तथा पिछले आठ हजार वर्षों से इन्हीं ऋतु वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर समूचे भारत का कृषक वर्ग अपने खेती-बाड़ी का कारोबार करता आया है. प्राचीन भारत में वर्षा के पूर्वानुमान के ज्ञान का इतिहास सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल यानी तीन सहस्राब्दी ईस्वी पूर्व से प्रारम्भ हो जाता है. सन् 1960 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने सिन्धु सभ्यता से सम्बद्ध एक प्राचीन आवा...
सत्ता के मद में सरकारों ने भुला दिया सालम के वीर शहीदों को

सत्ता के मद में सरकारों ने भुला दिया सालम के वीर शहीदों को

स्मृति-शेष
25 अगस्त के शहीदी दिवस पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी आज के ही के दिन 25 अगस्त,1942 को सालम के धामद्यो में अंग्रेजी सेना तथा क्रांतिकारियों के बीच हुए युद्ध में नर सिंह धानक तथा टीका सिंह कन्याल शहीद हो गए थे. किंतु देश इन क्रांतिकारियों के बारे में कितना जानता है? वह तो दूर की बात है उत्तराखंड के कुछ गिने चुने लोगों को ही यह याद है कि देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले इन दो क्रांतिकारियों का आज शहीदी दिवस है.पर इतिहास साक्षी है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में इन दोनों उत्तराखंड के क्रांतिकारियों का नाम  स्वर्णाक्षरों में लिख दिया गया है - नरसिंह धानक (1886-1942) टीका सिंह कन्याल (1919-1942) गौरतलब है कि नौ अगस्त 1942 को महात्मा गांधी द्वारा मुंबई में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन शुरू करने के एक सप्ताह बाद  'करो या मरो' की गांधी जी की ललकार के साथ ही सालम की ज...
“पहाड के गांधी” और उत्तराखंड आंदोलन के जन नायक इंद्रमणि बडोनी      

“पहाड के गांधी” और उत्तराखंड आंदोलन के जन नायक इंद्रमणि बडोनी      

स्मृति-शेष
बडोनी जी की पुण्यतिथि पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी आज 18 अगस्त को उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास में ‘पहाड के गांधी’ के रूप में याद किए जाने वाले श्री इन्द्रमणि बडोनी जी की पुण्यतिथि है. मगर दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उत्तराखंड की जनता के द्वारा इस जन नायक की पुण्यतिथि जिस कृतज्ञतापूर्ण हार्दिक संवेदनाओं के साथ मनाई जानी चाहिए उसका अभाव ही नजर आता है. इससे सहज में ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड की राजनीति आज किस प्रकार की विचारशून्य, स्वार्थपूर्ण और निराशा के दौर से विचरण कर रही है? इतिहास साक्षी है कि जो कौम या समाज अपने स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को भुला देता है, वह ज्यादा दिनों तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता. उत्तराखंड की सम्पूर्ण जनता अपने महानायक के पीछे लामबन्द हो गयी थी. बीबीसी ने तब कहा था, ‘‘यदि आपने जीवित एवं चलते फिरते गांधी को देखना है तो...
‘गिदारी आमा’ के विवाह गीत

‘गिदारी आमा’ के विवाह गीत

लोक पर्व-त्योहार
डॉ. मोहन चंद तिवारी "पिछले लेखों में शम्भूदत्त सती जी के 'ओ इजा' उपन्यास के सम्बन्ध में जो चर्चा चल रही है,उसी सन्दर्भ में यह महत्त्वपूर्ण है कि इस रचना का एक खास प्रयोजन पाठकों को पहाड़ की भाषा सम्पदा और वहां प्रचलित लोक संस्कृति के विविध पक्षों तीज-त्योहार, मेले-उत्सव खान-पान आदि से अवगत कराना भी रहा है.जैसा कि लेखक ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है- “पाठकों के समक्ष यह उपन्यास प्रस्तुत करते हुए मैं इस बात का निवेदन करना चाहता हूँ कि दिनोंदिन गांवों का शहरीकरण होने के कारण उसकी बोली, खान-पान, रहन-सहन, लोक-परम्पराएं और लोक भाषाएं विलुप्त होती जा रही हैं.इसलिए यहां मैंने कुमाऊंनी बोली (जो लगभग विलुप्त होने के कगार पर है) को अपनी बात कहने का माध्यम बनाकर प्रस्तुत उपन्यास में कुमाऊंनी हिंदी का प्रयोग किया है.” इस उपन्यास में 'झंडीधार' गांव की 'आमा' का एक किरदार कुछ ऐसा ही है,जो गा...
च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!

च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!

लोक पर्व-त्योहार
डॉ. मोहन चंद तिवारी आज श्रावण संक्रांति के दिन हरेले का शुभ पर्व है. हमारे घर में नौ दिन पहले आषाढ़ के महीने में बोए गए हरेले को आज प्रातःकाल श्रावण संक्रांति के दिन काटा गया. कल रात हरेले की गुड़ाई की गई  उसे पतेशा भी गया.हरेला पतेशने के कुछ खास मंत्र होते हैं,जो हमें याद नहीं इसलिए 'सर्व मंगल मांगल्ये' इस देवी के मंत्र से हम हरेला पतेश देते हैं.   इस बार पिछले साल की तरह हरेले की पत्तियां ज्यादा बड़ी और चौड़ी नहीं हुई, मौसम की वजह से या अच्छी मिट्टी की वजह से कोई भी कारण हो सकता है. कोरोना काल भी इस हरेले के लिए संकटपूर्ण रहा,जितने उत्साह से इसे मनाया जाना था वह सब नहीं हो सका. प्रातःकाल हरेला काटे जाने के बाद मेरी पत्नी ने सबसे पहले हमारे इष्टदेव के मंदिर में मां दुर्गा और इष्टदेव ग्वेल सहित सभी कुल देवताओं और मुकोटी देवताओं को हरेला चढ़ाया. उसके बाद घर-परिवार की सबसे बड़ी और वरिष्ठ...