Tag: गांधी जयंती

गांधी जयंती: अन्य को अनन्य बनाते गांधी!

गांधी जयंती: अन्य को अनन्य बनाते गांधी!

स्मृति-शेष
 गांधी जयंती (2 अक्तूबर) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  महात्मा गांधी का लिखा समग्र साहित्य का हिंदी संस्करण सत्तानबे खंडों के कई हज़ार पृष्ठों में समाया हुआ है। इसका बहुत बड़ा हिस्सा उनके आत्म-संवाद का है जहाँ वह जीवन के अपने अनुभव की पुनर्यात्रा करते दिखाई पड़ते हैं। जीवन का पूर्वकथन संभव नहीं पर आगे के लिए नवीन रचना की कोशिश तो हो ही सकती है। यही सोच कर गांधी जी बार–बार अपने अनुभवों की मनोयात्रा में आवाजाही करते हैं। यह बड़ा दिलचस्प है कि ऐसा करते हुए वे खुद अपनी परीक्षा भी करते रहते थे। उन्होंने अपनी ग़लतियों को स्वीकार करते हुए स्वयं को कई बार दंडित किया था और प्रायश्चित्त भी किया था। आत्म-विमर्श का उनकी निजी जीवनचर्या में एक ज़रूरी स्थान था। वे अपने में दोष-दर्शन भी बिना घबड़ाए कर पाते थे। इस तरह आत्मान्वेषण उनके स्वभाव का अंग बन गया था। सतत आत्मालोचन की पैनी निगाह के साथ गांधी ज...
राष्ट्रपिता का भारत–बिम्ब और नैतिकता का व्यावहारिक आग्रह

राष्ट्रपिता का भारत–बिम्ब और नैतिकता का व्यावहारिक आग्रह

साहित्‍य-संस्कृति
गांधी जयंती (2 अक्टूबर) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  इतिहास पर नजर दौडाएं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह देश अतीत में सदियों तक मजहबी साम्राज्यवाद के चपेट में रहने के बाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद, जो मुख्यत: because आर्थिक शोषण में विश्वास करता था, के अधीन रहा. राजनैतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद एक तरह के औपनिवेशिक चिंतन से ग्रस्त  अब वैश्वीकरण के युग में पहुँच रहा है. इस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन के क्षेत्र में महात्मा गांधी का ‘हिन्द स्वराज’ सर्वाधिक सृजनात्मक उपलब्धि के रूप में उपस्थित हुआ. यह स्वयं में एक आश्चर्यकारी घटना है क्योंकि इस बीच पश्चिम से परिचय के बाद उसे अपनाते हुए हमारे मानसिक संस्कार तद्रूप होते गए. वह भाषा, व्यवहार, पहरावा तथा शिक्षा आदि सबमें परिलक्षित होता है. स्मरणीय है अमेरिकी चिंतन ने यूरोप से अलग दृष्टि स्वीकार की और रूस ने भी स्वायत्त चिंतन की दृष्टि वि...
वर्तमान परिदृश्य पर गांधी जी की आर्थिक दृष्टि

वर्तमान परिदृश्य पर गांधी जी की आर्थिक दृष्टि

समसामयिक
151वीं गांधी जयंती पर विशेष  प्रो. गिरीश्वर मिश्र आज पूरे संसार में एक विकटbecause वैश्विक आपदा के चलते उदयोग और व्यवसाय की दुनिया के सारे कारोबार और समीकरण अस्त-व्यस्त होते जा रहे हैं. विकसित हों या अविकसित सभी तरह के देशों अर्थ व्यवस्था चरमरा रही है और उनकी रफ़्तार ढीली पड़ती जा रही है. ऐसे में यह प्रश्न सहज में उठता है कि आधुनिकता की परियोजना के तहत विश्वास जतलाते हुए प्रगति और विकास की जो राह चुनी गई थी वह किस सीमा तक सही थी या कि उसकी राह पर आगे भी चले चलना कितना ठीक होगा. बड़े पैमाने पर थोक भाव से उत्पादन और स्वचालित यंत्रों की सहायता से मानव श्रम के मूल्य का पुनर्निर्धारण हुआ और सामाजिक ताने बाने की तस्बीर ही बदलती गई . आज वैश्विक आर्थिक संस्थाओं के तंत्र butजाल ने विकास का एक ढांचा, एक मान दंड तय किया और उसी के इर्द-गिर्द और कमोबेश उसी के अनुरूप आगे बढ़ते रहने के लक्ष्य तय ...
मोहनदास करमचंद गाँधी को बापू और महात्मा गाँधी बनाने वाली ‘बा’ कहाँ

मोहनदास करमचंद गाँधी को बापू और महात्मा गाँधी बनाने वाली ‘बा’ कहाँ

समसामयिक
151वीं गांधी जयंती पर विशेष प्रकाश उप्रेती नैतिक शिक्षा की किताब के पीछे दुबली-पतली, आधी झुकी हुई काया, बदन पर धोती लपेटे,  हाथ में लाठी वाली तस्वीर से जब पहली बार सामना हुआ तो हैड मास्टर साहब ने becauseबताया की ये महात्मा गाँधी अर्थात बापू हैं. यह तस्वीर और स्मृति ही बड़े-होने के साथ बड़ी होती गई.परंतु इनमें कहीं भी ‘बा’ (कस्तूरबा) नहीं थीं. बापू को लेकर बचपन से ही जो समझ बनी उसमें कहीं बा नहीं थीं. जबकि मोहनदास करमचंद गाँधी को बापू और महात्मा गाँधी बनाने में ‘बा’ की बड़ी भूमिका थी. इस बात को स्वयं बापू ने भी बहुत बार स्वीकार किया.संध्या भराड़े अपनी किताब  ‘बा’ में लिखती हैं कि जॉन एस॰ हाइलैंड से बापू ने एक बार कहा, ‘मैंने बा से अहिंसा का पहला सबक सीखा. नैतिक एक ओर तो वह मेरे विवेकहीन आदर्शों का दृढ़ता से विरोध करतीं, दूसरी so ओर मेरे अविचार से जो तकलीफ उन्हें होती उसे चुपचाप सह ल...