Tag: उत्तरकाशी

प्रदूषित गंगा और हम!

प्रदूषित गंगा और हम!

पर्यावरण
कमलेश चंद्र जोशी कहते हैं प्रकृति हर चीज का संतुलन बनाकर रखती है. लेकिन अधिकतर देखने में यह आया है कि जहां-जहां मनुष्य ने अपना हाथ डाला वहां-वहां असंतुलन या फिर समस्याएं पैदा हुई हैं. इन समस्याओं का सीधा संबंध मनुष्य की आस्था, श्रद्धा, स्वार्थ या तथाकथित प्रेम से रहा है. गंगा को हमने मॉं कहा और गंगा के प्रति हमारे प्रेम ने उसको उस मुहाने पर लाकर छोड़ दिया जहां उसकी सफ़ाई को लेकर हर दिन हो-हल्ला होता है लेकिन न तो हमारे कानों में जूं रेंगती है और न ही सरकार के. गंगा को हमने उसके प्राकृतिक स्वरूप में प्रकृति की गोद में बहने के लिए छोड़ दिया होता और उसके पानी का इस्तेमाल सिर्फ अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए किया होता तो आज गंगा इस दशा में न होती कि उसकी सफाई के लिए प्रोजेक्ट चलाने पड़ते. ये सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि गंगा को हमने अपनी अंधी आस्था और स्वार्थसिद्धी का विषय बनाकर उसका दोहन करना शु...
उत्‍तराखंड में कीवी की बागवानी…

उत्‍तराखंड में कीवी की बागवानी…

खेती-बाड़ी
डॉ. राजेन्द्र कुकसाल कीवी फल (चायनीज गूजबेरी) का उत्पति स्थान चीन है, पिछले कुछ दशकों से ये फल विश्वभर में अत्यन्त लोकप्रिय हो गया है. न्यूजीलैण्ड इस फल के लिए प्रसिद्ध है, क्योंकि इस देश ने कीवी फल को व्यवसायिक रूप दिया इसका उत्पादन व निर्यात न्यूजीलैंड में बहुत अधिक है. कीवी फल भारत में 1960 में सर्वप्रथम बंगलौर में लगाया गया था लेकिन बंगलौर की जलवायु में प्रर्याप्त शीतकाल (चिलिंग) न मिल पाने के कारण सफलता नहीं मिली. वर्ष 1963 में राष्ट्रीय पादप अनुवांशिक संसाधन ब्यूरो, क्षेत्रीय संस्थान के शिमला स्थित केन्द्र फागली में कीवी की सात प्रजातियों के पौधे आयातित कर लगाये गये जहां पर कीवी के इन पौधों से सफल उत्पादन प्राप्त किया गया. उत्तराखंड में वर्ष 1984-85 में भारत इटली फल विकास परियोजना के तहत राजकीय उद्यान मगरा टेहरी गढ़वाल में इटली के वैज्ञानिकों की देख.रेख में इटली से आयतित कीवी क...
गोधूलि का दृश्य

गोधूलि का दृश्य

किस्से-कहानियां
लघुकथा अनुरूपा “अनु” गोधूलि का समय था. गाय बैल भी जंगल की ओर से लौट ही रहे थे.मैं भी घर के पास वाले खेत में नींबू के पेड़ की छांव में कलम और कागज लेकर बैठ गई.सोच रही थी कुछ लिखती हूं. क्योंकि उस पल का जो दृश्य था वह बड़ा ही लुभावना लग रहा था. सूरज डूब रहा था. उसकी लालिमा चीड़ से छपाछप लदे हुए पहाड़ो पर फैल रही थी. पंछियों का कलरव भी चली रहा था. हवा भी मंद-मंद गति से दस्तक दे रही थी.आस पास के घरों से बच्चों की आवाजें भी गूंज रही थी क्योंकि बच्चे खेल- खेल में किलकारियां मार रहे थे. कुत्ते भी आपस में रपटा झपटी कर रहे थे. मां के गाय दुहने का समय भी आ ही गया था. तभी मां तड़पडा़ती हुई बाल्टी लेकर गोशाला की ओर दूध दुहने निकलती है. और बाबा भी टेलीविजन बंद करके जैसे ही बाहर की ओर आते हैं.अपना ऊन का कोट और साफा पहन कर लकड़ियों के ढांग से दो-चार लकड़ियां उठाते है और आग जलाने रसोई की ओर चल ...
बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

उत्तराखंड हलचल
डॉ. मोहन चन्द तिवारी उत्तराखंड इन दिनों पिछले सालों की तरह लगातार बादल फटने और भारी बारिश की वजह से मुसीबत के दौर से गुजर रहा है.हाल ही में 20 जुलाई को पिथौरागढ़ जिले के बंगापानी सब डिवीजन में बादल फटने से 5 लोगों की मौत हो गई, कई घर जमींदोज हो गए और मलबे की चपेट में आने की वजह से 11 लोगों के बह जाने की खबर है.नदियां उफान पर हैं.इससे पहले 18 जुलाई को भी पिथौरागढ़ जिले में बादल फटने की दर्दनाक घटना हुई है.पहाड़ से अचानक आए जल सैलाब से कई घर दब गए,पांच घर बह गए और तीस घर खतरे की स्थिति में हैं.गोरी नदी में जलस्तर बढ़ने से सबसे ज्यादा नुकसान मुनस्यारी में हुआ.वहां एक पुल पानी में समा गया. आखिर ये बादल कैसे फटते हैं? ये उत्तराखंड के इलाकों में ही क्यों फटते हैं? बादल फटने का मौसम वैज्ञानिक मतलब क्या है? इन तमाम सवालों पर मैं आगे विस्तार से चर्चा करुंगा. लेकिन पहले यह बताना चाहुंगा कि उत्तर...
हुकम दास के हुक्म पर अंग्रेज घाम में खड़ा रहा

हुकम दास के हुक्म पर अंग्रेज घाम में खड़ा रहा

साहित्‍य-संस्कृति
गंधर्व गाथा -1 पुष्कर सिंह रावत उत्तरकाशी में भागीरथी तट पर एक आश्रम है शंकर मठ. ये छोटा सा आश्रम हमारे जेपी दा (जयप्रकाश राणा) का रियाज करने का ठिकाना हुआ करता था. बता दूं कि जेपी दा खुद भी तबले में प्रभाकर हैं और लोक कलाकारों की पहचान करने में उन्हें महारथ है. करीब दस साल पहले की बात है, उस दिन जेपी दा एक युवक को गाने का रियाज करवा रहे थे. इसी बीच मैं और रवीश काला भी वहां पहुंचे. गाते हुए युवा गलती करता तो जेपी दा आंखें तरेर देते, उसका सुर गड़बड़ा जाता. तभी उनकी नजर आश्रम के नीचे से गुजर रहे एक उम्रदराज लेकिन शारीरिक रूप से सुडौल शख्स पर पड़ी. उन्होंने उसे बुलाया और पास बिठा लिया. बड़े वीनीत भाव से उसने जेपी दा की बात सुनी और जीतू बगड्वाल का पंवाड़ा गाना शुरू कर दिया. हमारे रोंगटे खड़े हो गए. नए दौर का युवा गायक अवाक था. जिस गायन में उसे मशक्क त करनी पड़ रही है, उसे वो बूढ़ा बड़े...
उत्तराखंड में उद्यानीकरण की हकीकत

उत्तराखंड में उद्यानीकरण की हकीकत

उत्तराखंड हलचल
पलायन ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है भाग-3 चारु तिवारी  सरकार बार-बार कह रही है कि उद्यानीकरण को रोजगार का आधार बनायेगी. मुख्यमंत्री अपने हर संबोधन में बता रहे हैं कि वे फलोत्पादन और नकदी फसलों से लोगों की आमदनी बढ़ायेंगे, ताकि वे महानगरों की ओर न भागें. सरकार अगर इस तरह सोच रही है तो निश्चित रूप से उसने उद्यानीकरण पर अपना रोडमैप जरूर तैयार किया होगा. मुख्यमंत्री और सरकार की ओर से वही पुरानी बातें कही गई हैं, जो योजनाओं और कागजों तक सीमित रहती हैं. इनके धरातल में न उतरने की वजह से ही लोगों का फलोत्पादन से मोहभंग हुआ. परंपरागत रूप से फलोत्पादन हमारी अर्थव्यवस्था का आधार रही है. फल, सब्जियों, कृषि उपजों आदि से ही ग्रामीण अपना भरण-पोषण करते रहे हैं. पहाड़ में मनीआर्डर की अर्थव्यवस्था एक साजिश है. बहुत तरीके से लाई गई है. यह साबित कराने के लिये कि पहाड़ों में कुछ नहीं हो सकता. बाहर ...
गांव की रामलीला से ही आरंभ हुआ रंगकर्म का सफर

गांव की रामलीला से ही आरंभ हुआ रंगकर्म का सफर

संस्मरण
रंग यात्रा भाग—2 महावीर रवांल्टा अपने दोनों गांवों में नाटक एवं रामलीला की प्रस्तुति,लेखन, अभिनय, उद्घोषणा के साथ ही पार्श्व में अनेक जिम्मेदारियों के निर्वाहन के बाद पढ़ाई के लिए उत्तरकाशी में होने के कारण मैंने वहां रंगकर्म के क्षेत्र में उतरने का मन बना लिया और पूरे आत्मविश्वास के साथ शुरुआत भी की. जिससे मैंने कुछ नाटकों में अभिनय व निर्देशन के माध्यम से उत्तरकाशी के रंग इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी. उत्तरकाशी में मैंने मुनारबन्दी (1985, महावीर रवांल्टा) बालपर्व (1985,डा अरविंद गौड़) समानांतर रेखाएं (1987, सत्येन्द्र शरत) दो कलाकार (1987, डा भगवती चरण वर्मा) नाटकों में अभिनय के साथ ही उनका निर्देशन भी किया तथा माघ मेला 1987 में वीरेंद्र गुप्ता के निर्देशन में मंचित संजोग(सतीश डे) में मुख्य भूमिका निभाने का अवसर भी मिला. इसके बाद काला मुंह (डा. गोविन्द चातक) हेमलेट(...
पिठाड़ी—पिदें की बाकर्या अर बाकर्यों कु त्यार

पिठाड़ी—पिदें की बाकर्या अर बाकर्यों कु त्यार

साहित्‍य-संस्कृति
लोक पर्व दिनेश रावत वर्ष का एक दिन! जब लोक आटे की बकरियाँ बनाते हैं. उन्हें चारा—पत्ती चुंगाते हैं. पूजा करते हैं. धूप—दीप दिखाते हैं. गंध—अक्षत, पत्र—पुष्ठ चढ़ाते हैं. रोली बाँधते हैं. टीका लगाते हैं. अंत में इनकी पूजा—बलि देकर आराध्य देवी—देवताओं को प्रसन्न करते हैं. त्यौहार मनाते हैं, जिसे 'बाकर्या त्यार' तथा संक्रांति जिस दिन त्यौहार मनाया जाता है 'बाकर्या संक्रांत' के रूप में लोक प्रसिद्ध है. बाकर्या त्यार की यह परम्परा उत्तराखण्ड के सीमान्त उत्तरकाशी के पश्चितोत्तर रवाँई में वर्षों से प्रचलित है. जिसके लिए लोग चावल का आटा यानी 'पिठाड़ी' और उसकी अनुपलब्धता पर 'पिदें' यानी गेहूँ के आटे को गूंथ कर उससे घरों में एक—दो नहीं बल्कि कई—कई बकरियाँ बनाते हैं, जिनमें 'बाकरी', 'बाकरू' अर्थात नर, मादा बकरियों के अतिरिक्त 'चेल्क्यिा' यानी ' मेमने' भी बनाए जाते हैं. बाकर्या त्यार की...
यमुना घाटी: जल संस्कृति की अनूठी परम्परा

यमुना घाटी: जल संस्कृति की अनूठी परम्परा

उत्तराखंड हलचल, साहित्‍य-संस्कृति
यमुना—टौंस घाटी की अपनी एक जल संस्कृति है. यहां लोग स्रोतों से निकलने वाले पानी को देवताओं की देन मानते है. इन नदी—घाटियों में जल स्रोतों के कई कुंड स्थापित हैं.​ विभिन्न गांवों में उपस्थित इन पानी के कुंडों की अपनी—अपनी कहानी है. इस घाटी के लोग इन कुंडों से निकलने वाले जल को बहुत ही पवित्रत मानते हैं और उनकी बखूबी देखरेख करते हैं. जल संस्कृति में आज हम ऐसे ही कुंडों से आपको रू—ब—रू करवा रहे हैं. यमुना घाटी के ऐसे ही कुछ जल कुंडों बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ प​त्रकार प्रेम पंचोली— जल संस्कृति भाग—2 कमलेश्वर महादेव कमलेश्वर नामक स्थान का इस क्षेत्र में बड़ा महत्व है लोग शिवरात्री के दिन उक्त स्थान पर व्रत पूजने पंहुचते है श्रद्धालुओं का इतना अटूट विश्वास होता है कि यहां नंगे पांव पंहुचते है जबकि इस स्थान पर जाने के लिए तीन किमी पैदल मार्ग है. यहां पानी के दो धारे है तथा एक कुण्ड भी है...