Tag: ईजा

बंजर होते खेतों के बीच ईजा का दुःख

बंजर होते खेतों के बीच ईजा का दुःख

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—9 प्रकाश उप्रेती हमारे खेतों के भी अलग-अलग नाम होते हैं. 'खेतों' को हम 'पटौ' और 'हल चलाने' को 'हौ बहाना' कहते हैं. हमारे लिए पटौपन हौ बहाना ही कृषि या खेती करना था. कृषि भी क्या बस खेत बंजर न हो इसी में लगे रहते थे. हर खेत के साथ पूरी मेहनत होती लेकिन अनाज वही पसेरी भर.हमारे हर पटौ की अपनी कहानी और पहचान थी. हमारे कुल मिलाकर 40 से 45 पटौ थे. हर एक का अलग नाम था. हर किसी में क्या बोया जाना है, वह पहले से तय होता था। कई खेतों में तो मिट्टी से ज्यादा पत्थर होते थे. हर पत्थर और खेत अपनी पहचान रखता था. उनके नाम थे, जैसे - तेसंगड़ी पाटौ, बटौपाटौ, घरज्ञानणय पाटौ, ठुल पाटौ, रूचिखाअ पाटौ, बघोली पाटौ, किवांड़ीं पाटौ, कनहुंड़ीं पाटौ, मलस्यारी पाटौ, रतवाडो पाटौ, गौंपारअ पाटौ, बगड़अ पाटौ, इस तरह और भी नाम थे. पेड़, पत्थर या भौगोलिक स्थिति के अनुसार उनका नामकरण हुआ...
पितरों की घर-कुड़ी आबाद रहे

पितरों की घर-कुड़ी आबाद रहे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—8 प्रकाश उप्रेती ये हमारी ‘कुड़ी’ (घर)  है. घर को हम कुड़ी बोलते हैं. इसका निर्माण पत्थर, लकड़ी, मिट्टी और गोबर से हुआ है. पहले गाँव पूरी तरह से प्रकृति पे ही आश्रित होते थे इसीलिए संरक्षण के लिए योजनाओं की जरूरत नहीं थी. जिसपर इंसान आश्रित हो उसे तो बचाता ही है. पहाड़ों में परम्परागत रूप से एक घर दो हिस्सों में बंटा रहता है. एक को गोठ कहते हैं और दूसरे को भतेर. गोठ नीचे का और भतेर ऊपर का हिस्सा  होता है. इन दो हिस्सों को भी फिर दो भागों में बांट दिया जाता है: तल्खन और मल्खन . तल्खन बाहर का हिस्सा और मल्खन अंदर का हिस्सा कहलाता है. अक्सर भतेर में तल्खन बैठने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो वहीं मल्खन में सामान रखा जाता है. गोठ में खाना बनता है. मल्खन में चूल्हा लगा रहता और खाना बनता है. तल्खन में लोग बैठकर खाना खाते हैं. हम मल्खन से सारी चीजें च...
दैंणी द्वार भरे भकार

दैंणी द्वार भरे भकार

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—7 प्रकाश उप्रेती मिट्टी और गोबर से लीपा, लकड़ी के फट्टों से बना ये- 'भकार' है. भकार (कोठार) के अंदर अमूमन मोटा अनाज रखा जाता था. इसमें तकरीबन 200 से 300 किलो अनाज आ जाता था. गाँव में अनाज का भंडारण, भकार में ही किया जाता था. साथ ही भकार कमरे के पार्टीशन का काम भी करता था. पहाड़ के घरों के अंदर का एस्थेटिक्स भकार से भी बनता था. भकार का होना समृद्धि का सूचक भी था. तब खूब खेती होती थी और इतने जंगली जानवर भी नहीं थे. खूब सारा अनाज हुआ करता था. इतना सारा अनाज खुले में रख नहीं सकते थे इसलिए हर घर में भकार रखना आवश्यक वस्तु थी. हमारे घर में दो भकार थे: एक में धान और दूसरे में मंडुवा रखा रहता था. ईजा धान और मंडुवा साफ करने के बाद, 'सुखा-पका' कर भकार में रख देती थीं. जब धान और मंडुवा कम हुआ तो फिर बाजार से गेहूं लाकर वो रखा जाने लगा. अब तो जो लोग खेती कर भी...
पहाड़ की संवेदनाओं के कवि थे शेरदा ‘अनपढ़’

पहाड़ की संवेदनाओं के कवि थे शेरदा ‘अनपढ़’

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण
पुण्यतिथि (20 मई) पर विशेष चारु तिवारी  मेरी ईजा स्कूल के दो मंजिले की बड़ी सी खिड़की में बैठकर रेडियो सुनती हुई हम पर नजर रखती थी. हम अपने स्कूल के बड़े से मैदान और उससे लगे बगीचे में ‘लुक्की’ (छुपम-छुपाई) खेलते थे. जैसे ही ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम आता ईजा हमें जोर से ‘धात’ लगाती. ‘उत्तरायण,’ ‘गिरि-गुजंन’ और ‘फौजी भाइयों के लिये’ कार्यक्रम के हम नियमित श्रोता थे. ईजा इस कार्यक्रम के लिये हमारा वैसा ही ध्यान रखती जैसा खाने-सोने का. उन दिनों बहुत बार एक गीत रेडियो में आने वाला हुआ- ‘ओ परुआ बौज्यू चप्पल क्ये ल्याछा यस, फटफटानी होनि चप्पल क्ये ल्याछा यस.’ शेरदा 'अनपढ़' के गीत-कवितायें सुनते हुये हम बड़े हुये.शायद यह 1982-83 की बात होगी. पता चला कि चौखुटिया में एक कवि सम्मेलन या सांस्कृतिक कार्यक्रम होने वाला है. बाबू ने कहा वहां चलेंगे. लेकिन पता नहीं क्या हुआ पिताजी नहीं आ पाये. माइ...
अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—6 प्रकाश उप्रेती इसको हम- जानहर, जंदरु, जांदरी कहते हैं. यह एक तरह से घरेलू चक्की है. उन दिनों बिजली तो होती नहीं थी. पानी की चक्की वालों के पास जाना पड़ता था. वो पिसे हुए का 'भाग' (थोड़ा आटा) भी लेते थे. इसलिए कई बार घर पर ही 'जानहर' चलाकर अनाज पीस लिया जाता था. पहाड़ अधिकतर चीजों में आत्मनिर्भर था. उसके पास अपनी जरूरतों के हिसाब से संसाधन थे और ये समझ भी कि उनका सर्वोत्तम उपयोग किस तरह करना है. तकनीक और मशीनों से बहुत दूर इस समझ के बलबूते ही जीवन चलता था. घर में रोज अम्मा (दादी) जानहर चलाती थीं. अम्मा एक बार में दो समय की रोटी भर के लिए ही पीस पाती थीं. मगर जब अम्मा और ईजा(मां) साथ मिलकर पीसते थे तो फिर कुछ आटा अगले दिन के लिए भी बच जाता था. यह तब ही होता था जब बाहर का कोई काम न हो. नहीं तो ईजा बाहर के कामों में ही लगी रहती थीं. जानहर से बड़ी आवाज ...
काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—5 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'कोरैण' की. कोरैण माने कोरने वाला. लुप्त होने के लिए 'ढिका' (किनारे) में बैठा यह औजार कभी भी लुढ़क सकता है. फिर हम शायद ही इसे देख पाएं. उन दिनों पहाड़ में हर घर की जरूरत थी -कोरैण. अब तो इसके कई स्थानापन आ गए हैं. कोरैण भी धीरे-धीरे पहाड़ के उन घरों की तरह पुरानी हो गयी है जो आधुनिकता की भेंट चढ़े. आधुनिकता और आराम ने कई पुरानी चीजों को ढहाया और ले आया नये व आसान विकल्प. लकड़ी के हत्थे और लोहे की पत्ती से बनी कोरैण अलग-अलग आकार की होती थी. इसका आगे का हिस्सा मुड़ा होता था. उस मुड़े हुए हिस्से के 'कर्व' से तय होता था कि यह पतली वाली कोरैण है या मोटी वाली. लोगों द्वारा अलग-अलग चीजों को कोरने के लिए अलग-अलग कोरैण का इस्तेमाल किया जाता था. "ले य काकड़ कोर दे" (ये ककड़ी कोर दे). हम  ईजा को कहते थे 'डाव से कोरैण' निकाल दे. ईजा निक...
‘तीलू पिन’ मतलब जाड़ों की ख़ुराक़

‘तीलू पिन’ मतलब जाड़ों की ख़ुराक़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—4 प्रकाश उप्रेती आज बात-'तीलू पिन' (तिल के लड्डू) की.हमारे यहाँ यह सर्दियों की ख़ुराक थी. पहाड़ के जिन इलाकों में तिल ज्यादा होते हैं, वहाँ 'पिन' बनता ही था. हमारे यहाँ तिल ठीक-ठीक मात्रा में होते थे. बाकायदा कुछ खेत तिल के लिए ही जाने जाते हैं. उनको तिल के लिए ही तैयार किया जाता था. ईजा उन खेतों की पहचान करती थीं जहाँ तिल हो सकते थे. हर खेत की प्रवृति उसकी मिट्टी पर निर्भर करती थी. मौसम तो अधिकांशतः पूरे क्षेत्र का एक जैसा ही होता था मगर कौन से खेत में कौन सी फसल अच्छी होगी इसके लिए बहुत कुछ देखना पड़ता था. अक्सर ईजा कुछ खेतों में अनाज के साथ "ढीका-निसा" (खेत के इधर-उधर) तिल भी बो देती थीं. अगर उसमें तिल ठीक हुए तो फिर अगले वर्ष से वह तिल वाला खेत हो जाता था. इस तरीके से 2-3 खेत तय हो जाते और अदल-बदल कर उनमें तिल बोए जाते थे. हम भी तिल कभी-कभी...
कब लौटेगा पाई में लूण…

कब लौटेगा पाई में लूण…

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—3 प्रकाश उप्रेती आज बात- ‘पाई’ की. पहाड़ के हर घर की शान ‘पाई’ होती थी. पाई के बिना खाना बनने वाले गोठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पाई दरअसल लकड़ी की बनी वह चीज थी जिसमें पिसा हुआ लूण और चटनी रखते थे. मोटी लकड़ी को तराश कर उसको एक या दो खाँचों का बनाया जाता था. इन खाँचों में ही लूण और चटनी रखी जाती थी. इस पूरे ढाँचे को बोला जाता था-पाई. ईजा हमेशा पाई में लूण और चटनी पीसकर रख देती थीं. हमारे घर में एक बड़ी और दो छोटी पाई थीं. छोटी पाई पर हम बच्चों का अधिकार होता था. हम अपनी-अपनी पाई को छुपाकर रख देते थे. जो बडी पाई थी वह जूठी न हो इसलिए ईजा हमारी पाई में चटनी और नमक अलग से रख देती थीं. ईजा कहती थीं- "ये ले आपणी पाई हां धर ले" (अपनी पाई में (नमक, चटनी) रख ले). हम बड़ी उत्सुकता से रखकर पाई को फिर गोठ में कहीं छुपा देते थे ताकि कोई और न खा ले. ई...
जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—2 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'घनगुड़' की. पहाड़ों पर जाड़ों में जब बरसात का ज़ोर का गड़म- गड़ाका होता था तो ईजा कहती थीं "अब घनगुड़ पडील रे". मौसम के हिसाब से पहाड़ के जंगल आपको कुछ न कुछ देते रहते हैं. बारिश तो शहरों में भी होती है लेकिन घनगुड़ तो अपने पहाड़ में ही पड़ते हैं. घनगुड़ को मशरूम के परिवार की सब्जी के तौर पर देखा जाता था. इनका कुछ हिस्सा जमीन के अंदर और कुछ बाहर होता था. जहाँ पर मिट्टी ज्यादा गीली हो समझो वहीं पर बहुत सारे घनगुड. बारिश बंद होने के बाद शाम के समय हम अक्सर घनगुड़ टीपने जाते थे. ईजा बताती थीं- "पार भ्योव पन ज्यादे पड़ रह्नल" (सामने वाले जंगल में ज्यादा पड़े होंगे). हम वहीं पहुँच जाते थे. घनगुड़ हम कच्चे भी खाते थे और इनकी सब्जी भी बनती थी. ईजा कहती थीं- "घनगुड़क साग सामेणी तो शिकार फेल छू" (घनगुड़ की सब्जी के सामने तो मटन फेल है)... "सब...