गढ़वाली भाषा और साहित्य को समर्पित बहुआयामी व्यक्तित्व- संदीप रावत
डॉ. अरुण कुकसाल
प्रायः यह कहा जाता है कि जो समाज में प्रचलित और घटित हो रहा है, वह उसके समसामयिक साहित्य में स्वतः प्रकट हो जाता है. परन्तु इस धारणा के विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि जो सामाजिक प्रचलन में अप्रासंगिक हो रहा है, ठीक उसी समय उसकी अभिव्यक्ति उसके साहित्य और संगीत में प्रमुखता से होने लगती है. लोक भाषायें और संगीत सामाजिक जीवन व्यवहार से हट रही हैं, परन्तु लोकभाषा और संगीत रचने का शोर चहुंओर है. गढ़वाळि भाषा-संगीत के विकास की बात करने वाले आये दिन और मुखर हो रहे हैं, पर उसको सामाजिक व्यवहार में लाने में उनमें से अधिकांश के प्रयास बस किताबी ही हैं.
शरद
लोक साहित्यकार संदीप रावत जैसे विरले ही हैं जो गढ़वाळि भाषा को पूरे समर्पण भाव से जवान हो रही पीढ़ी की मुख्य जुबान बनाने का प्रयास कर रहे हैं. गढ़वाळि साहित्य की प्रत्येक विधा में पारंगत उनकी लेखनी में कमाल का आकर्षण है. गढ़वाळि...