कहां ले जाऊँ…
लधु कथा
डॉ. कुसुम जोशी
सवि ने धीरे से कराहते हुये आंखें खोली, चारों और नजरें घुमाई तो अपने को अस्पताल में पाया.
"मैं यहां..कैसे..! " सोचती रही सावि... धीरे-धीरे सब कुछ याद आ रहा था उसे, उसका और जगन का प्रेम राज नहीं रहा, घर में तूफान उठान में आ चुका था.
जगन
सावि ने ठान लिया था कि मौका मिलते ही जगन से साफ-साफ बात करेगी.
उसे घर में अकेला जान, हमेशा की तरह उस दिन जगन आया, अपने प्रेम की कसमें खाता रहा.
"जगन या तो तू मुझे यहां से ले चल, नहीं तो मेरा पीछा करना छोड़ दे", सावि ने दो टूक अपना फैसला सुना दिया.
जगन
सवि की बात सुन जगन दबाव महसूस कर रहा था. बोला, 'ऐसी क्या आफत हो गई कि तू आज ऐसी बात कर रही है.
घर में सब पता चल चुका है, चार दिन से में रोज ही पिट रही हूं, मुझे ब्राह्मण कुल की कंलकिनी कहा जा रहा है. बाबू कह रहे है कि "जात और जान दोनों से जायेगी. क्यों...