कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!
लोक के चितेरे मोहन उप्रेती की पुण्यतिथि (6 जून, 1997) की पूर्व संध्या पर स्मरण
चारु तिवारी
उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से, अचानक दुकान की सबेली में खड़े मोहन ने आवाज दी- ‘कहां जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहां तो आ.’ क्या है यार? घूमने भी नहीं देगा.’ और मैं खीज कर उदेसिंह की दुकान के सामने उसके साथ घुस गया. उसके सामने ही लगी हुई लकड़ी की खुरदरी मेज थी. मोहन कुछ उत्तेजित-सा लग रहा था. मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगाकर एक पूर्व प्रचलित कुमाउनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुत लय में गा रहा था. वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था. उस गीत की नई और चंचल धुन मुझे भी बहुत अच्छी लग रही थी. गीत था-
बेडू पाको बारामासा
हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला.
रूणा-भूणा दिन आयो
हो नरैण पूजा म्यारा मैता मेरी छैला.
मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था. ‘अरे भाई... आगे तो गा.’ मैं बेसब्र ...