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बारहमासा : विरह और मिलन की क्रियाओं का चित्रण!

बारहमासा : विरह और मिलन की क्रियाओं का चित्रण!

ट्रैवलॉग
मंजू दिल से… भाग-29 मंजू काला फ़ागुन महीना... फूली सरसों... आम झरे.. अमराई.... मै अंगना में चूप- चूप देखूँ ऋतु बसंत की आई.....!!!!!   ऋतु ...बसन्त की आई! फ़ागुन का महीना... सरकती ठंड की फुरफुरी,  गुन- गुन-गुनाता मौसम,  सप्तपदी के फेरों सीं "दें" लगाती ऋतुएँ औऱ वनों के बीच बुराँश कचनार-   आह  टेशू  भी फूल उठें होंगे शायद!  अरे भाई,  पत्तों से भरी डालियों पर फ़ाख्ता भी बोल रही होगी शायद.! मेरे प्यारे पहाड़ों के गदेरों में चातकी भी बोल रही होगी मालूम!? पीले पड़ते गेहूँ, जौ के खेतों में, कफू  भी उड़ रही होगी शायद, औऱ... और,  सरसों की  वल्लरियों पर...मधुकरियाँ भी गुनती होंगी.....शायद! किसी रमणी का पति परदेश से अभी आया नहीं होगा शायद, युद्धरत होगा शायद, भूल गया होगा अपनी प्रिया को, शायद, वह पंछियों से शिकायत करती होगी शायद औऱ ऐसी ही विरहणी नायिका के लिये “बारह मासा”   लिखा होगा ...