Tag: विद्यासागर नौटियाल

कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

स्मृति-शेष
लोक के चितेरे मोहन उप्रेती की पुण्यतिथि  (6 जून, 1997) की पूर्व संध्या पर स्मरण चारु तिवारी उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से, अचानक दुकान की सबेली में खड़े मोहन ने आवाज दी- ‘कहां जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहां तो आ.’ क्या है यार? घूमने भी नहीं देगा.’ और मैं खीज कर उदेसिंह की दुकान के सामने उसके साथ घुस गया. उसके सामने ही लगी हुई लकड़ी की खुरदरी मेज थी. मोहन कुछ उत्तेजित-सा लग रहा था. मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगाकर एक पूर्व प्रचलित कुमाउनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुत लय में गा रहा था. वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था. उस गीत की नई और चंचल धुन मुझे भी बहुत अच्छी लग रही थी. गीत था- बेडू पाको बारामासा हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला. रूणा-भूणा दिन आयो हो नरैण पूजा म्यारा मैता मेरी छैला. मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था. ‘अरे भाई... आगे तो गा.’ मैं बेसब्र ...
जन आंदोलन: मुल्क अपने गिरफ्तार साथियों को छुड़ा लाया

जन आंदोलन: मुल्क अपने गिरफ्तार साथियों को छुड़ा लाया

उत्तरकाशी
तिलाड़ी कांड 30 मई पर विशेष ध्यान सिंह रावत ‘ध्यानी’ तीस मई सन् 1930 को रवांई के किसानों द्वारा अपने हक हकूक के लिए टिहरी रियासत के विरुद्ध लामबद्ध होना एक अविस्मरणीय जन आन्दोलन था. ‘बोलान्दा बदरी’ जैसे भावनात्मक, अविव्यक्ति के शब्दों से अपने महाराजा को सम्बोधित करने वाली जनता का आन्दोलन के लिए उत्तेजित होना कहीं न कहीं तत्कालिक समय में टिहरी रियासत के अविवेकपूर्ण नीति का ही प्रतिफल था जिसका खामियाजा भोले-भाले ग्रामीणों को अपनी जान की कुर्बानी दे कर चुकाना पड़ा. आन्दोलन की मुख्य वजह सन् 1928 को टिहरी राज्य में हुए वनबन्दोबस्त ‘मुनारबन्दी’ थीं जिसमें जनता के हक हकूकों को नजरन्दाज ही नहीं अपितु सख्त कुठाराघात भी किया गया. चरान-चुगान, घास-पत्ती, ‘लाखड़ी-जेखड़ी’ हल-नसेड़ा सभी वन उपजें वन सीमा के अन्तर्गत आ जाने के कारण ग्रामीणों के सम्मुख पहाड़ जैसी विकराल बाधा आन पड़ी थीं. रवांई की जनता ने अपन...