Tag: रोपणी

रोपणी-“सामूहिक सहभागिता की मिशाल खेती का त्यौहार”

रोपणी-“सामूहिक सहभागिता की मिशाल खेती का त्यौहार”

उत्तराखंड हलचल
आशिता डोभाल पहाड़ों में खेती बाड़ी के कामों को सामूहिक रूप से त्यौहार जैसा मनाने की परम्परा वर्षों पुरानी है. हर मौसम में, हर फसल को बोने से लेकर, निराई—गुड़ाई और कटाई—छंटाई तक सारे कामों को त्यौहार के रूप मनाने की परम्परा सदियों पुरानी है, जिसमें रोपणी (धान की रोपाई) मुख्यत: एक ऐसी परम्परा थी. यह पूरे गांव की सहभागिता, सामूहिकता, आपसी भाईचारा को दर्शाती थी. पहाड़ों में रोपणी के लिए धान की नर्सरी (बीज्वाड़) चैत्र (मार्च-अप्रैल) माह में डाली जाती है, ताकि समय पर पौध तैयार हो जाए. सभी की यह कोशिश रहती थी कि सबकी नर्सरी एक साथ डाली जाय ताकि एक ही समय पर सबकी रोपणी लग सके. आषाढ़ (जून-जुलाई) का महिना एक ऐसा महिना होता है जब पूरे पहाड़ में हर गांव में रोपणी की धूम रहती थी, हर गांव घर परिवार को इंतजार रहता था कि कब उनके खेत में गुल का पानी पहुंचे और कब उनकी रोपणी लगे. बारी—बारी से सबके खे...
गर्मियों की छुट्टी और रोपणी की बखत 

गर्मियों की छुट्टी और रोपणी की बखत 

संस्मरण
ममता गैरोला जून की भीषण गर्मी में पहाड़ स्वर्ग की सी अनुभूति है. खेतों की लहलहाती हवा, धारा (पानी का स्रोत) से बहता ठंडा पानी, लोगों में आपसी मेलजोल और साथ ही सांस्कृतिक रीति-रिवाज पहाड़ों की जीवन शैली का अद्भुत दर्शन कराती है और इस अनुभूति को हम सिर्फ तब ही नहीं महसूस करते जब हम अपने गांव में होते हैं बल्कि तब भी महसूस करते हैं जब हम शहरों में कहीं दो कमरों घर में हो या फिर आलिशान फ्लैट में रह रहे हों, एक बार बस बात शुरू हो जाने पर ही उन यादों में डूब जाते हैं. फिर आज भी मन है कि गांव जाने को आतुर सा होने लगता है. एक वक़्त हुआ करता था जब गर्मी की छुट्टियों में कहीं जाने का मतलब सिर्फ दादी और नानी के घर जाना होता था. और वहां जाना किसी फॉरेन ट्रिप से कम नहीं होता था न जाने कितनी ही मौज- मस्ती और कितने ही एडवेंचर किये हैं हमने वहां, अक्सर दिन में खाना- खाने के बाद कपड़े  लेकर गाड़-गधेरा...
पिठाड़ी—पिदें की बाकर्या अर बाकर्यों कु त्यार

पिठाड़ी—पिदें की बाकर्या अर बाकर्यों कु त्यार

साहित्‍य-संस्कृति
लोक पर्व दिनेश रावत वर्ष का एक दिन! जब लोक आटे की बकरियाँ बनाते हैं. उन्हें चारा—पत्ती चुंगाते हैं. पूजा करते हैं. धूप—दीप दिखाते हैं. गंध—अक्षत, पत्र—पुष्ठ चढ़ाते हैं. रोली बाँधते हैं. टीका लगाते हैं. अंत में इनकी पूजा—बलि देकर आराध्य देवी—देवताओं को प्रसन्न करते हैं. त्यौहार मनाते हैं, जिसे 'बाकर्या त्यार' तथा संक्रांति जिस दिन त्यौहार मनाया जाता है 'बाकर्या संक्रांत' के रूप में लोक प्रसिद्ध है. बाकर्या त्यार की यह परम्परा उत्तराखण्ड के सीमान्त उत्तरकाशी के पश्चितोत्तर रवाँई में वर्षों से प्रचलित है. जिसके लिए लोग चावल का आटा यानी 'पिठाड़ी' और उसकी अनुपलब्धता पर 'पिदें' यानी गेहूँ के आटे को गूंथ कर उससे घरों में एक—दो नहीं बल्कि कई—कई बकरियाँ बनाते हैं, जिनमें 'बाकरी', 'बाकरू' अर्थात नर, मादा बकरियों के अतिरिक्त 'चेल्क्यिा' यानी ' मेमने' भी बनाए जाते हैं. बाकर्या त्यार की...