Tag: मोहन उप्रेती

उत्तराखंड नाट्य महोत्सव में ‘राजुला मालूशाही’ का मंचन

उत्तराखंड नाट्य महोत्सव में ‘राजुला मालूशाही’ का मंचन

दिल्ली-एनसीआर
गढ़वाली कुमाऊनी व जौनसारी अकादमी- दिल्ली सरकार के तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय "उत्तराखंड नाट्य महोत्सव" का समापन आज मुक्तधारा सभागार, बंग संस्कृति भवन गोल मार्केट, नई दिल्ली में 29 अक्टूबर 2023 को देर रात्रि सम्पन्न हुआ। दो दिवसीय उत्तराखंड नाट्य महोत्सव में 4 नाटिकाओं का मंचन किया गया। पहले दिन नाटक 'आछरी' व 'राजुला मालूशाही' का मंचन हुआ व दूसरे दिन नाटक 'सरकारी ब्यौला' व 'सातों आठों' की प्रस्तुति हुई। नाट्य महोत्सव के पहले दिन 'मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला एवम विज्ञान शोध समिति' के 'लोकरंग टीम' द्वारा 'राजुला मालूशाही' नाटक की प्रस्तुति हुई। खचाखच भरे सभागार में नाटक को दर्शकों की खूब वाहवाही मिली। नाटक का निर्देशन मीना पांडेय ने किया। नाटक के निर्देशक मीना पांडेय ने बताया कि सन् 1980 में मोहन उप्रेती जी ने उत्तराखण्ड लोक गाथा के मंचन की परंपरा की शुरुआत की। आज 40 दशक बाद हम देख ...
कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

स्मृति-शेष
लोक के चितेरे मोहन उप्रेती की पुण्यतिथि  (6 जून, 1997) की पूर्व संध्या पर स्मरण चारु तिवारी उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से, अचानक दुकान की सबेली में खड़े मोहन ने आवाज दी- ‘कहां जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहां तो आ.’ क्या है यार? घूमने भी नहीं देगा.’ और मैं खीज कर उदेसिंह की दुकान के सामने उसके साथ घुस गया. उसके सामने ही लगी हुई लकड़ी की खुरदरी मेज थी. मोहन कुछ उत्तेजित-सा लग रहा था. मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगाकर एक पूर्व प्रचलित कुमाउनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुत लय में गा रहा था. वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था. उस गीत की नई और चंचल धुन मुझे भी बहुत अच्छी लग रही थी. गीत था- बेडू पाको बारामासा हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला. रूणा-भूणा दिन आयो हो नरैण पूजा म्यारा मैता मेरी छैला. मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था. ‘अरे भाई... आगे तो गा.’ मैं बेसब्र ...
कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

स्मृति-शेष
लोक के चितेरे मोहन उप्रेती की जयंती (17 फरवरी, 1928) पर विशेष चारु तिवारी उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से, अचानक दुकान की सबेली में खड़े मोहन ने आवाज दी- ‘कहां जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहां तो आ.’ क्या है यार? because घूमने भी नहीं देगा.’ और मैं खीज कर उदेसिंह की दुकान के सामने उसके साथ घुस गया. उसके सामने ही लगी हुर्इ लकड़ी की खुरदरी मेज थी. मोहन कुछ उत्तेजित-सा लग रहा था. मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगाकर एक पूर्व प्रचलित कुमाउनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुत लय में गा रहा था. वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था. उस गीत की नर्इ और चंचल because धुन मुझे भी बहुत अच्छी लग रही थी. गीत था- अपनेपन बेडू पाको बारामासा हो नरैण काफल पाको so चैता मेरी छैला. रूणा-भूणा because दिन आयो हो नरैण पूजा but म्यारा मैता मेरी छैला. मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था. ‘अर...