आओ! ऐसे दीये जलायें
भुवन चन्द्र पन्त
आओ ! ऐसे दीये जलायें
गहन तिमिर की घुप्प निशा में
तन-मन की माटी से निर्मित
गढ़ कर दीया मात्र परहित में
परदुख कातरता से चिन्तित
स्नेह दया का तेल मिलायें
आओ! ऐसा दीया जलायें
दीवाली के दीये से केवल
होता है बाहर ही जगमग
गर अन्तर के दीप जला लो
ज्योर्तिमय होगा अन्तरजग
खुशी सौ गुनी करनी हो तो
खुद जलकर बाती बन जायें
आओ ! ऐसा दीये जलायें
बन असक्त की शक्ति कभी हम
उसके अन्तर्मन को झांकें
सीने पर भी हाथ लगाकर
निजमन की खुशियों को आंकें
अगर जरूरत पड़े अपर को
अन्धे की लाठी बन जायें
आओ ! ऐसा दीये जलायें
दीपालोकित अपना घर हो
बाजू घर ना चूल्हा जलता
श्रम तुमसे दुगना करता वह
क्या तुमको ये सब नहीं खलता?
क्यों न पड़ोसी के घर को भी
मानवता का हाथ बढा़यें
आओ ! ऐसे दीये जलायें
एक ही माटी के सब पुतले
वो धुंधले हैं और तुम क्यों उजले?
तकदीरों का खेल तमाशा
निराधार ...