जबही महाराजा देस में आए …
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—12
रेखा उप्रेती
“बारात आ गयी !!”
यह वाक्य हमारे भीतर वैसा ही उत्साह जगाता जैसे ओलंपिक्स में स्वर्ण-पदक जीतने की सूचना …
उत्साह का बीज तो किसी बुआ या दीदी का ‘ब्याह ठहरते’ ही अँखुआ जाता. घर की लिपाई-पुताई, ऐपण, रंग्वाली पिछौड़, सुआल-पथाई, धुलिअर्घ की चौकी जैसे कई काज घर और गाँव की महिलाओं की हका-हाक लगाए रखते और हम बच्चों के लिए ‘कौतिक’ जैसा माहौल बनाते… हमारे हिस्से कुछ काम आते, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था- ओलंपिक की मशाल लेकर भागने जैसा गौरव-पूर्ण दायित्व-गाँव-भर में सबको न्यूतना…
किस घर को कैसे न्यौतना है यह अच्छी तरह समझना होता. लड़की वाले की हैसियत के हिसाब से न्यौते का स्वरूप अलग-अलग होता. बड़ा गाँव था हमारा… ऐसा कम ही होता कि लड़की की शादी में पूरे गाँव को “च्युल-न्यूत” मिले.
यूँ तो लड़की चाहे किसी घर की हो, उसके विदा होने तक सारा गाँव एक परिवार...