च्यला देवी थान हैं ले द्वी बल्हड़ निकाल दिए
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—32
प्रकाश उप्रेती
आज बात-"उमि" की. कच्चे गेहूँ की बालियों को आग में पकाने की प्रक्रिया को ही 'उमि' कहा जाता था. गेहूँ कटे और उमि न पके ऐसा हो ही नहीं सकता था. उमि पकाने के पीछे का एक भाव 'तेरा तुझको अर्पण' वाला था. साथ ही गेहूँ कटने की खुशी भी इसमें शामिल होती थी.
गेहूँ काटना तब एक सामूहिक प्रक्रिया थी. गाँव वाले मिलकर एक -दूसरे के 'ग्यों' (गेहूँ) काटते थे. बाकायदा तय होता था कि "भोअ हमर ग्यों काट ड्यला, आघिन दिन त्यूमर" (कल हमारे गेहूँ काट देंगे, उसके अगले दिन तुम्हारे). सुबह से लेकर शाम तक सब खेत में ही रहते थे. वहीं सबके लिए खाना-पानी-चाय जाती थी. 'पटोक निसा' (खेत की दीवार की तरफ) बैठकर सब साथ में खाते थे. गाँव में जिसकी भी भैंस दूध देने वाली होती थी उनके वहाँ से छाँछ आ जाती थी. छाँछ पीने के बाद ईजा लोग बोलते थे- "गोअ तर है गो, त्यूमर भैंस रोज...