Tag: पर्यावरण

खतरे में है मिठास

खतरे में है मिठास

ट्रैवलॉग
मधुमक्खी में 170 प्रकार की रासायनिक गंध को पहचानने की क्षमता होती है. इसकी खासियत यह है कि यह 6 से 15 मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ती हैं. जिस तरह से वन घट रहे because हैं उसका प्रभाव मधुमक्खियों पर भी पड़ा है. उनकी संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है. मंजू काला मधुमक्खियां न केवल पौष्टिक शहद देती हैं, बल्कि हिमालय की जैव विविधता और पर्यावरण संतुलन में भी इनकी अहम भूमिका रहती है. लेकिन अब कीटनाशकों के because अंधाधुंध इस्तेमाल और जंगलों की आग ने मधुमक्खियों के जीवन के लिए संकट खड़ा कर डाला है. इसका शहद उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ रहा है. हालात यह है कि एक समय पहाड़ में जहां 10 कुंतल शहद का उत्पादन होता था, वहां आज बड़ी मुश्किल से एक कुंतल शहद ही मिल पा रहा है. पलायन का भी शहद उत्पादन पर बड़ा असर पड़ा है! स्वरोजगार कभी कीटनाशक रसायन, कभी आसमानी ओले तो कभी भोजन की कमी के चलते मधुमक्...
‘पृथु वैन्य’ जिनके नाम पर ‘पृथिवी’ का नामकरण और लोकतंत्र की स्थापना हुई

‘पृथु वैन्य’ जिनके नाम पर ‘पृथिवी’ का नामकरण और लोकतंत्र की स्थापना हुई

पर्यावरण
 ‘पृथ्वी दिवस’ पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी आज 22 अप्रैल का दिन अंतरराष्ट्रीय जगत में ‘पृथ्वी दिवस’ (Earth Day) के रूप में मनाया जाता है. पृथिवी के पर्यावरण को बचाने के लिए ‘पृथ्वी दिवस’ की स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में की गई थी. ‘पृथ्वी दिवस’ की अवधारणा सभी पहाड़, नदियों, वनस्पतियों, महासागर, ग्राम-नगरों because के पर्यावरण संतुलन की चिंता को अपने आप में समाहित किए हुए.भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो पूरे ब्रह्माण्ड में पर्यावरण की शांति 'पृथ्वी दिवस’ का मूल विचार है. अंतरराष्ट्रीय जगत मैंने अपने शोधग्रंथ "अष्टाचक्रा अयोध्या : इतिहास और परंपरा" (उत्तरायण प्रकाशन, दिल्ली, 2006) में 'भारतराष्ट्र' की अवधारणा पर प्रकाश डालते हुए 'पृथु वैन्य' के because इतिहास पर भी विस्तार से चर्चा की है.और यह बताने का प्रयास किया है कि हमारे भारत में पृथिवी की रक्...
उत्तराखंड: आखिर कौन जिम्मेदार है इस आग के लिए…

उत्तराखंड: आखिर कौन जिम्मेदार है इस आग के लिए…

देहरादून
जंगल में उपजी आग अधिकांशतः मानवजनित होती है! सुनीता भट्ट पैन्यूली क्या पहाड़ों पर कभी अब न पकेगा काफल चिड़िया नहीं चखेंगी हिस्सर भूखी रह जायेगी क्या कोयलिया. जंगल जब सुलग रहे हों आओ हम सब जल बन जायें. सड़क जो गांव से शहर को चली आओ उसी सड़क पर चल वापस लौट आयें अपने घर. प्रकृति से हम मांगते हैं हरियाली जल, हवा  हमने स्वयं क्या प्रयास किया सोचिये सोचिये. भारत में वनों के सांस्कृतिक व धार्मिक महत्त्व का आंकलन इसी आधार पर किया जा सकता है कि पेड़ हमारी सभ्यताओं से लेकर आज तक हमारे संस्कारों में पूजे जाते हैं इन्हीं जंगलों के आश्रय स्थल में हमारी सभ्यताओं ने सामाजिक उन्नयन की ओर कूच किया.अथार्त वनों के सानिध्य और मार्गदर्शन में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का उद्भव और विकास हुआ है. कहना ग़लत न होगा कि पृथ्वी पर जीवन के लिए जंगलों का विस्तार और उपस्थिति अपरिहार्य है ताकि हमें स्व...
मिलिए, उत्तराखंड के उस शख्स से जिनका पीएम मोदी ने ‘मन की बात’ में लिया नाम

मिलिए, उत्तराखंड के उस शख्स से जिनका पीएम मोदी ने ‘मन की बात’ में लिया नाम

बागेश्‍वर
ललित फुलारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को 'मन की बात' कार्यक्रम में उत्तराखंड के बागेश्वर निवासी जगदीश कुन्याल के पर्यावरण संरक्षण और जल संकट से निजात दिलाने वाले because कार्यों की सराहना की. पीएम मोदी ने कहा कि उनका यह कार्य बहुत कुछ सीखाता है. उनका गांव और आसपास का क्षेत्र पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए एक प्राकृतिक जल स्त्रोत पर निर्भर था. जो काफी साल पहले सूख गया था. so जिसकी वजह से पूरे इलाके में पानी का संकट गहरा गया. जगदीश ने इस संकट का हल वृक्षारोपण के जरिए करने की ठानी. उन्होंने गांव के लोगों के साथ मिलकर हजारों की संख्या में पेड़ लगाए और सूख चुका गधेरा फिर से पानी से भर गया. कौन हैं जगदीश कुन्याल दरअसल, जगदीश कुन्याल पर्यावरण प्रेमी हैं और उन्होंने अपनी निजी प्रयास से इलाके में हजारों की संख्या में वृक्षारोपण किया जिसकी वजह से सूख चुके पानी के गधेरे में जल...
राष्ट्ररक्षा और पर्यावरण संचेतना का पर्व शारदीय नवरात्र

राष्ट्ररक्षा और पर्यावरण संचेतना का पर्व शारदीय नवरात्र

लोक पर्व-त्योहार
डॉ. मोहन चंद तिवारी 17 अकटूबर, 2020 से शारदीय नवरात्र का शुभारम्भ हो रहा है. हर वर्ष शारदीय नवरात्र के अवसर पर पूरे देश में दुर्गापूजा का महोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. श्रद्धालुजन शक्तिपीठों because और देवी के मन्दिरों में जाकर आदिशक्ति भगवती से प्रार्थना करते हैं कि पूरे ब्रह्माण्ड में प्राकृतिक प्रकोप शान्त हों‚ तरह तरह की व्याधियों और रोगों से छुटकारा मिले‚ प्राणियों में आपसी वैरभाव समाप्त हो और पूरे विश्व का कल्याण हो. नवरात्र नवशक्तियों के सायुज्य का पर्व है जिसकी एक-एक तिथि में एक-एक शक्ति प्रतिष्ठित रहती है- "नवशक्तिभिः संयुक्तं नवरात्रं तदुच्यते." जलविज्ञान शास्त्रकारों के अनुसार ‘शयन’ और ‘बोधन’ दो प्रकार के नवरात्र होते हैं. ‘शयन’ चैत्र मास में होता है जिसे वासन्तीय नवरात्र कहते हैं और ‘बोधन’ आश्विन मास में होता है जिसे शारदीय नवरात्र कहते हैं. शरद ऋतु देवताओं क...
“बृहत्संहिता में शिलाभेदन के रासायनिक फार्मूले”

“बृहत्संहिता में शिलाभेदन के रासायनिक फार्मूले”

जल-विज्ञान
असगोली की ग्राउंड रिपोर्ट सहित  "जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने से भी बड़ा काम है,because उनकी सड़क माफियों के अत्याचार से रक्षा करना." भारत की जल संस्कृति-21 डॉ. मोहन चंद तिवारी हम जब प्राचीन काल की गुफाओं अजन्ता, so ऐलोरा,मंदिरों,कुओं और विशाल जलाशयों आदि को देखते हैं तो आश्चर्य होता है कि आखिर कैसे इन विशाल गुफाओं की भूमिगत विशाल शिलाओं को खंड-खंड करके इतनी सुंदरता के साथ इनका निर्माण किया गया होगा? केवल छैनीं, कुदाल और हथौड़ों के उपकरणों से तो इनका निर्माण सम्भव नहीं लगता है. इसी सन्दर्भ में जब अपने प्राचीन ग्रन्थों में विवेचित भारत की रासायनिक विधियों का अन्वेषण करते हैं तो वराहमिहिर की बृहत्संहिता उनमें से रासायनिक शिलाविज्ञान का मुख्य ग्रन्थ सिद्ध होता है. जानकारी बृहत्संहिता में जल वैज्ञानिक आचार्य वराहमिहिर द्वारा अनेक ऐसे उपाय और विधियां बताई गई हैं,जिनसे जलाशय या कूप उत...
संकट में है आज हिमालय पर्यावरण

संकट में है आज हिमालय पर्यावरण

पर्यावरण
‘हिमालय दिवस’ (9 सितम्बर) पर विशेष डॉ. मोहन चंद तिवारी आज हिमालय दिवस है.पिछले कुछ वर्षों से देश भर में, खासकर उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में 9 सितम्बर को ‘हिमालय दिवस’ मनाया जा रहा है. हिमालय दिवस की शुरुआत 9 सितंबर,2010 को हिमालय पर्यावरण को समर्पित जाने माने पर्यावरणविदों सर्वश्री सुन्दर लाल बहुगुणा, सुरेश भाई, राजेन्द्र सिंह,पद्मश्री डॉ.अनिल प्रकाश जोशी आदि द्वारा की गई थी. इन पर्यावरणविदों का एक मंच पर आना इसलिए हुआ था कि तब सरकारें हिमालय पर्यावरण के संरक्षण व विकास को लेकर नाकाम ही साबित हो रही थी. ये पर्यावरणविद् सम्पूर्ण हिमालय में हिमालय दिवस के माध्यम से ऐसी जन चेतना जागृत करने के लिए एक मंच पर आए थे ताकि हिमालय के प्राकृतिक संसाधनों और उसकी जैव विविधता की रक्षा की जा सके. 'हिमालय दिवस' मनाने से अति संवेदनशील हिमालय पारिस्थितिकी और पर्यावरण का कुछ भला हुआ होता तो इ...
पर्यावरण आंदोलन और पहाड़ी महिलाएं

पर्यावरण आंदोलन और पहाड़ी महिलाएं

आधी आबादी
भावना मसीवाल पहाड़ का जीवन देखने में हमें जितना शांत और खूबसूरत लगता है, अपने भीतर वह बहुत सी हलचलों और दबावों को समेटे है. यह दबाव एक ओर प्रकृति का प्रकोप है जो भूकंप और बाढ़ के रूप में देखा जाता है तो दूसरी ओर पहाड़ पर बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप है जो केदारनाथ, बद्रीनाथ और रूद्रप्रयाग के विध्वंस का जीवंत उदाहरण है. पहाड़ के जीवन को जिसने न केवल प्रभावित किया बल्कि पहाड़ को मैदानों और शहरो की तरफ पलायन को मजबूर किया. यह पलायन केवल एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे पहाड़ी समाज का रहा. पहाड़ी समाज पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित है मगर भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने प्रकृति प्रदत्त उनकी यह जीविका छीन ली है. आज पलायन बढ़ रहा है. कारण आर्थिक बेरोजगारी है जिसका परिणाम सबसे अधिक महिलाओं के जीवन पर रहा. उत्तराखंड में आज भी महिलाएं अकेली पहाड़ पर रहने को मजबूर हैं और पुरुष शहर जाकर कमाने को. पहाड़ के बारे में कहा जा...
अमर शहीद श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस पर उन्हें नमन करते हुए

अमर शहीद श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस पर उन्हें नमन करते हुए

स्मृति-शेष
टिहरी बांध बनने में शिल्पकार समाज के जीवन संघर्षों का रेखांकन, साहित्यकार ‘बचन सिंह नेगी’ का मार्मिक उपन्यास 'डूबता शहर’ डॉ.  अरुण कुकसाल "...शेरू भाई! यदि इस टिहरी को डूबना है तो ये लोग मकान क्यों बनाये जा रहे हैं. शेरू हंसा ‘चैतू! यही तो निन्यानवे का चक्कर है, जिन लोगों के पास पैसा है, वे एक का चार बनाने का रास्ता निकाल रहे हैं. डूबना तो इसे गरीबों के लिए है, बेसहारा लोगों के लिये है, उन लोगों के लिए है जिन्हें जलती आग में हाथ सेंकना नहीं आता. जो सब-कुछ गंवा बैठने के भय से आंतकित हैं.....चैतू सोच में डूब जाता है, उनका क्या होगा? आज तक रोजी-रोटी ही अनिश्चित थी, अब रहने का ठिकाना भी अनिश्चित हो रहा है.’’  (पृष्ठ, 9-10) टिहरी बांध बनने के बाद ‘उनका क्या होगा?’ यह चिंता केवल चैतू की नहीं है उसके जैसे हजारों स्थानीय लोगों की भी है. ‘डूबता शहर’ उपन्यास में जमनू, चैतू, कठणू, रूपा, रघु,...
पर्यावरण को समर्पित उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला

पर्यावरण को समर्पित उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला

साहित्‍य-संस्कृति
अशोक जोशी देवभूमि, तपोभूमि, हिमवंत, जैसे कई  पौराणिक नामों से विख्यात हमारा उत्तराखंड जहां अपनी खूबसूरती, लोक संस्कृति, लोक परंपराओं धार्मिक तीर्थ स्थलों के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध है,  तो वहीं यहां के लोक पर्व भी पीछे नहीं, जो इसे ऐतिहासिक दर्जा प्रदान करने में अपनी एक अहम भूमिका रखते हैं. हिमालयी, धार्मिक व सांस्कृतिक राज्य होने के साथ-साथ देवभूमि उत्तराखंड को सर्वाधिक लोकपर्वों वाले राज्य के रूप में भी देखा जाता है. विश्व भर में कोई त्यौहार जहां वर्ष में सिर्फ एक बार आते हैं तो वही हरेला जैसे कुछ लोक पर्व देवभूमि में वर्ष में तीन बार मनाए जाते हैं. हरेला लोक पर्व उत्तराखंड में मनाया जाने वाला एक हिंदू पर्व है, जो विशेषकर राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में अधिक प्रचलित है. कुछ लोगों के द्वारा चैत्र मास के प्रथम दिन  इसे बोया जाता है, तथा नवमी के दिन काटा जाता है. तो कुछ जनों के द्वारा...