‘तीलू पिन’ मतलब जाड़ों की ख़ुराक़
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—4
प्रकाश उप्रेती
आज बात-'तीलू पिन' (तिल के लड्डू) की.हमारे यहाँ यह सर्दियों की ख़ुराक थी. पहाड़ के जिन इलाकों में तिल ज्यादा होते हैं, वहाँ 'पिन' बनता ही था. हमारे यहाँ तिल ठीक-ठीक मात्रा में होते थे. बाकायदा कुछ खेत तिल के लिए ही जाने जाते हैं. उनको तिल के लिए ही तैयार किया जाता था.
ईजा उन खेतों की पहचान करती थीं जहाँ तिल हो सकते थे. हर खेत की प्रवृति उसकी मिट्टी पर निर्भर करती थी. मौसम तो अधिकांशतः पूरे क्षेत्र का एक जैसा ही होता था मगर कौन से खेत में कौन सी फसल अच्छी होगी इसके लिए बहुत कुछ देखना पड़ता था. अक्सर ईजा कुछ खेतों में अनाज के साथ "ढीका-निसा" (खेत के इधर-उधर) तिल भी बो देती थीं. अगर उसमें तिल ठीक हुए तो फिर अगले वर्ष से वह तिल वाला खेत हो जाता था. इस तरीके से 2-3 खेत तय हो जाते और अदल-बदल कर उनमें तिल बोए जाते थे.
हम भी तिल कभी-कभी...