Tag: जे. पी. मैठाणी

उत्तराखंड हिमालय की धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं का प्रतीक  है: छोटी दीवाली और इगास

उत्तराखंड हिमालय की धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं का प्रतीक है: छोटी दीवाली और इगास

लोक पर्व-त्योहार
जे पी मैठाणी  ऐ- ध्यान धोरया - यी राखुडी- कांणसी बग्वाल मतलब छ्वोटी दीवाली का दिन ख्वोली कणी ग्वोरू का पुछडा पर बाँधण च ( हे ध्यान रखना सब लोग - ये जो तुम्हारे हाथों पर राखियाँ बांधी जा रही है , ये छोटी दिवाली के दिन काटकर गाय के पूछ पर बाँध देनी हैं.  - ध्यान रखना- ये कोई और नहीं मेरी माँ ( श्रीमती विशेश्वरी देवी )  रक्षाबंधन के दिन हमको - बार बार बोल देती थी , और आज भी मैंने अपनी मां को फ़ोन करने की कोशिश की लेकिन अभी रात बेहद हो गयी तो बात नहीं हो पायी ! उस दौर में समस्या यह थी की उस जमाने में स्पंज से बनी राखियाँ जल्दी ही पानी सोखकर टूट जाती थी,  और सिर्फ सामान्य धागे वाली राखी पसनद नहीं आती थी ! आस पास के गांवों से जो पंडित जी भी आते थे उनकी हल्दी  और लाल पिठाईं में रंगी गयी राखियों से सारी हथेलियाँ रंग जाती थी और स्कूल में लिखते वक्त नोट बुक पर राखियों का वो कच्चा रंग लग जाता था ! घर...
रिंगाल: उत्तराखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का हरा सोना

रिंगाल: उत्तराखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का हरा सोना

उत्तराखंड हलचल
जे. पी. मैठाणी पहाड़ की अर्थव्यवस्था के साथ रिंगाल का अटूट रिश्ता रहा है. रिंगाल बांस की तरह की ही एक झाड़ी है. इसमें छड़ी की तरह लम्बे तने पर लम्बी एवं पतली पत्तियां गुच्छी के रूप में निकलती है. यह झाड़ी पहाड़ की संस्कृति से जुड़ी एक महत्वपूर्ण वनस्पति समझी जाती है. पहाड़ के जनजीवन का पर्याय रिंगाल, पहाड़ की अर्थव्यवस्था का सुदृढ़ अंग रहा है. प्राचीन काल से ही यहाँ के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का श्री गणेश रिंगाल की बनी कलम से होता था. घास लाने की कण्डी से लेकर सूप, टोकरियां, चटाईयां, कण्डे, बच्चों की कलम, गौशाला, झोपडी तथा मकान तक में रिंगाल अनिवार्य रूप में लगाया जाता है. वानस्पतिक परिचय- वन विभाग के अनुसार रिंगाल एक वृक्ष है, परन्तु वन विभाग की 1926-1928 से सन् 1936-37 की कार्य योजना में रिगाल की परिभाषा- “रिंगाल एक बहुवर्षीय पेड़ों के नीचे उगने वाली झाड़ी/ घास है जो नोड्स एवं इन्टर नोड्स म...
शिलाखर्क बुग्याल ट्रैक: रहस्य और रोमांच से भरा ट्रैकिंग स्‍पॉट

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पर्यटन
कम और ना जाने, जाने वाले ट्रैंकिंग रूट - पार्ट-2 पांडव यहॉं बना रहे थे विशाल मंदिर, लेकिन... जे. पी. मैठाणी उत्तराखण्ड के सीमान्त जनपद चमोली की एक बेहद रोमांचक घाटी है पाताल गंगा घाटी. बायोटूरिज़्म पार्क पीपलकोटी से लगभग 11 किमी. की दूरी पर पाखी गरूड़गंगा, पनाईगाड, टंगणी और बेलाकूची के बाद एक छोटा सा 10-12 दुकानों का बाजार है जिसका नाम पातालगंगा है. संभवतः यह नाम देश की आजादी के बाद जब भारत-चीन बॉर्डर पर सड़कों का विकास हो रहा था, तब पड़ा होगा. उस दौरान 70 के दशक में अलकनन्दा घाटी की सबसे बड़ी बेलाकूची बाढ़ आई थी. उसके बाद पीपलकोटी से भंडीरपाणी के बाद सड़क का अलाइनमेन्ट बदल दिया गया और अब सड़क पाखी गरूड़ गंगा, पनाईगाड़ टंगणी से अपर बेलाकूची होते हुए एक ऐसे स्थान पर पहुँचती है जहाँ पर लॉर्ड कर्जन पास के जलागम से विभाजित होकर एक बड़ी जलधारा आती है. इस स्थान पर राष्ट्रीय राजमार्ग के बनने में ए...
अंजीर ला सकता है रोजगार की बयार

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उत्तराखंड हलचल
बेडू और तिमला से ही विकसित हुआ है अंजीर. उत्तराखंड में उपेक्षित क्यों? जे. पी. मैठाणी पहाड़ों में सामान्य रूप से जंगली समझा जाने वाला बेडू और तिमला वस्तुत: एक बहुउपयोगी फल है. ​तिमला और बेडू के वृक्ष से जहां पशुओं के लिए जाड़ों में विशेषकर अक्टूबर से मार्च तक हरा चारा मिलता है, वहीं इसका फल अभी तक उपेक्षित माना गया है. दुनिया के कई देशों में लगातार शोध और अनुसंधान तथा कायिक प्रवर्धन से अंजीर को विकसित किया गया. शोध पत्र बताते हैं कि अंजीर जिसका वैज्ञानिक नाम फाइक्स कैरिका है यह मलबेरी ​परिवार यानी मोरेशी परिवार का सदस्य है. मूलत: अंजीर एशिया में तुर्की से उत्तर भारत तक का निवासी माना जाता है. पहले इसको गरीबों का भोजन भी कहा जाता था. जैसे कि आज भी उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जिस परिवार को सब्जी नसीब ना हो, ऐसा माना जाता है कि वह परिवार तिमले की सब्जी बनाते हैं या चटनी बनाते ...