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वो गाँव की लड़की

वो गाँव की लड़की

साहित्यिक-हलचल
एम. जोशी हिमानी गाँव उसकी आत्मा में इस कदर धंस गया है कि शहर की चकाचौंध भी उसे कभी अपने अंधेरे गाँव से निकाल नहीं पाई है वो गाँव की लड़की बड़ी बेढब सी है खाती है शहर का ओढ़ती है शहर को फिर भी गाती है गाँव को उसके गमले में लगा पीपल बरगद का बौनसाई जब पंखे की हवा में हरहराता है और उसके बैठक में एक सम्मोहन सा पैदा करता है वो गाँव की लड़की खो जाती है चालीस साल पहले के अपने गाँव में और झूलने लगती है अपने खेत में खड़े बुजुर्ग मालू के पेड़ की मजबूत बाहों में पड़े प्राकृतिक झूलों में अब किसी भी गाँव में उसका कुछ नहीं है सिवाय यादों के वो लड़की थी इसलिए किसी खसरा-खतौनी में उसका जिक्र भी नहीं है शहर में ब्याही वो गाँव की लड़की अपनी साँसों में बसाई है अब तक काफल, बांज, चीड़-देवदार बड.म्योल उतीस के पेड़ों को सभी नौलों धारों गाड़-गधेरों और बहते झरनों को ...
खाँकर खाने चलें…!!

खाँकर खाने चलें…!!

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—11 रेखा उप्रेती शुरू जाड़ों के दिन थे वे. बर्फ अभी दूर-दूर पहाड़ियों में भी गिरी नहीं थी, पर हवा में बहती सिहरन हमें छू कर बता गयी थी कि खाँकर जम गया होगा… इस्कूल की आधी छुट्टी में पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाले सीनियर्स ने प्रस्ताव रखा “हिटो, खाँकर खाने चलते हैं…” तो आठ-दस बच्चों की टोली चल पड़ी खाँकर की तलाश में… इस्कूल हमारा पहाड़ के सबसे ऊँचे शिखर पर था और खाँकर मिलता था एकदम नीचे तलहटी पर बहते गधेरे में… वह भी देवदार के घने झुरमुट की उस छाँव के तले, जहाँ सूरज की किरणों का प्रवेश जाड़ों में तो निषिद्ध ही होता… अपनी पहाड़ी से कूदते-फाँदते नीचे उतर आए हम….उसके लिए हमें बनी-बनाई पगडंडियों की भी ज़रुरत नहीं थी. सीढ़ीदार खेतों से ‘फाव मारकर’ हम धड़धड़ाते हुए उतर आते थे. गाँव की ओर जाने वाली पगडंडी पहले ही छोड़ दी, कोई देख ले तो खाँकर का ख़्वाब धरा रह जाए…… तलहटी पहुँचक...
चीड़ को इस नज़र से भी देखना होगा

चीड़ को इस नज़र से भी देखना होगा

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—20 प्रकाश उप्रेती पहाड़ की हर चीज आपको कुछ न कुछ देती है. पहाड़ के लोगों का हर पेड़, ढुङ्ग (पत्थर), भ्योव (पहाड़), गढ्यर, और झाड़ियों से एक रिश्ता होता है. आज बात करते हैं- 'सोह डाव' (चीड़ के पेड़) और उसकी धरोहर- 'ठिट'(चीड़ का फल) और 'छिलुक' (आग पकड़ने वाली लकड़ी) की. जाड़े के दिनों में हमारा एक काम 'भ्योव बे ठिट'(जंगल से चीड़ का फल) लाने का भी होता था. ईजा घास काटने जाती थीं तो हम उनके साथ ठिट चाहने जाते थे. जाड़े की सुबह-सुबह जब 'हॉल' (कोहरा) के कारण दिखाई भी मुश्किल से देता था तो ईजा कहती थीं- "भ्योव हिट च्यला वोति घाम ले तापी हाले और आग तापे हैं 'मुन' (पेड़ की जड़) और ठिट ले चाहा ल्याले". ( बेटा मेरे साथ पहाड़ चल वहाँ से अंगीठी में जलाने के लिए चीड़ के फल, लकड़ी की जड़े भी ले आएगा और धूप भी सेक लेगा)  यह कहते हुए ईजा हमको एक बोरी देती थीं. हम ईजा के साथ भ्यो चल...
“ऊम” महक गॉंव की

“ऊम” महक गॉंव की

संस्मरण
सुमन जोशी उत्तराखंड में खेती व अनाज से जुड़े न जाने कितने ही त्यौहार, कितने की रीति—रिवाज़ और न जाने कितनी ही मान्यताएं हैं. पर हर एक मान्यता में यहां की संस्कृति व अपनेपन की झलक देखने को मिलती है. कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण यहाँ हर एक फसल के बोने से लेकर के काटने व रखने तक अलग-अलग अनुष्ठान किये जाते हैं. किसी नई फसल की पैदावार में उसे ईष्ट देव को नैनांग के रूप में चढ़ाया जाता है और फिर समस्त गाँववासियों द्वारा प्रयोग किया जाता है. पहाड़ों में खेतों में कुछ खेत जहाँ पर बहुत छाया रहती है या फिर सिमार (पानी भरे हुए खेत) में फसल ठीक प्रकार से पक नहीं पाती यानी हरी ही रह जाती है, ऐसे खेतों के किनारों से ही ऊम के लिए गेहूं के मुठे बाँध लिए जाते और ईजा, काकी या ज्येठजा में से कोई भी मुठे बनाकर बच्चों को थमा देते व इन्हें जलाने अथवा सेकनें का काम उन्हें दे देते. निःसंदेह बच्चों में उत्सा...