Tag: गिरीश्वर मिश्र

दीपावली विशेष : शुभ हो लाभ!

दीपावली विशेष : शुभ हो लाभ!

लोक पर्व-त्योहार
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति इस क्षण भंगुर संसार में उन्नति और अभिवृद्धि सभी को प्रिय है. साथ ही यह बात भी बहुत हद तक सही है कि इसका सीधा रिश्ता वित्तीय अवस्था से होता है. पर्याप्त आर्थिक संसाधन के बिना किसी को इच्छित सिद्धि नहीं मिल सकती. लोक की रीति को ध्यान में रखते कभी भर्तृहरि ने अपने नीति शतक में कहा था कि सभी गुण कंचन अर्थात् धन में ही समाए हुए हैं. धनी व्यक्ति की ही पूछ होती है, वही कुलीन और सुंदर कहा जाता है, वही वक्ता और गुणवान होता है, उसी की विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा मिलती है. इसलिए जीवन में सभी इसी का उद्यम करते रहते हैं कि आर्थिक समृद्धि निरंतर बढ़ती रहे. लक्ष्मी-गणेश की शुभ मुहूर्त में पूजा और घर में दीप जलाने के आयोजन के साथ कई अर्थहीन मिथक भी जुड़ गए हैं. उदाहरण के लिए इस दिन जुआ खेलना बहुतों का एक अनिवार्य अभ्यास हो चुका है. आज का मनुष्य अधिक...
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस : एकै साधे सब सधे !

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस : एकै साधे सब सधे !

अध्यात्म
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून, 2024) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  जीवन की डोर साँसों से बंधी होती है इसलिए सामान्य व्यवहार में सांस लेना जीवन का पर्याय या लक्षण के रूप में प्रचलित है. सांस अन्दर लेना और बाहर निकालना एक स्वत:चालित स्वैच्छिक शारीरिक क्रिया है जो शरीर में दूसरी प्रक्रियाओं को प्रभावित करती है और हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर सीधा असर डालती हैं. योग-विज्ञान में साँस लेना सिर्फ शारीरिक अभ्यास नहीं है. वह आध्यात्मिक विकास की राह भी है और तन-मन से स्वस्थ बने रहने का एक सरल नुस्खा भी है. योग के अंतर्गत प्राणायाम में साँस लेने के विभिन्न तरीकों पर विशेष चर्चा की गयी है.  योगियों की अनेक उपलब्धियाँ का आधार साँसों के नियंत्रण में ही छिपा हुआ है. प्राणायाम का अर्थ होता है प्राण का विस्तार और उसकी अभिव्यक्ति. हमारा मन प्राण के साथ वैसे ही जुड़ा होता है जैसे एक पतंग धागे...
प्रभु अवतरेहु हरनि महि भारा

प्रभु अवतरेहु हरनि महि भारा

लोक पर्व-त्योहार
राम नवमी पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  हर संस्कृति अपनी जीवन-यात्रा के पाथेय के रूप में कोई न कोई छवि आधार रूप में गढ़ती है। यह छवि एक ऐसा चेतन आईना बन जाती है जिससे आदमी अपने को पहचानता है और उसी से उसे जो होना चाहता है या हो सकता है उसकी आहट भी मिलती है। इस अर्थ में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों ही इस अकेली छवि में संपुंजित हो कर आकार पाते हैं। ऐसे ही एक अप्रतिम चरितनायक के रूप में श्रीराम युगों-युगों से भारतीय जनों के मन मस्तिष्क में बैठे हुए हैं। भारतीय मन पर उनका गहरा रंग कुछ ऐसा चढ़ा है कि और सारे रंग फीके पड़ गए। भारतीय चित्त के नवनीत सदृश श्रीराम हज़ारों वर्षों से भारत और  भारतीयता के पर्याय बन चुके हैं। इसका ताज़ा उदाहरण अयोध्या है। यहाँ पर प्रभु के विग्रह को ले कर जन-जन में जो अभूतपूर्व उत्साह उमड़ रहा है वह निश्चय ही उनके प्रति लोक - प्रीति का अद्भुत प्रमाण है। वे ऐसे शिखर ...
अज्ञेय : वैचारिक स्वातंत्र्य और प्रयोगशीलता के पुरस्कर्ता

अज्ञेय : वैचारिक स्वातंत्र्य और प्रयोगशीलता के पुरस्कर्ता

साहित्‍य-संस्कृति
अज्ञेय के जन्म-दिवस (7 March) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जिन मेधाओं ने भारतीय विचार जगत को समृद्ध करते हुए यहाँ के मानस के निर्माण में महत्वपूर्ण निभाई उनमें कवि, लेखक और पत्रकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987) की उपस्थिति विशिष्ट है। विलक्षण और कई दृष्टियों से सम्पन्न, स्वतंत्र विचार और स्वायत्त जीवन के लिए कटिबद्ध अज्ञेय एक विरल व्यक्तित्व थे जिंहोने खुद अपना आविष्कार किया था। उन्होंने सोच कर, लिख कर और जी कर आत्म-चेतस व्यक्तित्व का परिचय दिया था। अपने रचना कर्म से उन्होंने यह स्थापित किया कि आधुनिक होना सिर्फ़ अपने को नकार कर या जो है उससे भिन्न कुछ और हो कर ही नहीं सम्भव है बल्कि अपनी जड़ों से जुड़ कर भी होता है। भारतीय आधुनिकता कुछ ऐसे ही आत्म-परिष्कार से जुड़ी होती है। वैसे भी परम्परा जड़ नहीं होती। उसमें प्रवाह भी होता है और उसक...
मन के दीप करें जग जगमग

मन के दीप करें जग जगमग

लोक पर्व-त्योहार
दीपावली पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  अंधकार बड़ा डरावना होता है। जब वह गहराता है तो राह नहीं सूझती, आदमी यदि थोड़ा भी असावधान रहे तो उसे ठोकर लग सकती है और आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध भी हो सकता है। इतिहास गवाह है कि अंधकार के साथ  मनुष्य का संघर्ष लगातार चलता  चला आ रहा है। उसकी अदम्य जिजीविषा के आगे अंधकार को अंतत: हारना ही पड़ता है। वस्तुत: सभ्यता और संस्कृति के विकास की गाथा अंधकार के विरूद्ध संघर्ष का ही इतिहास है। मनुष्य जब एक सचेत तथा विवेक़शील प्राणी के रूप में जागता है तो अंधकार की चुनौती स्वीकार करने पर पीछे नहीं हटता। उसके प्रहार से अंधकार नष्ट हो जाता है। संस्कृति के स्तर पर अंधकार से लड़ने और उसके प्रतिकार की शक्ति को जुटाते हुए मनुष्य स्वयं को ही दीप बनाता है। उसका रूपांतरण होता है। आत्म-शक्ति का यह दीप उन सभी अवरोधों को दूर भगाता है जो व्यक्ति और उसके समुदाय को उसके लक्...
गांधी जयंती: अन्य को अनन्य बनाते गांधी!

गांधी जयंती: अन्य को अनन्य बनाते गांधी!

स्मृति-शेष
 गांधी जयंती (2 अक्तूबर) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  महात्मा गांधी का लिखा समग्र साहित्य का हिंदी संस्करण सत्तानबे खंडों के कई हज़ार पृष्ठों में समाया हुआ है। इसका बहुत बड़ा हिस्सा उनके आत्म-संवाद का है जहाँ वह जीवन के अपने अनुभव की पुनर्यात्रा करते दिखाई पड़ते हैं। जीवन का पूर्वकथन संभव नहीं पर आगे के लिए नवीन रचना की कोशिश तो हो ही सकती है। यही सोच कर गांधी जी बार–बार अपने अनुभवों की मनोयात्रा में आवाजाही करते हैं। यह बड़ा दिलचस्प है कि ऐसा करते हुए वे खुद अपनी परीक्षा भी करते रहते थे। उन्होंने अपनी ग़लतियों को स्वीकार करते हुए स्वयं को कई बार दंडित किया था और प्रायश्चित्त भी किया था। आत्म-विमर्श का उनकी निजी जीवनचर्या में एक ज़रूरी स्थान था। वे अपने में दोष-दर्शन भी बिना घबड़ाए कर पाते थे। इस तरह आत्मान्वेषण उनके स्वभाव का अंग बन गया था। सतत आत्मालोचन की पैनी निगाह के साथ गांधी ज...
सनातन है जीवन का आमंत्रण 

सनातन है जीवन का आमंत्रण 

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  यह भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि Hinduजैसे अत्यंत व्यापक महत्व के सदाशयी विचारों को लेकर अर्थ का अनर्थ करने जैसी चर्चाएँ चल रही हैं। इन अवधारणाओं का अवमूल्यन हो रहा है। पहले बिना जाने बूझे इन्हें ‘विज्ञानविरोधी’ घोषित किया  गया था और उसे आडम्बर और ढोंग की श्रेणी में रख व्यर्थ मान लिया गया। भौतिक और आध्यात्मिक की दो श्रेणियाँ बनाई गईं । इसके साथ यथार्थ और कल्पित का भेद किया गया। शरीर और आत्मा के रिश्ते को विच्छिन्न कर दिया गया। भौतिक विज्ञान के अनुकूल जो अस्तित्व में होता है उसका एक ही स्वरूप स्वीकार किया गया कि वह सिर्फ़ वस्तु हो सकता है। फलतः सब कुछको  (जो विद्यमान है) वस्तु की श्रेणी में रखा गया। अब राजनीति की सहूलियत देखते हुए उसमें अनेक दूसरे दोष देखे पहचाने जा रहे हैं। ‘सनातन धर्म’ को लेकर उसे उसके मूल भाव से काट कर उस पर तोहमत जड़ कर उसकी छवि धूमिल करने की ...
विद्या के परिसर में सीखने-सिखाने की संस्कृति बहाल की जाए!

विद्या के परिसर में सीखने-सिखाने की संस्कृति बहाल की जाए!

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  कहा जाता है धरती पर ज्ञान जैसी कोई दूसरी पवित्र वस्तु नहीं है. भारत में प्राचीन काल से ही न केवल ज्ञान की महिमा गाई जाती रही है बल्कि उसकी साधना भी होती आ रही है. इस बात का असंदिग्ध प्रमाण देती है काल के क्रूर थपेड़ों के बावजूद अभी भी शेष बची विशाल ज्ञानराशि. अनेकानेक ग्रंथों तथा पांडुलिपियों में उपस्थित यह विपुल सामग्री भारत की वाचिक परम्परा की अनूठी उपलब्धि के रूप में वैश्विक स्तर पर अतुलनीय और आश्चर्यकारी है. यह हमारे लिए सचमुच गौरव का विषय है कि आज जैसी उन्नत संचार तकनीकी के अभाव में भी मानव स्मृति में भाषा के कोड में संरक्षित हो कर यह सब जीवित रह सका. इस परम्परा में मनुष्य के जीवन में होने वाले आरम्भ में विकास और उत्तर काल में ह्रास की अकाट्य सच्चाई को स्वीकार करते हुए मनुष्य को जीने के लिए तैयार करने की व्यवस्था की गई थी. ज्ञान केंद्रित भारतीय संस्कृति के अंतर...
पर्यावरण ही जीवन का स्रोत है

पर्यावरण ही जीवन का स्रोत है

पर्यावरण
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  हमारा पर्यावरण पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंच महाभूतों या तत्वों से निर्मित है. आरम्भ में मनुष्य इनके प्रचंड प्रभाव को देख चकित थे. ऐसे में यदि इनमें देवत्व के दर्शन की परम्परा चल पड़ी तो कोई अजूबा नहीं है. आज भी भारतीय समाज में यह एक स्वीकृत मान्यता के रूप में आज भी प्रचलित है. अग्नि, सूर्य, चंद्र, आकाश, पृथ्वी, और वायु आदि ईश्वर के ‘प्रत्यक्ष’ तनु या शरीर कहे गए है. अनेकानेक देवी देवताओं की संकल्पना प्रकृति के उपादानों से की जाती रही है जो आज भी प्रचलित है. शिव पशुपति और पार्थिव हैं तो गणेश गजानन हैं. सीता जी पृथ्वी माता से निकली हैं. द्रौपदी यज्ञ की अग्नि से उपजी ‘याज्ञसेनी’ हैं. वैसे भी पर्यावरण का हर पहलू हमारे लिए उपयोगी है और जीवन को सम्भव बनाता है. वनस्पतियाँ हर तरह से लाभकर और जीवनदायी हैं. वृक्ष वायु-संचार के मुख्य आ...
सीय-राममय सब जग जानी

सीय-राममय सब जग जानी

लोक पर्व-त्योहार
राम नवमी पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  श्रीराम विष्णु के अवतार हैं. सृष्टि के कथानक में भगवान विष्णु के अवतार लेने के कारणों में भक्तों के मन में आए विकारों को दूर करना, लोक में भक्ति का संचार करना, जन – जन के कष्टों का निवारण और भक्तों के लिए भगवान की प्रीति पा सकने की इच्छा पूरा करना प्रमुख हैं. सांसारिक जीवन में मद, काम, क्रोध और मोह आदि से अनेक तरह के कष्ट होते हैं और उदात्त वृत्तियों के विकास में व्यवधान पड़ता है. रामचरितमानस में इन स्थितियों का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है, नीच और अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं और अन्याय करने लगते हैं पृथ्वी और वहाँ के निवासी कष्ट पाते हैं तब-तब कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के दिव्य शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं. एक भक्त के रूप में तुलसीदास जी का विश्वास है कि सारा जगत राममय है और उनके मन में बसा ...