काणी मैं (मामी) उर्फ हल्या बौ (भाभी)
डॉ. अमिता प्रकाश
पहाड़ हम पहाड़वासियों की रग-रग में इसी तरह बसा है जैसे शरीर में प्राण. प्राण के बिना जैसे शरीर निर्जीव है, कुछ वैसे ही हम भी प्राणहीन हो जाते हैं, पहाड़ के बिना. पहाड़ में हमारी जड़ें हैं जिनसे आज भी हम पोषण प्राप्त कर रहे हैं और जीवन के संघर्ष में हर आँधी-तूफान से लड़ते हुए खड़े हैं. पहाड़ की सी कठोरता हमारे व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है, और इसी कठोरता के बलबूते जहाँ-तहाँ हम खड़े दिख जाते हैं ‘कुटजों’ की तरह. भले ही रूखे-सूखे और कंटीले लगे हम दुनियाँ वालों को लेकिन पहाड़ों की सी तरलता भी भरपूर होती है हम पहाड़ियों में. जैसे पहाड़ पालता है अपनी कोख में असंख्य पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं को, और फूट पड़ता है ‘धारे-नौले, सोतों के रूप में, बिखर जाता है नदीधारा को रास्ता देने, वैसे ही अपने अस्तित्व का कण-कण समर्पित करते आए हैं हम पहाड़ी. भले ही न सराहा हो किसी ने हमारे समर्पण को कभी, पहाड़ को रहने...