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कहानी: शीशफूल

कहानी: शीशफूल

किस्से-कहानियां
सुनीता भट्ट पैन्यूली कहानियों का नदी की तरह कोई मुहाना नहीं होता ना ही सितारों की तरह उनका कोई आसमान. एक सजग दृष्टि और कानों की एकाग्रता किसी भी विषयवस्तु को कहानियों का चोला पहना देती हैं. पलायन, बाढ़ या भूकंप के कारण लोग अपना घर छोड़कर कुछ अरसे के लिए बाहर ज़रुर चले जाते हैं किंतु आफत कम होते ही वापस अपने घर-परिवेश में आ जाते हैं. किंतु स्त्रियों के संदर्भ में ऐसा विरल ही होता है. वह पलायन नहीं करती हैं किसी भी हारी-बीमारी और विपदा में. उन्हें तो पेड़ की तरह फलने-फूलने के लिए उनकी जड़ों को एक जगह से खोदकर दूसरी जगह पर विस्थापित कर दिया जाता है . यद्यपि,अपनी मूल जगह से जहां कि उनकी जड़ों को मनमाफ़िक खाद-पानी मिल रहा था,मुश्क़िल होता है उनके लिए वह सब छोड़कर दूसरी ज़मीन पर जड़ें जमाकर पुनः हरा-भरा होना. किंतु फिर भी उन्हें जन्म से मिले संस्कार और सीख का परिणाम है कि अपने पैरों को नयी  ...
युवा लेखक ललित फुलारा की कहानी ‘घिनौड़’ और ‘पहाड़ पर टैंकर’ पर एक विमर्श…

युवा लेखक ललित फुलारा की कहानी ‘घिनौड़’ और ‘पहाड़ पर टैंकर’ पर एक विमर्श…

साहित्यिक-हलचल
अरविंद मालगुड़ी पिछले दिनों ललित फुलारा की कहानी 'घिनौड़' और 'पहाड़ पर टैंकर' पढ़ी. इन दोनों ही कहानियों को मैंने छपने से पहले और छपने के बाद एक नहीं, दो-दो बार पढ़ा है. 'घिनौड़' (गौरेया) जहां एक वैज्ञानिक सोच वाली मनोवैज्ञानिक कहानी है, वहीं 'पहाड़ पर टैंकर' जड़ों से कट चुके उत्तराखंड के नौजवानों को जड़ों की तरफ लौटने की प्रेरणा देनी वाली. 'घिनौड़' को लेकर उत्तराखंड के कहानीकार और वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी ने टिप्पणी की 'कहानी लिखी तो अच्छी है, शिल्प एवं भाषा की दृष्टि से. शुरुआत रोचक है लेकिन अधूरी सी लगी. आखिर कथा पहुँची कहाँ?' यह बात सही है कि इस कहानी को पढ़ते हुए पाठकों को लगता है कि पिरदा और उनके बच्चे घनु की कहानी को आगे पहुंचाया जा सकता था. पर हो सकता है कि लेखक ने कहानी को वहीं इसलिए छोड़ा हो कि पाठक खुद ही अंदाजा लगा लें कि पिरदा और घनु की जिंदगी में आगे क्या हुआ होगा? पिरदा ...
अरे! ये तो कॉन्ट्रास्ट का ज़माना है…

अरे! ये तो कॉन्ट्रास्ट का ज़माना है…

किस्से-कहानियां
कहानी- कॉन्ट्रास्ट पार्वती जोशी पूनम ने अपनी साड़ियों की अल्मारी खोली और थोड़ी देर तक सोचती रही कि कौन-सी साड़ी निकालूँ. आज उसकी भाँजी रितु की शादी है. सोचा ससुराल पक्ष के सब लोग वहाँ उपस्थित होंगे. so उसे भी खूब सज धज कर वहाँ जाना होगा. उनमें से कोई भी साड़ी उसे पसंद नहीं आई. फिर भारी साड़ियों का बॉक्स खोला, हाल ही में उसने उन साड़ियों की तह खोलकर, उलट-पलट कर उन्हें बाहर हवा में रखा था. ग़रीब भाई वे उसके पास आकर बोले “बैनी! तेरा ये ग़रीब भाई तुझे क्या दे सकता है, ये तेरे सुहाग की चूड़ियाँ हैं, अल्ला ताला से दुआ माँगता हूँ कि तेरा सुहाग सदा बना रहे.” डबडबाई because आँखों से पूनम ने उनका हाथ पकड़ा. रुँधे गले से वह केवल इतना ही कह पाई,” नज़र भइया! ये मेरी शादी का सबसे खूबसूरत और क़ीमती तोहफ़ा है, इसे मैं हमेशा सँभाल कर अपने पास रखूँगी.” साड़ियों साल में एक बार वह उन साड़ियों को...
रनिया की तीसरी बेटी

रनिया की तीसरी बेटी

किस्से-कहानियां
कहानी मुनमुन ढाली ‘मून’ आंगन में चुकु-मुकु हो कर बैठी, because रनिया सिर पर घूंघट डाले, गोद मे अपनी प्यारी सी बेटी को दूध पिलाती है और बीच-बीच मे घूंघट हटा कर, अपने आस -पास देखती है और उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान छलक जाती है. सप्तेश्वर रनिया की सास गुस्से में तमतमाई चूल्हे से but गरम कोयला, चिमटे में दबाई बड़बड़ाती हुई रनिया की तरफ बढ़ी और गरम कोयला रनिया के पीठ पर झोंक दिया और करकश आवाज़ में बोली “झूठी, कलमुई फिर बेटी जानी तुने”. सप्तेश्वर सास,पास ही सर पकड़ के बैठbecause जाती है, ज़ोर-ज़ोर से बोलती है, हे मारा राम जी! कैसे उलट -फेर हो गया, डाक्टरनी जी ने तो बेटा बोला था. डाक्टरनी कहे झूठ बोलेगी, हमारी बहु ही चुड़ैल है. सप्तेश्वर सास को सर पिटता देख, रनिया सोचने लगी so और उसकी आंखें डब-डब भर गई. यही हिम्मत पहले कर ली होती तो, मेरी दोनो बेटियाँ जिंदा तो होती, पहले कितनी मूरख थ...
शुभदा

शुभदा

किस्से-कहानियां
कहानी डॉ. अमिता प्रकाश यही नाम था उसका शुभदा! शुभदा-शुभता प्रदान करने वाली. शुभ सौभाग्य प्रदायनी. हँसी आती है आज उसे अपने इस नाम पर और साथ ही दया के भाव भी उमड़ पड़ते हैं उसके अन्तस्थल में, जब वह इस नाम को रखने वाले अपने पिता को याद करती है.... कितने लाड़ और गर्व से, कितना सोच-समझकर, कितने सपने बुनकर उन्होंने उसका नाम रखा होगा- शुभदा. वह अपने माता -पिता की दूसरी सन्तान थी. पहले बड़ा भाई और फिर छोटी लाडली बहन.... “माँ-बाप फूले नहीं समा रहे होंगे कि चलो परिवार पूरा हुआ. भले ही उस जमाने में जब चार -पाँच बच्चे पैदा करना सामान्य और भाग्य की बात हुआ करती थी तब माता-पिता ने परिवार के पूरे होने के बारे में सोचा होगा ऐसा सम्भव नहीं था. यह मात्र उसकी अपनी सोच थी, शायद अपने को दिलासा देने का एक झूठा आसरा. वरना वह जमाना ही कुछ और था, कि परिवार में एक लड़का हुआ तो डाल को दोहरी करना जरूरी समझा जाता थ...
बेमौसम बुराँश

बेमौसम बुराँश

किस्से-कहानियां
कहानी प्रतिभा अधिकारी ट्रेन दिल्ली से काठगोदाम को रवाना हो गयी, मनिका ने तकिया लगा चादर ओढ़ ली,  नींद कहाँ आने वाली है उसे अभी; अपने ननिहाल जा रही है वह ‘मुक्तेश्वर’. उसे मुक्तेश्वर की संकरी सड़कें और हरे-धानी लहराते खेत और बांज के वृक्ष दिखने लगे हैं अभी से, इस बार खूब मस्ती करेगी वह... सारे मामा-मौसी के बच्चे जो इक्कट्ठे हुए हैं वहाँ, शायद ये उसका नानी के घर मौज-मस्ती का आखिरी वर्ष हो. दिल्ली के एक प्रतिष्ठित इन्जीनियरिंग कॉलेज की तीसरे वर्ष की छात्रा है वह; चौथा साल प्रोजेक्ट बनाने और इंटरव्यू देने में गुजरेगा और फिर नौकरी-नौकरी और बस नौकरी! फिर कहाँ मिलने वाले हैं उसे ये दिन! मन ही मन मुस्कुरा रही है वह. 'आजकल तू फेसबुक पर कुछ ज्यादा बैठने लगी है'  दीदी की इस आवाज ने उसकी नींद को आने से रोक दिया.... अचकचा कर उसने आँखे खोल दीं, दी यहाँ ट्रेन में भी पीछा नहीं छोड़ रही उसका....
राबर्ट तुम कहां हो

राबर्ट तुम कहां हो

किस्से-कहानियां
कहानी एम. जोशी हिमानी मैकलॉडगंज के साधना केन्द्र में बाहर घना अंधेरा छाया है. सौर ऊर्जा से जलने वाला बल्ब धीमी रोशनी से अंधेरे को दूर करने की असफल कोशिश कर रहा है. लीला नेगी साधना केन्द्र के बाहरी हिस्से में स्थित प्राकृतिक सिला पर इस हाड़ कंपाती सर्दी में बैठी है. वह दूर धौलागिरि की पहाड़ियों को देखने का असफल प्रयास कर रही है इतनी अंधेरी रात में पहाड़ियों को स्पष्ट दिखना असम्भव है परन्तु रोज-रोज इन पर्वतमालाओं को देखने की आदत के कारण वह उनकी बनावट, उनकी ऊँचाई, उन पर ढ़की बर्फ की चादर को स्पष्ट देख पा रही है. रोज ही वह इन पर्वत मालाओं को देखकर अपने अन्दर कुछ अच्छा सा महसूस करती है. बसन्त के बाद जब इन पर्वत मालाओं से बर्फ पिघलने लगती है तो पहाड़ियाँ बीच-बीच में से अपना अस्तित्व दिखाने का प्रयास करती दिखती हैं. तब वह सोचती है कि समय-समय पर वह भी इन पर्वत मालाओं की भांति अपना अस्तित्व, अपन...
मालपा की ओर

मालपा की ओर

किस्से-कहानियां
कहानी एम. जोशी हिमानी मालपा मेरा गरीब मालपा रातों-रात पूरे देश में, शायद विदेशों में भी प्रसिद्व हो गया है. मैं बूढ़ा, बीमार बेबस हूँ. बाईपास सर्जरी कराकर लौटा हूँ. बिस्तर पर पड़े-पड़े सिवाय आहत होने और क्रंदन करने के मैं मालपा के लिए कर भी क्या सकता हूँ? अन्दर कमरे से पत्नी गंगा और दोनों बेटों को आपसी बातचीत के स्वर कानों में पड़ रहे हैं. मैं भलीभांति जानता हूँ कि इलकी मालपा जाने की तैयारी अपनी सगे-सम्बन्धियों को कोई राहत पहुंचाने के लिए नहीं है वरन् यह तैयारी है वहां जाकर अपने को मृतक आश्रित दिखाकर सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता राशि पर दावा करना. गंगा उदास और दुखी होने का अभिनय बखूबी कर लेती है. इस बार भी ऐसा ही हो रहा है. सुबह अल्ल-सबेरे मेरे बिस्तर के पास आकर नेक सलाह दे गई है- ‘‘सुनों जी, जीवन को घर भेज देते हैं. अभी हम लोग सूतक भी तो नहीं मना सकते है, जब तक जेठ और जेठानी जी ...
सुन रहे हो प्रेमचंद! मैं विशेषज्ञ बोल रहा हूँ

सुन रहे हो प्रेमचंद! मैं विशेषज्ञ बोल रहा हूँ

साहित्यिक-हलचल
प्रकाश उप्रेती पिछले कई दिनों से आभासी दुनिया की दीवारें प्रेमचंद के विशेषज्ञों से पटी पड़ी हैं. इधर तीन दिनों से तो तिल भर रखने की जगह भी नहीं बची है. एक से बढ़कर एक विशेषज्ञ हैं. नवजात से लेकर वयोवृद्ध विशेषज्ञों की खेप आ गई है. गौर से देखने पर मालूम हुआ कि इनमें तीन तरह के विशेषज्ञ हैं. वैसे तीनों कोटि के विशेषज्ञ नाभिनालबद्ध हैं. because अंतर बस आभा में है. तीनों की अंतरात्मा जोर देकर यही कहती है- प्रेमचंद पर भी पढ़ना पड़ेगा क्या? उन पर तो बोला जा सकता है. इस भाव के साथ ये प्रेमचंद की आत्म को बैकुण्ठ देने मैदान में उतर आते हैं. इन तीन कोटि के विशेषज्ञों के बारे में थोड़ा जान लें- ज्योतिष इनमें पहली कोटि के विशेषज्ञ वो हैं जिन्होंने सालों- साल से प्रेमचंद की कोई कहानी तक नहीं पढ़ी है. ये प्रथम कोटि के विशेषज्ञ हैं. ये पूर्वज्ञान के बल पर ही प्रेमचंद को निपटा देते हैं. because यह कोई पहला...
मां, बचपन और सोनला गांव 

मां, बचपन और सोनला गांव 

किस्से-कहानियां
डॉ. अरुण कुकसाल (भारतीय वन सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे श्री गोविन्द प्रसाद मैठाणी, देहरादून में रहते हैं. ‘कहीं भूल न जाये-साबी की कहानी’ किताब श्री गोविन्द प्रसाद मैठाणीजी की आत्मकथा है. अपने बचपन के ‘साबी’ नाम को जीवंत करते हुये बेहतरीन किस्सागोई लेखकीय अंदाज़ में यह किताब हिमालिका मीडिया फाउण्डेशन, देहरादून द्वारा वर्ष-2015 में प्रकाशित हुई है.) ‘साबी, जीवन में कहां-कहां नहीं भटका और कैसे-कैसे खतरों का बचपन से बुढ़ापे तक सामना नहीं किया. मन-तन की भटकन और मृत्यु से भिडंत उसकी कहानी रही है. सोनला से नन्दप्रयाग, नन्दप्रयाग से देहरादून वहां से बरेली, श्रीनगर, कानपुर होते हुए मध्य प्रदेश और अन्ततः वापस देहरादून. देहरादून लगता है शारीरिक अटकन की अन्तिम कड़ी होगी. भटकनों की इस यात्रा में साबी का मन तो सोनला में ही अटका रहा. अपने गांव के कूड़े का बौंड, ओबरा, हाट्टि, तिबारी, गाड़ का मंगरा, धार का ...