Tag: ओ इजा

‘गिदारी आमा’ के विवाह गीत

‘गिदारी आमा’ के विवाह गीत

लोक पर्व-त्योहार
डॉ. मोहन चंद तिवारी "पिछले लेखों में शम्भूदत्त सती जी के 'ओ इजा' उपन्यास के सम्बन्ध में जो चर्चा चल रही है,उसी सन्दर्भ में यह महत्त्वपूर्ण है कि इस रचना का एक खास प्रयोजन पाठकों को पहाड़ की भाषा सम्पदा और वहां प्रचलित लोक संस्कृति के विविध पक्षों तीज-त्योहार, मेले-उत्सव खान-पान आदि से अवगत कराना भी रहा है.जैसा कि लेखक ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है- “पाठकों के समक्ष यह उपन्यास प्रस्तुत करते हुए मैं इस बात का निवेदन करना चाहता हूँ कि दिनोंदिन गांवों का शहरीकरण होने के कारण उसकी बोली, खान-पान, रहन-सहन, लोक-परम्पराएं और लोक भाषाएं विलुप्त होती जा रही हैं.इसलिए यहां मैंने कुमाऊंनी बोली (जो लगभग विलुप्त होने के कगार पर है) को अपनी बात कहने का माध्यम बनाकर प्रस्तुत उपन्यास में कुमाऊंनी हिंदी का प्रयोग किया है.” इस उपन्यास में 'झंडीधार' गांव की 'आमा' का एक किरदार कुछ ऐसा ही है,जो गा...
‘ओ इजा’ उपन्यास में कल्पित इतिहास चेतना और पहाड़ की लोक संस्कृति

‘ओ इजा’ उपन्यास में कल्पित इतिहास चेतना और पहाड़ की लोक संस्कृति

साहित्यिक-हलचल
शम्भूदत्त सती का व्यक्तित्व व कृतित्व-2 डॉ. मोहन चन्द तिवारी पिछले लेख में शम्भूदत्त सती जी के 'ओ इजा' उपन्यास में नारी विमर्श से सम्बंधित चर्चा की गई थी. इस उपन्यास का एक दूसरा खास पहलू पहाड़ के लोगों की इतिहास चेतना और लोक संस्कृति से भी जुड़ा है,जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. पहाड़ वालों ने अपने इतिहास और धार्मिक तीर्थस्थानों के सम्बन्ध में सदियों से जो अनेक प्रकार की भ्रांतियां और अंधरूढ़ियां पालपोष रखी हैं,ज्यादातर वे या तो किंवदंतियों या जनश्रुतियों पर आधारित हैं या साम्राज्यवादी अंग्रेज इतिहासकारों की सोच के कारण पनपी हैं. पहाड़ी समाज में कस्तूरी की गंध की तरह रची बसी इन भ्रांतियों को आज कोई प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर खारिज भी करना चाहे तो नहीं कर सकता, क्योंकि ये आस्था और विश्वास के रूप में अपनी गहरी पैंठ बना चुकी हैं.यहां पहाड़ के विभिन्न मंदिरों और यह...